धर्म का अर्थ होता है "धारण करना" या "धारण करने योग" वेदों में दो प्रकार के धर्मों का वर्णन हैं , १.परधर्म २.अपरधर्म। अपरधर्म अर्थात "वर्णाश्रम धर्म" वर्णा माने, "ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र", और आश्रम अर्थात, "ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास यह चार आश्रम हैं।" जैसे ब्राह्मण क्या करे क्या ना करे, उसके बारे में वेदों में बहुत कुछ विस्तार से लिखा है, जैसे ब्राह्मण ब्रह्मचर्य में क्या करे क्या ना करे, फिर गृहस्थ में क्या करे क्या न करे, वानप्रस्थ और संन्यास में क्या करे क्या न करे, वैसे ही क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के लिए भी लिखा हैं। वेदों में वर्णाश्रम धर्म का बड़ालंबा -चौड़ा उलेख है, अगर इस जन्म में कोई पढ़े और पालन करे, तो वो असंभव बात है।
परधर्म का अर्थ संक्षेप में होता है भगवान (श्री कृष्ण, राम, संकर आदि) की भक्ति। लेकिन परधर्म में कामना नहीं होती, यानि "हेतु के बिना" अर्थात अहेतुकी जो भक्ति होती है, वो परधर्म है। तोपरधर्म मतलब भगवान(श्री कृष्ण, राम, संकर आदि) उनका नाम, उनका रूप, उनकी लीला, उनके गुण,उनके धाम,…