क्यों तुलसीदास जी ने लिखा ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी? क्या सही अर्थ है?
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥ का सही अर्थ क्या है? इस लेख को धैर्य पूर्वक पढ़े हम सभी शंकाओं का समाधान इस लेख में करने वाले है। अस्तु, गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस का पारायण हम बचपन से ही करते आ रहे हैं। लेकिन समय-समय पर इसके तमाम अंशो पर सवाल उठाये जाते रहते हैं। इसमें से एक चौपाई जिसका सबसे ज्यादा उल्लेख होता है वह है :-
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥
- श्रीरामचरितमानस सुंदरकाण्ड
अक्सर इस चौपाई को लेकर दलित संगठन, महिला संगठन तथा कभी-कभी मानवाधिकार संगठन भी अपना आक्रोश जताते हैं। कुछ लोग इसे रामचरितमानस से निकालने की मांग करते हैं। कभी मानस की प्रतियां जलाते हैं। तुलसीदास को प्रतिगामी दलित, महिला विरोधी बताते हैं। मैं कोई मानस मर्मज्ञ तो हूँ नहीं जो इसकी कोई अलौकिक व्याख्या कर सकू। लेकिन फिर भी मानव बुद्धि द्वारा भी यह सोचने वाली बात है कि जो तुलसीदासजी ‘बंदउँ संत असज्जन चरना।’ लिखकर मानस की शुरुआत करने वाले, ‘बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥’ सीताजी रामजी के चरणों की वंदना करने वाले, विनयपत्रिका में श्रीसीता स्तुति करते हुए सीता जी को हे माता तथा हे जगज्जननी जानकीजी कहने वाले, कैसे समस्त ‘शूद्र’ तथा ‘स्त्री’ को पिटाई का पात्र मान सकते है?
वैदिक वर्ण व्यवस्था में शूद्र समाज में सेवक है। अर्थात् जो भी व्यक्ति किसी की सहायता करता हो किसी कार्य में वो शूद्र के अंतर्गत आता है। जैसे आजकल लोग (लेबर, नौकरी, वर्कर) अर्थात् जॉब करते है वो सब शूद्र कहलायेगें। अस्तु, जहा तक रही बात शूद्रों की। तो तुलसीदास जी शूद्रों के विषय में ऐसा कदापि लिख ही नहीं सकते। क्यों? इसलिए क्योंकि उनके परम प्रिय श्रीराम द्वारा शबरी, विषाद, केवट आदि से मिलन के जो उदाहरण है, वो तो और कुछ ही दर्शाते है। यह ध्यान रहे कि राम क्षत्रिय हो कर भी विषाद, केवट (शूद्र) आदि सभी को गले लगाया है तथा शबरी (शूद्र) के जूठे बेर तक खाये है। ऐसे श्री राम के प्रति तुलसीदास का प्रेम है, वो राम के आदर्श के विरुद्ध क्यों कुछ कहेंगे?
अतएव तुलसीदास जी के शब्द ताड़ना का अर्थ ‘शूद्र’ तथा ‘स्त्री’ को पीटना अथवा प्रताड़ित करना है। यह बात कुछ सही नहीं लगती।
अस्तु, सबसे पहले यह जानना होगा कि यह बात कौन बोल रहा है और क्या बोले का कारण है? यह प्रसंग उस समय का है जब हनुमानजी सीता की खबर लेकर वापस लौट आये थे। तथा राम सीता की मुक्ति हेतु लंका पर आक्रमण करने के लिये समुद्र से रास्ता देने की विनती कर रहे थे। तीन दिन बीत जाने पर, समुद्र देव नहीं आये। तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले - बिना भय के प्रीति नहीं होती, हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ। तब समुद्र देव -
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥।
गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥१॥
- श्रीरामचरितमानस सुंदरकाण्ड
भावार्थ:- समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा - हे नाथ! मेरे सब अवगुण (दोष) क्षमा कीजिए। हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी - इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड़ है।
तव प्रेरित मायाँ उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए॥
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥२॥
भावार्थ :- आपकी प्रेरणा से माया ने इन्हें सृष्टि के लिए उत्पन्न किया है, सब ग्रंथों ने यही गाया है। जिसके लिए स्वामी की जैसी आज्ञा है, वह उसी प्रकार से रहने में सुख पाता है।
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥३॥
भावार्थ :- प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी, किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है। ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री - ये सब दण्ड के अधिकारी हैं। (ऐसा अज्ञानी लोग अर्थ लगाते है।)
प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई॥
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई। करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई॥४॥
भावार्थ :- प्रभु के प्रताप से मैं सूख जाऊँगा और सेना पार उतर जाएगी, इसमें मेरी बड़ाई नहीं है (मेरी मर्यादा नहीं रहेगी)। तथापि प्रभु की आज्ञा अपेल है (अर्थात् आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं हो सकता) ऐसा वेद गाते हैं। अब आपको जो अच्छा लगे, मैं तुरंत वही करूँ।
अब जरा सोचिये अगर हम अज्ञानियों के अर्थ को सही भी मान ले, तो यह बात तो समुद्र कह रहा है। राम और तुलसीदास जी ने ये तो बात कही ही नहीं। तुलसीदास जी ने तो केवल समुद्र देव के बात को लिखा है। तो ऐसे अभिमानी समुद्र देव की बात का बुरा किसी को मानना नहीं चाहिए। इंद्र अहिल्या में आसक्त हो गया, यह सब देवताओं का हल किसी से छुपा नहीं है। और वैसे भी देवता भगवान् तो होते नहीं है। देवता भगवान् में जमीन आसमान का अंतर है। हम ही लोग अधिक पुण्य कर ले तो देवता बनते है कुछ दिन के लिए, फिर वो देवता की सीट हम से छीन कर जो हमसे अधिक पुण्य करता है उसको मिल जाती है।
अगर यह भी मान ले की तुलसीदास जी ने ऐसे गलत वचन का समर्थन कर रहे है। तो फिर वही तुलसीदास ऐसा क्यों लिखते -
अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी॥
इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई॥
- श्रीरामचरितमानस किष्किंधाकाण्ड
भावार्थ :- (श्री रामजी ने कहा-) हे मूर्ख! (बालि) सुन, छोटे भाई की स्त्री, बहिन, पुत्र की स्त्री और कन्या - ये चारों समान हैं। इनको जो कोई बुरी दृष्टि से देखता है, उसे मारने में कुछ भी पाप नहीं होता।
राम ने यह बात क्रोध में आके कहा है। अतएव आप लोग किसी को मारने मत लगियेगा। भरत-कौसल्या संवाद में भरत जी कहते है -
जे अघ मातु पिता सुत मारें। गाइ गोठ महिसुर पुर जारें॥
जे अघ तिय बालक बध कीन्हें। मीत महीपति माहुर दीन्हें॥
जे पातक उपपातक अहहीं। करम बचन मन भव कबि कहहीं॥
ते पातक मोहि होहुँ बिधाता। जौं यहु होइ मोर मत माता॥
- श्रीरामचरितमानस अयोध्याकांड
भावार्थ :- (भरत जी बोल रहे है) जो पाप माता-पिता और पुत्र के मारने से होते हैं और जो गोशाला और ब्राह्मणों के नगर जलाने से होते हैं, जो पाप स्त्री और बालक की हत्या करने से होते हैं और जो मित्र और राजा को जहर देने से होते हैं। कर्म, वचन और मन से होने वाले जितने पातक एवं उपपातक (बड़े-छोटे पाप) हैं, जिनको कवि लोग कहते हैं, हे विधाता! यदि इस काम में मेरा मत हो, तो हे माता! वे सब पाप मुझे लगें।
यहाँ भरत जी बोल रहे है कि 'जो पाप स्त्री और बालक की हत्या करने से होते हैं। वो पाप उन्हें लग जाये अगर उन्होंने राम को हटा कर स्वयं राजा बनने की इच्छा की हो तो।'
तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं॥
जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी॥
- श्रीरामचरितमानस अयोध्याकांड
भावार्थ :- (वाल्मीकिजी बोल रहे है) आपको छोड़कर जिनके दूसरे कोई गति (आश्रय) नहीं है, हे रामजी! आप उनके मन में बसिए। जो पराई स्त्री को जन्म देने वाली माता के समान जानते हैं और पराया धन जिन्हें विष से भी भारी विष है।
पराई स्त्री को माता मैंने वाले के मन में राम बसे, ऐसा कह कर स्त्री का सम्मान ही तो किया जा रहा है।
यह सब श्रीरामचरितमानस में मिलता है। अतएव तुलसीदास स्त्री विरोधी नहीं थे। इतिहास में मुग़लों तथा अंग्रेजों ने शाशन किया था, उन्होंने कई उलटी-सीधी बातें धर्म ग्रंथों में लिखी है। इसलिए जो तुलसीदास सती तथा सीता को माँ मानते हो, उनकी ऐसी सोच हो ही नहीं सकती।
अस्तु, अगर अब तक के सभी प्रमाण तथा तर्क को गलत भी मान ले, तो भी एक उदाहरण लाकर बता दीजिये जिसमे किसी भी सुख-दुःख के अवसर पर राम सीता को मार रहे हो? ऐसा एक भी उदाहरण आपको न तो रामायण तथा न रामचरितमानस में मिलेगी। बल्कि इसके विपरीत राम सीता की बात मानकर हिरण के पीछे जाते है। जरा सोचिये! तुलसीदास श्री राम के भक्त है तो राम के आदर्श को भी मानते है। तो फिर उनके आदर्श के विपरीत जाकर स्त्री को मारने की बात का समर्थन क्यों करेंगे?
तो अब सही अर्थ क्या है? तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस को अवधी में लिखा है। अतएव शब्दों का अर्थ तथा भावार्थ भी अलग होगा। इसका अर्थ गीता प्रेस तथा अन्य लोगों ने इस प्रकार किया है -
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥
- श्रीरामचरितमानस सुंदरकाण्ड
भावार्थ :- (समुद्र देव राम से कह रहे है -) प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी, किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है। ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री - ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं।
इसका भाष्य किया जाये तो - ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री के स्वामी को ज्ञान देना आवश्यक है। हम आत्मा है और यह हमारा शरीर है। यह शरीर में आत्मा है इसलिए यह चेतन है और इसमें मन-बुद्धि है जिसके द्वारा यह शरीर चलता है। अतएव मन-बुद्धि को भी शरीर का स्वामी कहा जाता है। इसलिए यहाँ पर अर्थ होता है - ढोल के स्वामी को यह ज्ञान हो कैसे ढोलक बजाना है, गँवार शरीर के स्वामी को यह ज्ञान हो कैसे जीवन वेदानुसार जीना है, शूद्र शरीर के स्वामी को यह ज्ञान हो कैसे सेवा करनी है, पशु को भी अभ्यास (ज्ञान) कई चीजों का कराया जाता है (जैसे बैल को जोताई के वक्त सीधे चलना है) तथा स्त्री शरीर के स्वामी (मन-बुद्धि) को यह ज्ञान हो कैसे समाज में रहना है।
ऐसा गीता प्रेस के भावार्थ अनुसार हमारा भाष्य है। अगर यह भाष्य गलत भी हुआ, तो भी इस बात पर ध्यान नहीं देना चाहिए क्योंकि यह बात एक अभिमानी समुद्र देवता कह रहा है। और देवता तथा भगवन में बहुत अंतर होता है। अधिक जानने के लिए पढ़े देवी-देवता और भगवान में क्या अंतर है?