दान क्या है? दान करना क्यों आवश्यक है?
दान क्या है? क्या समाज बिना दान के भी चल सकता है? क्या दान जैसी सामाजिक व्यवस्था हमारे समाज में होनी चाहिए? यदि हाँ तो क्यों और नहीं तो क्यों? इसी विषय पर हम इस लेख में विस्तार से चर्चा करेंगे। ध्यान दे, दान शब्द सुनते ही धनदान स्मरण होता है, लेकिन दान तो केवल धन तक सिमित नहीं है। अभयदान, अन्नदान, विद्यादान, श्रमदान, कन्यादान इत्यादि दान ही हैं। ये दान अलग-अलग सन्दर्भ में है। अतः हम यहाँ केवल दान पर चर्चा करेंगे। क्योंकि यदि केवल दान समझ लिया तो अन्य दान भी समझ आ जाएंगे। और साथ ही इस समाज में दान जैसी सामाजिक व्यवस्था क्यों होनी चाहिए, इस पर भी इस लेख में विस्तार से चर्चा करेंगे।
दान क्या है?
दान का साधारण अर्थ है - देने की क्रिया या देना। अब क्या देना चाहिए, स्पष्ट है! जो कुछ भी आपका या आपके आधीन हो। तन, मन, धन, अन्न, गौ, विद्या, शब्द - ये सब आपके आधीन हैं अथवा ये सब आपका हैं। अतः इन्ही को जब आप देते है, तो अमुक-अमुक दान कहा जाता हैं।
लेकिन ध्यान दे, दान अर्थात् केवल देना होता है। यदि लेना-देना हुआ तो व्यापार हो जायेगा, फिर वह दान नहीं होगा। अपने कुछ दिया और उसके बदले में कुछ पाने की भी इच्छा हुई, तो वह व्यापार हो जायेगा। लेना-देना या व्यापार को दूसरे शब्दों में स्वार्थ भी कहते है - “जैसे मैंने तुम्हारा काम किया है वैसे ही तुम मेरा काम कर दो। मैंने तुम्हें पैसे दिए है इसलिए ये काम करना होगा, नहीं करोगें! तो तुम अभी निकलो यहाँ से।” तो व्यापार भी स्वार्थ ही है, जिसमें दोनों अपने-अपने मतलब की बात करते हैं। अतः केवल देने को दान कहते है, लेना-देना अच्छे शब्दों में व्यापार और बुरे शब्दों में स्वार्थ है।
दान व्यवस्था
दान रूपी व्यवस्था पर हमारे वेदों में कहा गया, तैत्तिरीयोपनिषद् शिक्षावल्ली, एकादशोऽनुवाकः १ 'श्रद्धया देयम्। अश्रद्धयाऽदेयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भिया देयम्। संविदा देयम्।' अर्थात् “श्रद्धा से, लज्जा से, भय से भी कोई दान करो तो फल मिलेगा।" महाभारत शांतिपर्व २६.२८ में कहा गया 'लब्धस्य त्यागमित्यार्हुन भोगं न च संचयम्।' अर्थात् “जो धन प्राप्त हो उसका भोग या संग्रह करने से दान करना अच्छा है।” फिर महाभारत अनुशासनपर्व ९३.१२ में कहा गया 'दानं ददत् पवित्रीस्यात्।' अर्थात् “दान देते रहने से अपवित्र पवित्र हो जाता है।” अतः हमारे भारतीय ग्रंथों में दान का इतना महत्त्व बताया गया कि दान देते रहों इससे अपवित्र भी पवित्र हो जाता है।
अस्तु, तो दान रूपी सामाजिक व्यवस्था क्यों होनी चाहिए? इसे समझनें से पहने यह समझ लेते है कि यदि दान व्यवस्था नहीं हो तो क्या हो जायेगा? क्या समाज बिना दान के भी चल सकता है? इसका उत्तर है नहीं। क्यों? इसलिए कोई यदि कोई दान नहीं करेगा, तो समाज केवल व्यापर अथवा स्वार्थ पर ही टिका रहेगा। फिर तो कोई बिना काम के (स्वार्थ के, मतलब के) बात तक भी नहीं करना पसंद करेगा। समाज में दरिद्रता, कुपोषण, अशिक्षा आदि अपनी चरम सिमा पर होंगे। क्योंकि कोई किसी को धन का दान नहीं देगा तो समाज में दरिद्रता बढ़ेगी, अन्न नहीं देगा तो समाज में कुपोषण बढ़ेगा, शिक्षा नहीं देगा तो समाज में अशिक्षा बढ़ेगी, यहाँ तक की मीठे शब्द का भी दान नहीं करेगा तो द्वेष से भरा समाज हो जायेगा।
यदि शिक्षा का दान न किया जाये तो क्या होगा?
तब तो फिर बड़े-बड़े लोग ही केवल अपने बच्चे को पढ़ा सकेंगे और शिक्षा देने वाला भी पहले पैसे लेगा और फिर ये भी कहेगा कि तुम्हारा लड़का भविष्व में जितना कमायेगा उसमें मेरा भी कुछ प्रतिशत भाग होना चाहिए, क्योंकि यदि में नहीं पढ़ता तो ये इतना कैसे कमा पता। आज जो भारत में अथवा विश्व में शिक्षा का इतना बड़ा व्यवसाय कर दिया गया है कि अमुक वाहन चालक का, अमुक मजदुर का बच्चा आईएएस हो गया है यह अख़बारों में सुर्खिया बनती है। यह कितनी हास्यास्पद बात है। जबकि एक समाज में ये सामान्य बात होनी चाहिए की सब को पढ़ने का अधिकार हो।
गुरुकुल में अमुक वर्ग के लोग नहीं पढ़ सकते थे, यह आरोप पूरी तरह से सत्य नहीं है। उदाहरण निषाद राज और श्री राम एक ही गुरुकुल में पढ़े थे। अस्तु, पूर्व कल में गुरुकुल हुआ करते है, और उस गुरुकुल को चलने का उत्तरदायित्व समाज को दिया जाता था। क्योंकि एक भी बच्चा अशिक्षित रहा, तो अशिक्षा से समाज में अपराध बढ़ता है। अज्ञानता से ही तो गलती होती है, वही गलती बहोत बड़ी हो तो अपराध कहा जायेगा। यहाँ ज्ञान का मतब विज्ञानं आदि का ज्ञान नहीं है जो आज कल पढ़ाया जाता है। आईएएस से लेकर वैज्ञानिक तक अपराध करते है बस पकडे नहीं जाते।
अस्तु, पूर्व काल में समाज का उत्तरदायित्व था कि शिक्षा निशुल्क होनी चाहिए और जो जितना समर्थ हो एवं योग्य हो उतना ही उसको शिक्षा देनी चाहिए। अयोग के हाथ में बड़ी शिक्षा लग जाये तो वह समाज का ब्राह्मण रावण की तरह विनाश कर सकता है। आज के परिपेक्ष में, बड़े-बड़े घोटाले करने वाले भी बड़े बुद्धि वाले होते है, बैंकों में सामान्य ज्ञान वाला घोटाला नहीं कर सकता।
यदि धन का दान न किया जाये तो क्या होगा?
अस्तु, हमनें केवल विद्या दान पर ही संछेप में चर्चा की और यह पता चला कि यदि विद्या का दान नहीं किया जाये तो समाज का पतन होना शुरू हो जाता है। ऐसे ही आप अन्य दान को भी समझ लीजियेगा। लेकिन फिर भी लोग धन के दान पर कुछ जानना चाहेंगे कि यदि धन का दान नहीं किया जाये तो क्या होगा? उत्तर है समाज का सत्यानाश। देश भक्त लोग एक बात कहते है कि “देश को जोड़ने के लिए कोई पैसा नहीं देगा, देश तोड़ने के लिए कई देश करोड़ों रूपये दें देंगे, क्योंकि उसमें उन देशों का लाभ है।"
ऐसे ही भक्त लोग कहा करते है कि “भगवान के निमित्त, संतों के निमित्त अथवा धर्म के निमित दान करो, क्योंकि समाज में इनके विपरीत बहुत धन है। जैसे फुहार गाने, मूवी आदि का विस्तार बहुत सरल है। क्योंकि मनुष्य का मन माया से बना है इसलिए ये माया की और स्वाभाविक आकर्षित होता है। अतः जिस ओर अधिकांश व्यक्तिओं के मन का लगाव हो एवं वही धन का निवेश करे, तो अधिक लाभ होगा। लेकिन इसी के विपरीत मन को लगाना हो तो संभव नहीं है। मूवी, आलीशान होटलें में भोजन करने के लिए हजारों रूपये निकल जाते है और भगवान, संत, मंदिर एवं गरीब के लिए छुट्टे ढूढनें लग जाते है।"
अस्तु, तो समाज में कुछ अच्छा होता रहे, समाज अच्छे से चलता रहे, इसके लिए धन दान देना आवश्क्य होता है। समाज में बुराई फ़ैलाने के लिए अनेकों लोग धन लगा देंगे, क्योंकि उसमें उनका स्वार्थ होता है। अच्छा करने के लिए कितने लोग सामने आते है। आप स्वयं ही सोचिये। तो दान रूपी व्यवस्था समाज के लिए अनिवार्य है, समाज को अच्छा बनाये रखने के लिए। जिससे समाज में बुराई अधिक नहीं फैले। श्री राम के पिता राजा दशरत को बड़े वर्षों के बाद पुत्र लाभ मिला, अविवाहित-नवजवन पुत्र को वो विश्वामित्र के संग जंगल में भेज दिए। यदि उन्हों ऐसा नहीं किया होता तो फिर असुरों का साम्राज्य और अधिक बढ़ता। और सबसे बड़ी बात आज जो कुछ हम हमारे ग्रंथों के बारे में पढ़ रहे है, वह जगतगुरु शंकराचार्य के वजह से है। जब शंकराचार्य आठ वर्ष के थे, तब उनकी माँ ने संन्यास लेने की अनुमति दी थी। यदि वह माँ धर्म के लिए बेटे का दान नहीं देती, तो आज भगवद्गीता, उपनिषद, वेदांतसूत्र आदि विलुप्त होते। अतः दान व्यवस्था समाज में अति आवश्यक और अनिवार्य है।