महापुरुष भगवान और हमारे(माया आधीन) के कर्मों में भेद?

महापुरुष भगवान

महापुरुष जो भी कर्म किया करते है उनके कर्म हमारे तरह ही लगते हैं। लेकिन उनके कर्म और हमारे कर्म में बहुत भेद है? देखो! हम(मनुष्य) जो कर्म अपने लिए करते है, अपनी कामना पूर्ति के लिए जो कर्म करते है, वो कर्म हैं। परन्तु! जो दूसरों के लिया कर्म किया जाता है, वो परोपकार, कल्याण, कृपा आदि कहा जाता है। हम लोग जो भी कर्म करते है, उसका उद्देश्य आनंद है, हम खाना खाए, सोये, बोले, हसे, यहाँ तक की रोते है, वो भी आनंद के लिए। आप बोलेंगे रोते है! आनंद के लिए? हाँ! आप रोते भी है तो आनंद के लिए। क्योंकि आपको जो दुःख मिल रहा है, आप उसे नहीं चाहते, इसलिए रो कर उस दुःख को निकाल रहे है।

तो! क्योंकि हम(मनुष्य) कोई भी कर्म करते है वो अपने आनंद के हेतु ही करते है। और चूंकि महापुरुष आनंद अर्थात भगवान को प्राप्त कर लेते है, तो वे महापुरुष आनंद मय हो जाते है। महापुरुष कृतकृत्य हो जाते है। कृतकृत्य का अर्थ करना कर चुके। अर्थात महापुरुष को जो करना था (आनंद की प्राप्ति), वो वे कर चुके। तो अब उनके लिए कुछ करना शेष नहीं रह जाता। इसलिए रामचरितमानस: उत्तरकाण्ड ५२ तुम्हरी कृपाँ कृपायतन अब कृतकृत्य न मोह। भावार्थ:-हे कृपाधाम। अब आपकी कृपा से मैं कृतकृत्य हो गई। अब मुझे मोह नहीं रह गया।और अवधूतोपनिषद् २६ कहता है, "मैं कृतकृत्य हूँ, तो भी लोगों पर कृपा करने की इच्छा से यदि शास्त्रानुसार चलता हूँ, तो इसमें मेरी क्या हानि है?"

अतेव! महापुरुष, परोपकार कृपा की भावना अपने मन में जागृत करता है, इसलिए क्योंकि उसे मालूम है कि कभी मै भी उनकी तरह अशांत और दुखी था। और इसी प्रकार भगवान भी सोचते है। भगवान यह संसार बनाने से पहले सोचे ऐतरेयोपनिषद् १.१.१ से १.३.११ इन सभी वेद मंत्रों में भगवान से सोचा कि, जो जीव मेरे अंदर है मै इन्हें बाहर निकल कर कर्म फल का विधान प्रकट कर देता हूँ , और मै इनमे व्याप्त हो जाता हूँ क्योंकि ये जीव के पास इतनी शक्ति नहीं है।"

अतः जो महापुरुष भगवान कर्म करते है वो दूसरों के कल्याण केलिए ही करते है। उनके लिए कर्म शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि कर्म मतलब एक्शन नहीं होता, एक्शन मतलब क्रिया होता है। और क्रिया और कर्म में बहुत भेद है। क्रिया जैसे उठना-बैठना खाना-पीना, और कर्म मतलब खाने-पीने में जो आपको अच्छा बुरा खाने के स्वाद का अनुभव होता है, वो कर्म है। क्योंकि अनुभव मन करता है और मन ने किसी से राग और द्वेष रखा तो वो कर्म कहलायेगा। अगर हम वही खाना में हमारा राग और द्वेष न हो तो वह कर्म नहीं होगा। देखिये! अर्जुन ने कितने लोगों की हत्या की! लेकिन भगवान ने उसका फल नहीं दिया। क्योंकि अर्जुन सिर्फ लोगों को मार रहा था, लेकिन उसने अपना मन भगवान में लगाया था, और साथ ही उससे युद्ध से राग और द्वेष भी नहीं था। कर्म के बारे में अधिक जानने के लिए इस पृष्ठ पर जाये कर्म किसे कहते हैं? कर्म, क्रिया और कार्य में क्या भेद हैं?

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