कर्म-धर्म का पालन करने का फल क्या है? - वेद, गीता अनुसार

धर्म का फल

सनातन धर्म के धर्म ग्रंथों में कर्म-धर्म का विस्तार से निरूपण किया गया है। कर्म-धर्म का सबसे विस्तृत निरूपण महाभारत में मिलता है। जिसमें जगह-जगह कर्म-धर्म का पालन करों ऐसा कहा गया है। परन्तु, उन्ही ग्रंथों में यह भी कही-कही कहा गया है कि कर्म-धर्म का पालन करना उचित नहीं है, क्योंकि कर्म-धर्म का फल नश्वर है। अतएव नश्वर फल की कामना करना नहीं चाहिए। अब यह बात किस आधार पर कहा जाता है एवं कर्म-धर्म का फल क्या है वो अब प्रमाणों द्वारा जानिए।

कर्म-धर्म क्या है?

मनुष्य अपने जीवन में जो कर्म धर्म अनुसार करता है वो कर्म-धर्म है। इनका पालन करने से इस लोक और परलोक में भी बहुत मान-सम्मान मिलता है। जैसे एक धर्मज्ञ जो हमेसा सत्य बोलते थे, उनका नाम आज भी सम्मना से लिया जाता है, नाम राजा हरिश्चन्द्र। अगर पुरुषोत्तम (पुरुषों में उत्तम) किसी को कहा जाता है तो वो श्री राम को कहा जाता है। जिन्होंने धर्म का पालन करने के लिए क्या कुछ नहीं किया है।

कर्म-धर्म का फल क्या है?

इष्टापूर्तं मन्यमाना वरिष्ठं नान्यच्छ्रेयो वेदयन्ते प्रमूढाः।
नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेऽनुभूत्वेमं लोकं हीनतरं वा विशन्ति॥
- मुण्डकोपनिषद् १.२.१०

अर्थात् :- इष्ट और पुर्त (सकाम) कर्मों को ही श्रेष्ठ मानने वाले अत्यंत मुर्ख लोग, उससे भिन्न वास्तविक श्रेय को नहीं जानते, वो पुण्यकर्मों के फलस्वरूप स्वर्ग के उच्चतम स्थान में वहाँ के भोगों का अनुभव करके इस मनुष्यलोक में अथवा इससे भी अत्यंत हिन् योनियों में प्रवेश करते है।

मुण्डकोपनिषद् १.२.१० मन्त्र का विस्तार करते हुए श्री कृष्ण ने गीता में कुछ इस प्रकार कहा -

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक- मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्॥२०॥
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते॥२१॥
- गीता ९.२०-२१

अर्थात् :- (श्री कृष्ण ने कहा -) तीनों वेदों में कहे हुए सकाम कर्मों को और सोमपान करने वाले, जो पापरहित मनुष्य यज्ञों के द्वारा इन्द्ररूपसे मेरा पूजन करके स्वर्गप्राप्ति चाहते हैं। वे अपने पुण्य के फलस्वरूप स्वर्गलोक को प्राप्त करके, स्वर्ग में देवताओं के दिव्य भोगों को भोगते हैं। वे उस विशाल स्वर्गलोक के भोगों को भोगकर पुण्य क्षीण (समाप्त) होने पर मृत्युलोक में आ जाते हैं। इस प्रकार तीनों वेदों में कहे हुए सकाम धर्म का आश्रय लिये हुए भोगों की कामना करने वाले मनुष्य बार-बार आवागमन को प्राप्त होते हैं।

यह निश्चित नहीं है कि स्वर्ग में अपने कर्म-फल का आनंद लेने के बाद, उसे मानव शरीर मिलेगा। मुण्डकोपनिषद १.२.१० जैसा कहा गया कि वहाँ के भोगों का अनुभव करके इस मनुष्यलोक में अथवा इससे भी अत्यंत हिन् योनियों में प्रवेश करते है। यानी पशु, पक्षी, जानवर आदि बनना पड़ सकता है कर्म अनुसार।

स्वर्ग में भूख प्यास नहीं लगती। स्वर्ग में कल्पवृक्ष होने के कारण जो चाहे वो तुरंत पूरी हो जाती है। स्वर्ग में रहने वाले लोगों के शरीर से खुशबू निकलती है। लेकिन वहाँ भी द्वेष काम, क्रोध, लोभ, मोह, घृणा, द्वेष एवं भय है अर्थात् माया है। अपने से आगे वाले स्वर्ग लोक (११ प्रकार के लोक) के सुख को देख कर जलन है।

पुण्येन पुण्यं लोकं नयति पापेन पापमुभाभ्यामेव मनुष्यलोकम्‌॥
- प्रश्नोपनिषद् ३.७

अर्थात् :- वह पुण्य कर्मों के द्वारा पुण्य लोक में जाता है, पाप कर्मों के द्वारा नर्क में और पाप तथा पुण्य के मिश्रित कर्मों से पुनः मनुष्य लोक में जाता है।

तो कर्म-धर्म का ये फल है कि थोड़े दिन को स्वर्ग मिलता है, वहाँ भी माया है, फिर उसके बाद वापस ८४ लाख के किसी शरीर में जाना पड़ता है। यानी अपने किये गए कर्म अनुसार स्वर्ग-नरक भोग कर फिर मनुष्य लोक में जन्म लेना पड़ता है। इसलिए श्री कृष्ण ने गीता में कहा -

यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्॥
- गीता ९.२५

अर्थात् :- (सकामभावसे) देवताओं का पूजन करने वाले (शरीर छोड़ने पर) देवताओंको प्राप्त होते हैं, पितरों का पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूतप्रेतों का पूजन करने वाले भूतप्रेतोंको प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करने वाले मेरे को ही प्राप्त होते हैं। (गीता ८.१६ मेरा पूजन करने से मेरे भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता।)

अतः कर्म-धर्म का पालन करने से श्रेष्ठ भगवान की भक्ति है। क्योंकि कर्म-धर्म कुछ समय का स्वर्ग तथा इस लोक में केवल मान-सम्मान, वैभव आदि ही दे सकता है। अवश्य पढ़े वेद - कर्म-धर्म का पालन करने वाले घोर मूर्ख है। और वेद कहता है - कर्म धर्म का पालन करना बेकार है।

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