आनंद की ११ श्रेणी। माया जगत में सबसे बड़ा सुख क्या है?
संसार में जितने भी जीव है सब-के-सब आनंद चाहते है। वो चाहे पशु हो, पक्षी हो, जानवर हो या चाहे मनुष्य हो और मनुष्यों में भी चाहे वो आस्तिक हो या नास्तिक हो - सब आनंद चाहते है। वह आनंद को सामान्य दृष्टि से दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। १. भौतिक आनंद और २. आध्यात्मिक आनंद। वास्तव में, वेद शास्त्र अनुसार आध्यात्मिक आनंद को ही वास्तव में आनंद कहा गया है। क्योंकि आनंद नित्य होता है उसमें वृद्धि हो सकती है परन्तु उस आनंद से दुःख नहीं मिल सकता। जैसे रसगुल्ला मीठा होता है, वो खट्टा नहीं हो सकता। उसी प्रकर आनंद, आनंद होता है उससे दुःख नहीं मिल सकता।
लेकिन जो भौतिक आनंद है उससे पहले तो सुख मिलता है फिर दुःख मिलने लगता है। इसलिए भौतिक जगत में जो सुख मिलता है उसे आनंद नहीं कह सकते। भौतिक जगत में जो भी आनंद है वो पहले अधिक फिर काम फिर खत्म होने वाला है। यानि हर छण वो आनंद घटमान है। वहीं आध्यात्मिक आनंद स्थायी होता है (जैसे जो जीव ब्रह्मानन्द में लीन हो जाते है) और वर्धमान भी होता है। (जैसे जो जीव भगवान के प्रेमानन्द में मग्न रहते है)।
तो तैत्तिरीयोपनिषद् ब्रह्मानन्दवल्ली के आठवे अनुवाक (२.८) में 'आनन्द' की विस्तृत व्याख्या की गयी है। जो भौतिक सुख (माया जगत वाला) हैं जैसे मान-सम्मान, वैभव, धन आदि इन्हें सुख नहीं कहना चाहिए, अपितु इन्हें अपनी कामना कहना चाहिए। परन्तु, चुकी हम इन्हें सुख मानते हैं इसलिए इनके मिलने पर हमें सुख मिलता है। तो हमारे माने गये आनंद अथवा सुख के आधार पर, माया जगत के सुख की १० श्रेणी हैं। वो तैत्तिरीयोपनिषद् २.८ अनुसार कुछ इस प्रकार है -
पहली श्रेणी
युवा स्यात्साधुयुवाऽध्यायकः। आशिष्ठो दृढिष्ठो बलिष्ठः।
तस्येयं पृथिवी सर्वा वित्तस्य पूर्णा स्यात्। स एको मानुष आनन्दः।
- तैत्तिरीयोपनिषद् २.८
अर्थात् :- कोई नवयुवक (रूपवान) हो, जो साधु स्वभाव वाला हो, वेद का अध्ययन किया हो, अत्यन्त आशावान (कभी निराशा न होने वाला) हो, अत्यन्त दृढ हो, सभी प्रकार से अत्यन्त बलवान हो, फिर उसे यह धन से परिपूर्ण सब-की-सब पृथ्वी प्राप्त हो। वह एक मानुष आनंद है। (यानि मर्त्यलोक में सबसे बड़ा सुखी माना जायेगा।)
दूसरी श्रेणी
ते ये शतं मानुषा आनन्दाः। स एको मनुष्यगन्धर्वाणामानन्दः।
श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।
- तैत्तिरीयोपनिषद् २.८
अर्थात् :- वो जो मनुष्यलोक सम्बन्धी आनंद है, ऐसे एक सौ (१००) मानुष का आनंद बराबर एक मानव-गन्धर्व का आनंद होता है तथा वह अकामहत (जो कामना से पीड़ित नहीं है उस) श्रोत्रिय (वेदज्ञ) को भी प्राप्त है।
तीसरी श्रेणी
ते ये शतं मनुष्यगन्धर्वाणामानन्दाः। स एको देवगन्धर्वाणामानन्दः।
श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।
- तैत्तिरीयोपनिषद् २.८
अर्थात् :- वो जो मानव-गन्धर्व सम्बन्धी आनंद है, ऐसे एक सौ मानव-गन्धर्व का आनंद बराबर एक देवगन्धर्व का आनंद होता है तथा वह अकामहत (जो कामना से पीड़ित नहीं है उस) श्रोत्रिय (वेदज्ञ) को भी प्राप्त है।
चौथी श्रेणी
ते ये शतं देवगन्धर्वाणामानन्दाः। स एकः पितृणां चिरलोकलोकानामानन्दः।
श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।
- तैत्तिरीयोपनिषद् २.८
अर्थात् :- वो जो देवगन्धर्व सम्बन्धी आनंद है, ऐसे एक सौ देवगन्धर्व का आनंद बराबर एक चिरस्थायी पितृलोक को प्राप्त हुए पितरों का आनंद होता है तथा वह अकामहत (जो कामना से पीड़ित नहीं है उस) श्रोत्रिय (वेदज्ञ) को भी प्राप्त है।
पांचवी श्रेणी
ते ये शतं पितृणां चिरलोकलोकानामानन्दाः। स एकः आजानजानां देवानामानन्दः।
श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।
- तैत्तिरीयोपनिषद् २.८
अर्थात् :- वो जो चिरस्थायी पितृलोक को प्राप्त हुए पितृ सम्बन्धी आनंद है, ऐसे एक सौ पितृलोक को प्राप्त हुए पितरों का आनंद बराबर एक आजानक नामक देवता का आनंद होता है तथा वह अकामहत (जो कामना से पीड़ित नहीं है उस) श्रोत्रिय (वेदज्ञ) को भी प्राप्त है।
छटवी श्रेणी
ते ये शतम् आजानजानां देवानामानन्दाः। स एकः कर्मदेवानां देवानामानन्दः।
ये कर्मणा देवानपियन्ति। श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।
- तैत्तिरीयोपनिषद् २.८
अर्थात् :- वो जो आजानक नामक देव सम्बन्धी आनंद है, ऐसे एक सौ आजानक नामक देव का आनंद बराबर एक कर्मदेव नामक देव का आनंद होता है जो वेदोक्त (अग्निहोत्रादि) कर्मों से देवोंको प्राप्त हुए हैं तथा वह अकामहत (जो कामना से पीड़ित नहीं है उस) श्रोत्रिय (वेदज्ञ) को भी प्राप्त है।
सातवीं श्रेणी
ते ये शतं कर्मदेवानां देवानामानन्दाः। स एको देवानामानन्दः।
श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।
- तैत्तिरीयोपनिषद् २.८
अर्थात् :- वो जो कर्मदेव नामक देव सम्बन्धी आनंद है, ऐसे एक सौ कर्मदेव नामक देव का आनंद बराबर एक देवता का आनंद होता है तथा वह अकामहत (जो कामना से पीड़ित नहीं है उस) श्रोत्रिय (वेदज्ञ) को भी प्राप्त है।
आठवीं श्रेणी
ते ये शतं देवानामानन्दाः। स एक इन्द्रस्यानन्दः।
श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।
- तैत्तिरीयोपनिषद् २.८
अर्थात् :- वो जो देवता सम्बन्धी आनंद है, ऐसे एक सौ देवताओं का आनंद बराबर एक इन्द्र का आनंद होता है तथा वह अकामहत (जो कामना से पीड़ित नहीं है उस) श्रोत्रिय (वेदज्ञ) को भी प्राप्त है।
नौवीं श्रेणी
ते ये शतमिन्द्रस्यानन्दाः। स एको बृहस्पतेरानन्दः।
श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।
- तैत्तिरीयोपनिषद् २.८
अर्थात् :- वो जो इन्द्र देव सम्बन्धी आनंद है, ऐसे एक सौ इन्द्र देव का आनंद बराबर एक बृहस्पति का आनंद होता है तथा वह अकामहत (जो कामना से पीड़ित नहीं है उस) श्रोत्रिय (वेदज्ञ) को भी प्राप्त है।
दसवीं श्रेणी
ते ये शतं बृहस्पतेरानन्दाः। स एकः प्रजापतेरानन्दः।
श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।
- तैत्तिरीयोपनिषद् २.८
अर्थात् :- वो जो बृहस्पति सम्बन्धी आनंद है, ऐसे एक सौ बृहस्पति का आनंद बराबर एक प्रजापति का आनंद होता है तथा वह अकामहत (जो कामना से पीड़ित नहीं है उस) श्रोत्रिय (वेदज्ञ) को भी प्राप्त है।
ब्रह्म लोक का आनंद
ते ये शतं प्रजापतेरानन्दाः। स एको ब्रह्मण आनन्दः।
श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।
- तैत्तिरीयोपनिषद् २.८
अर्थात् :- वो जो प्रजापति सम्बन्धी आनंद है, ऐसे एक सौ प्रजापति का आनंद बराबर एक ब्रह्म लोक (ब्रह्मा जी) का आनंद होता है तथा वह अकामहत (जो कामना से पीड़ित नहीं है उस) श्रोत्रिय (वेदज्ञ) को भी प्राप्त है।
ध्यान दे - इन सभी में "श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।" आया है। जिसका अर्थ है कि जो अकामहत (जो कामना से पीड़ित नहीं है उस) श्रोत्रिय (वेदज्ञ) को भी यह सभी लोकों का आनंद स्वतः प्राप्त है। अर्थात् अकामहत लोग जिनको इन सभी श्रेणी के भोगानन्द की कामना नहीं है, उन वेद के रहस्यों को समझने वाले निष्काम विरक्त के लिए वह सब आनंद स्वतः ही प्राप्त है।
अस्तु, तो ब्रह्म लोक को छोड़ कर सब लोकों में काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष है। अर्थात् इन १० लोक में माया के सभी दोष है। इनमें जितने भी जीवात्मा मनुष्य शरीर छोड़कर जाते है उनको उनके पुण्य अनुसार कुछ छण के लिए रहना पड़ता है। फिर?
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
- गीता ९.२१
अर्थात् :- वे उस विशाल स्वर्गलोक के भोगों को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक में आ जाते हैं।
इष्टापूर्तं मन्यमाना वरिष्ठं नान्यच्छ्रेयो वेदयन्ते प्रमूढाः।
नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेऽनुभूत्वेमं लोकं हीनतरं वा विशन्ति ॥
- मुण्डकोपनिषद् १.२.१०
{’इष्ट’ कर्म - अग्निहोत्रादि पञ्चमहायज्ञ और अन्य श्रुति-विहित कर्मों को कहा जाता है मतलब धर्म। अस्पताल बनवाना, गरीबों को भोजन कराना आदि स्मृति-विहित कर्म ’पूर्त’ कर्म कहाते हैं।}
अर्थात् :- तो इष्ट और पूर्त कर्मों को ही सर्वोत्तम मानने वाले महामूढ (घोर मूर्ख) किसी अन्य वस्तु को श्रेयस्कर (श्रेष्ठ) नहीं समझते। वे स्वर्गलोक के उच्य स्थान में अपने कर्मफलों से वहाँ के भोगों का अनुभव करके इस मृत्युलोक में अथवा इससे भी अत्यंत हीन (निकृष्ट) योनियों (शरीरों) में प्रवेश करते है।
अर्थात् वो जीवात्मा पुण्य ख़त्म होते ही कुत्ते बिल्ली आदि हीन शरीर में डाल दिए जाते है।
तो जैसे एक गरीब का घर, एक सामान्य व्यक्ति का घर और एक अमीर व्यक्ति का घर है, जिस प्रकार इनमें अंतर है तथा इनमें रहने वाले लोगों के आनंद में अंतर है। कुछ इसी प्रकार यह १० लोक है। परन्तु, जिस प्रकार गरीब, मध्य और अमीर व्यक्ति माया के आधीन (माया के दोष - काम क्रोध लोभ मोह से ग्रसित) है उसी प्रकार यह १० लोक है और इनमें रहने वाले सभी लोग माया के आधीन (माया के दोष - काम क्रोध लोभ से ग्रसित) है।