नवधा भक्ति क्या है? - रामचरितमानस

नवधा भक्ति रामायण

व्यक्ति अपने जीवन में कई प्रकार की भक्ति करता है। उनमें से, ईश्वर भक्ति के अंतर्गत नवधा भक्ति आती है। ‘नवधा’ का अर्थ है ‘नौ प्रकार से या नौ भेद’। अतः ‘नवधा भक्ति’ यानी ‘नौ प्रकार से भक्ति’। इस भक्ति का विधिवत पालन करने से भक्त भगवान को प्राप्त कर सकता है। जिन भक्तों ने भगवान को प्राप्त नहीं किया है और जिन्होंने प्राप्त किया है, वे दोनों नवधा भक्ति करते हैं। वैष्णव भक्तों ने इस भक्ति का बहुत प्रचार-प्रसार किया है।

नवधा भक्ति दो युगों में दो लोगों द्वारा कही गई है। सतयुग में, प्रह्लाद ने पिता हिरण्यकशिपु से कहा था। फिर त्रेतायुग में, श्री राम ने माँ शबरी से कहा था। ‘नवधा’ का अर्थ है ‘नौ प्रकार से या नौ भेद’। अतः ‘नवधा भक्ति’ यानी ‘नौ प्रकार से भक्ति’। श्री राम की ‘नौ प्रकार से भक्ति’ प्रह्लाद जी द्वारा कही गयी ‘नौ प्रकार से भक्ति’ से थोड़ा-सा भिन्न है। नवधा भक्ति रामायण (श्रीरामचरितमानस) के अरण्यकाण्ड में है। जब माता शबरी कहा कि मैं नीच, अधम, मंदबुद्धि हूँ, तो मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूँ? तब श्री राम ने उनसे कहा कि मैं तो केवल एक भक्ति ही का संबंध मानता हूँ। फिर श्री राम नवधा भक्ति कुछ इस तरह कहते हैं। तुलसीदास जी लिखते हैं -

नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥
- श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड

अर्थात् :- मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम।

गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥
- श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड

अर्थात् :- तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें।

गुरु के चरण कमलों की सेवा करना यह तीसरी ‘चरण सेवा’ भक्ति है। चौथी भक्ति गुण समूहों का गान यानी कीर्तन भक्ति है।

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥
- श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड

अर्थात् :- मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना।

सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥
- श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड

अर्थात् :- सातवीं भक्ति है जगत्‌ भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना।

नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥
- श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड

अर्थात् :- नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो-

सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥
- श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड

अर्थात् :- हे भामिनि! मुझे वही अत्यंत प्रिय है। फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है।

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