मनुष्य कितने दुखों से पीड़ित है? सबसे बड़ा दुःख?

दैहिक, दैविक और भौतिक

वेद में ताप को दुःख भी कहा जाता है। विश्व का प्रतेक जीव (व्यक्ति) दुखी है। तीन प्रकार के तापो (दुखों) से तप रहा है। आध्यात्मिक (दैहिक), आधिभौतिक (भौतिक) और आधिदैविक (दैविक) केवल यह तीन प्रकार के ताप (दु:ख) हैं संसार के सभी जीवों (मनुष्यों) को। यही ताप प्रतेक छण और प्रतेक जीवों (माया के अधीन मनुष्य) को दुःखमय बनाये हुए हैं। इन तीनों में सबसे प्रमुख है आध्यात्मिक ताप जिसे दैहिक दुःख भी कहते है।

आध्यात्मिक (दैहिक)

आध्यात्मिक दुःख भी दो प्रकर का होता है:- १. शारीरक और २. मानसिक। इन दोनों में मानसिक ताप (दुख) सबसे बड़ा दुखदाई है।

१.शारीरक ताप

जो शरीर के रोग है, यह शारीरक ताप (दुःख) कहलाती है। आप जानते ही है। आज बुखार है, तो कलअतिसार (डायरिया) है, आज ब्लड प्रेशर बढ़ गया तो कल डाइबटीज हो गया। इतनी जटिल शरीर की बनावट है की कोई न कोई भाग गड़बड़ रहता ही है। फिर मनुष्य भी असावधान है विषयों का लोलुप (लालची) है, कोई संयम से आहार विहार व्यवहार नहीं रहता। इसलिए सदा प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रोग से ग्रस्त (पीड़ित) हैं। और अगर मान लो कोई करोड़ों में कोई एक ऐसा व्यक्ति भी हो। तो मानसिक रोग से तो सब के हैं। चींटी से लेकर स्वर्ग तक सब जीव जितने भी ❛माया अधीन है❜ वो सब इस मानसिक रोग से दुखी हैं।

२. मानसिक ताप

मानसिक तप है काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, भय आदि। इसमें से तीन प्रमुख हैं, काम, क्रोध, लोभ। और इन तीनों में प्रमुख दुःख हैं काम (हमारी इच्छाएं)। जो संसार सम्बन्धी सुख की इच्छाएं यही सब दुखों की जननी हैं। और जो इन सब दुखों का मूल है वो है अज्ञान। क्या अज्ञान? हमने अपना स्वरूप भुला दिया। ❛मैं कौन हूँ❜, बस इतनी सी भूल ने हमारे अनादि कल के अनंत जन्म, ८४ के शरीर में घूम-घूम कर अपने आप को दुख से युक्त कर दिया।

आधिभौतिक (भौतिक)

आधिभौतिक ताप (दु:ख) दूसरे जीवों (मनुष्यों) के कारण मिलती है। जैसे हम तो अपना काम कर रहे थे, लेकिन वो व्यक्ति आया और हमारे काम पर पानी फेर दिया। हम रस्ते पर चल रहे थे हमारी कोई गलती नहीं और बाइक से टककर हो गयी। एक मच्छर ने कटा और हम बीमार हो गये। यह आधिभौतिक दुःख है।

आधिदैविक (दैविक)

जो दुःख देवता से या मौसम से या प्रकृति से हमें मिलता हैं। जैसे आज लू लग गया, आज ठण्ड लग गया। बाढ़ आयी और लाखों का नुकसान हो गया, आदि। यह आधिदैविक दुःख है।

एक बात ध्यान रहे, आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक दुःख हमारे ही किये गये कर्मो का फल हैं। इसमें देवता और भगवान् हमें जबरदस्ती दुःख नहीं देते। जैसे किसी को बच्चा नहीं हो रहा तो वो भगवान् को गली देता हैं, कि उसके ३ बच्चे थे तो चौथा हो गया और हमारा एक था वो भी मर गया! यही भगवान् का न्याय हैं। ये सब बात सोचना गलत हैं। जो हमारे कर्म है, भगवान् उसकी का फल देते हैं देवताओं के माध्यम से। शनि देव किसी पर क्रोध नहीं करते, वो तो हमारे कर्म का फल देते है भगवान् के आदेश अनुसार। और अगर मान लो की कोई देवता किसी का अनिष्ट करना चाहेगा तो भगवान् का सुदर्शन चक्र चल जायेगा उस देवता पर।

गोवर्धन लीला के माध्यम से भगवान् श्रीकृष्ण ने यह बताया। जब इंद्र क्रोध में आकर वृन्दावन को पानी से डूबकर लोगों को मरने चला। तो कृष्ण ने सभी वृन्दावन वासियों को बचाया।
अधिक जानने के लिए पढ़े ❛देवी-देवता और भगवान् में क्या अंतर है?❜

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