वेद

वेद के चार भाग

'वेद' शब्द संस्कृत भाषा के विद् से वेद शब्द बना है, इस तरह वेद का शाब्दिक अर्थ 'ज्ञान के ग्रंथ' है, इसी धातु से 'विदित' (जाना हुआ), 'विद्या'(ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं।

वेदों में शब्द

वेदों के शब्द कुछ और है और भावार्थ कुछ और है। जैसे शब्द है आत्मा और अर्थ है भगवान, शब्द है आकाश और अर्थ है भगवान, शब्द है इंद्र और अर्थ है भगवान। शब्द है जीव और अर्थ है भगवान, शब्द है प्राण और अर्थ है भगवान। वेदों को अपौरुषेय भी कहते है। अपौरुषेय (जिसे कोई व्यक्ति न भगवान ने बनाया है इसलिए यह कृत) माना जाता है।

वेद विनिर्गत ग्रन्थ है

मैत्रेयी उपनिषद ६.३२ व बृहदारण्यकोपनिषद् २.४.१० में कहा कि "भगवान गहरी नीद में सो रहे थे और वेद प्रकट हो गए।" भगवान ने वेद बनाया नहीं है, उनके मुँह से निकल गया। इसलिए वेदों को किसी एक दिन बनाया नहीं है अतएव वेद सनातन है। सनातन का अर्थ होता है "जो सदा से था, सदा है, और सदा रहेगा।" जैसे "Energy can neither be created nor be destroyed" अर्थात ऊर्जा एक दिन बानी नहीं है, वो सदा से थी, सदा है, और क्योंकि ऊर्जा को नष्ट नहीं किया जा सकता, इसलिए सदा रहेगी।

तो वेदो को भगवान ने प्रकट किया। और ब्रम्हा जी से कहा की आप पढ़े और सृष्टि करे। तो क्योंकि वेदो में जो कहा है उसके अनुसार संसार बना। इसलिए जब आप वेद पड़ते है तो उसमे ब्रम्हांड, आनंद ब्रह्मांड, सूर्य, चंद्र मंगल जैसे शब्द आते है। बिना किसी दूरबीन से इतने सालो पहले हम इस लिए ब्रह्मांड और गृह नछत्रो को जानते थे क्यों की ये सब वेदों के अनुसार बने थे और वेदों का ज्ञान हमारे ऋषि मुनिओ के पास था।

वेद में कुल मंत्र

वेद में कुल एक लाख मंत्र है। जिसमें ८०,००० कर्मकांड, १६,००० भक्तिकांड, ४००० ज्ञानकांड की ऋचाएं हैं।

वेद का ज्ञान मनुष्यों तक कैसे आया?

वेद को भगवान ने प्रकट किया फिर ब्रह्मा ने वेद का ज्ञान प्राप्त किया। वेद का ज्ञान ब्रह्मा ने अपने बच्चों (संसक मनु आदि) को दिया। फिर ब्रह्मा के बच्चो के द्वारा यह ज्ञान चला आ रहा है। यह ज्ञान किसी ने लिखा नहीं था पहले, यह ज्ञान सुनते-सुनते पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा था। इसलिए वेद को श्रुति भी कहते हैं जिसका अर्थ है 'सुना हुआ ज्ञान'।

वेद का भाजन

ऋषि कृष्ण द्वैपायन भगवान के अवतार है। श्रीकृष्ण का जन्म द्वापर में हुआ और ऋषि कृष्ण द्वैपायन जी भी द्वापर में हुए इन्हे आज वेदव्यास जी के नाम से जाना जाता है। द्वापर युग के अंत में जब कलियुग का प्रारम्भ हो रहा था, तब एक समस्या उत्पन्य होने लगी। क्योंकि वेद एक था और पहले एक वेद के सम्पूर्ण ज्ञान को एक व्यक्ति याद रख लेता था परन्तु कलियुग के मनुष्य को सम्पूर्ण वेद का ज्ञान याद करना संभव नहीं था। इसलिए ऋषि कृष्ण द्वैपायन अर्थात वेदव्यास जी ने उस समय के ऋषिओं के आज्ञा से वेद का चार भाग किया।

वेद के चार भाग हैं

यह वेद चार भागों में विभाजित हुए १. ऋग्वेद २.यजुर्वेद ३. सामवेद ४. अथर्ववेद
सृष्टि के प्रारंभ में वेद अविभक्त तथा एक लाख मंत्र वाला था। अठाइसवें द्वापर में वेदव्यास ने अपने पूर्व के वेदव्यासों के अनुरूप ही चार भागों में संयुक्त वेद को विभक्त किया। इनके अध्ययन के लिए चार विद्वान शिष्यों को दीक्षित किया गया। पेल को ऋग्वेद, वेश्म्पायन को यजुर्वेद, जैमिनी को सामवेद तथा सुमन्तु को अथर्ववेद का ज्ञाता बनाया। चार वेद में भी एक वेद के चार भाग किये गए है उन्हें मन्त्र संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद कहते है।

हर एक वेद के चार भाग हैं

वेद के चार भाग हैं - ❛मन्त्र संहिता❜, ब्राह्मण, ❛आरण्यक❜ और ❛उपनिषद्❜
(१) मन्त्र संहिता में वैदिक देवी देवताओं की स्तुति के मंत्र हैं।
(२) ब्राह्मण में वैदिक कर्मकाण्ड और यज्ञों का वर्णन है।
(३) आरण्यक में कर्मकाण्ड और यज्ञों की रूपक कथाएँ और तत् सम्बन्धी दार्शनिक व्याख्याएँ हैं।
(४) उपनिषद् में वास्तविक वैदिक दर्शन का सार है।

उपवेद

आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा स्थापत्यवेद- ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद कात्यायन ने बतलाये हैं। स्थापत्यवेद - स्थापत्यकला के विषय, जिसे वास्तु शास्त्र या वास्तुकला भी कहा जाता है, इसके अन्तर्गत आता है।
धनुर्वेद - युद्ध कला का विवरण। इसके ग्रंथ विलुप्त प्राय हैं।
गन्धर्वेद - गायन कला।
आयुर्वेद - वैदिक ज्ञान पर आधारित स्वास्थ्य विज्ञान।

वेदों में शाखा

पूर्वोक्त चार शिष्यौंने शुरुमे जितने शिष्यौंको अनुश्रवण कराया वे चरणसमुह कहलाये | प्रत्येक चरणसमुहमे बहुतसे शाखा होते है। और इसी तरह प्रतिशाखा,अनुशाखा आदि बन गए । वेद की अनेक शाखाएं यानि व्याख्यान का तरीका बतायी गयी हैं। ऋग्वेद की २१, यजुर्वेद की १०९, सामवेद की १०००, अर्थववेद की ५० इस प्रकार ११ ८० शाखाएं हैं परन्तु आज १२ शाखाएं ही मूल ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। इन सभी सखाओं के एक-एक उपनिषद् होते हैं। उपर्युक्त ११८० शाखाओं में से वर्तमान में केवल १२ शाखाएँ ही मूल ग्रन्थों में उपलब्ध हैः-

ऋग्वेद की २१ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- शाकल-शाखा और शांखायन शाखा। यजुर्वेद में कृष्णयजुर्वेद की ८६ शाखाओं में से केवल ४ शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त है- तैत्तिरीय-शाखा, मैत्रायणीय शाखा, कठ-शाखा और कपिष्ठल-शाखा शुक्लयजुर्वेद की १५ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त है- माध्यन्दिनीय-शाखा और काण्व-शाखा। सामवेद की १,००० शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त है- कौथुम-शाखा और जैमिनीय-शाखा। अथर्ववेद की ५० शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- शौनक-शाखा और पैप्पलाद-शाखा।

उपर्युक्त १२ शाखाओं में से केवल ६ शाखाओं की अध्ययन-शैली प्राप्त है-शाकल, तैत्तरीय, माध्यन्दिनी, काण्व, कौथुम तथा शौनक शाखा। यह कहना भी अनुपयुक्त नहीं होगा कि अन्य शाखाओं के कुछ और भी ग्रन्थ उपलब्ध हैं, किन्तु उनसे शाखा का पूरा परिचय नहीं मिल सकता एवं बहुत-सी शाखाओं के तो नाम भी उपलब्ध नहीं हैं।

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