श्री कृष्ण का जन्म कैसे हुआ? - भागवत पुराण अनुसार कृष्ण जन्म कथा

भागवत पुराण अनुसार कृष्ण जन्म कथा

भगवान कृष्ण ने कैसे अवतार लिया अथवा कैसे जन्म लिया? कुछ लोग ऐसा सोचते है कि भगवान श्री कृष्ण हमारे जैसे माँ के पेट से पैदा हुए और हमारे जैसे मानव (मनुष्य) थे। परन्तु वास्तविकता यह नहीं है।

जन्म शब्द बनता है जनि धातु से, और जनि का अर्थ है प्रादुर्भाव। प्रादुर्भाव माने प्रकट होना या दोबारा नये सिरे से अस्तित्व में आना। जैसे हम आत्मा माँ के पेट में प्रकट होते है उसी को हम जन्म कहते है। आत्मा किसी दिन नहीं बनती है। आत्मा नित्य है। अस्तु! हम (आत्मा) माँ के पेट में प्रकट होते है। तो प्रकट होने को जन्म लेना कहते है।

भगवान के द्वारा पृथ्वी को आश्वासन देना।

भूमिर्दृप्तनृपव्याज दैत्यानीकशतायुतैः।
आक्रान्ता भूरिभारेण ब्रह्माणं शरणं ययौ॥१७॥
गौर्भूत्वाश्रुमुखी खिन्ना क्रन्दन्ती करुणं विभोः।
- भागवत पुराण १०.१.१७-१८

भावार्थ:- (श्री शुकदेव जी कहते हैं -) परीक्षित! उस समय लाखों दैत्यों के दल ने घमंडी राजाओं का रूप धारण कर अपने भारी भार से पृथ्वी को आक्रान्त कर रखा था। उससे त्राण पाने के लिए वह ब्रह्मा जी की शरण में गयी। पृथ्वी ने उस समय गौ का रूप धारण कर रखा था। उसके नेत्रों से आँसू बह-बहकर मुँह पर आ रहे थे।

ब्रह्मा तदुपधार्याथ सह देवैस्तया सह।
जगाम सत्रिनयनस्तीरं क्षीरपयोनिधेः॥
- भागवत पुराण १०.१.१९

भावार्थ:- ब्रह्मा जी ने बड़ी सहानुभूति के साथ उसकी दुःख-गाथा सुनी। उसके बाद वे भगवान शंकर, स्वर्ग के अन्य प्रमुख देवता तथा गौ के रूप में आयी हुई पृथ्वी को अपने साथ लेकर क्षीर सागर के तट पर गये।

पुरुषं पुरुषसूक्तेन उपतस्थे समाहितः॥२०॥
(वंशस्थ) गिरं समाधौ गगने समीरितां निशम्य वेधास्त्रिदशानुवाच ह।
गां पौरुषीं मे शृणुतामराः पुनर्विधीयतामाशु तथैव मा चिरम्॥२१॥
पुरैव पुंसावधृतो धराज्वरो भवद्भिरंशैर्यदुषूपजन्यताम्।
स यावदुर्व्या भरमीश्वरेश्वरः स्वकालशक्त्या क्षपयंश्चरेद्भुवि॥२२॥
- भागवत पुराण १०.१.२०-२२

भावार्थ:- क्षीरसागर के तट पर पहुँच कर ब्रह्मा आदि देवताओं ने ‘पुरुषसूक्त’ के द्वारा परम पुरुष सर्वान्तर्यामी प्रभु की स्तुति की। स्तुति करते-करते ब्रह्मा जी समाधिस्थ हो गए। उन्होंने समाधि-अवस्था में आकाशवाणी सुनी। इसके बाद जगत के निर्माणकर्ता ब्रह्मा जी ने देवताओं से कहा - ‘देवताओं! मैंने भगवान की वाणी सुनी है। तुम लोग भी उसे मेरे द्वारा अभी सुन लो और फिर वैसा ही करो। उसके पालन में विलम्ब नहीं होना चाहिए। भगवान को पृथ्वी के कष्ट का पहले से ही पता है। वे ईश्वरों के भी ईश्वर हैं। अतः अपनी कालशक्ति के द्वारा पृथ्वी का भार हरण करते हुए वे जब तक पृथ्वी पर लीला करें, तब तक तुम लोग भी अपने-अपने अंशों के साथ यदुकुल में जन्म लेकर उनकी लीला में सहयोग दो।

फिर गोपिया तथा उनकी प्रियतमा (श्री राधा) जी ने जन्म ग्रहण किया। फिर भगवान ने अपनी योगमाया शक्ति को बुलाया और भगवान शेष अर्थात् बलराम जी का जन्म हुआ। यह ध्यान रहे कि भगवान के सभी कार्य योगमाया से ही होते है। योगमाया की वजह से हमको श्री कृष्ण माया के आधीन कोई बालक नजर आता है परन्तु वास्तविकता कुछ और ही है। विस्तार से पढ़े - माया और योगमाया क्या है, उनमे अंतर?

भगवान श्री कृष्ण का गर्भ-प्रवेश

भगवानपि विश्वात्मा भक्तानामभयङ्करः।
आविवेशांशभागेन मन आनकदुन्दुभेः॥१६॥
स बिभ्रत्पौरुषं धाम भ्राजमानो यथा रविः।
दुरासदोऽतिदुर्धर्षो भूतानां सम्बभूव ह॥१७॥
ततो जगन्मङ्गलमच्युतांशं समाहितं शूरसुतेन देवी।
दधार सर्वात्मकमात्मभूतं काष्ठा यथानन्दकरं मनस्तः॥१८॥
- भागवत पुराण १०.२.१६-१८

भावार्थ:- भगवान भक्तों को अभय करने वाले हैं। वे सर्वत्र सब रूप में हैं, उन्हें कहीं आना-जाना नहीं है। इसलिए वे वसुदेव जी के मन में अपनी समस्त कलाओं के साथ प्रकट हो गये। उसमें विद्यमान रहने पर भी अपने को अव्यक्त से व्यक्त कर दिया। भगवान की ज्योति को धारण करने के कारण वसुदेव सूर्य के सामान तेजस्वी हो गये, उन्हें देखकर लोगों की आँखें चौंधियां जातीं। कोई भी अपने बल, वाणी प्रभाव से उन्हें दबा नहीं सकता था। भगवान के उस ज्योतिर्मय अंश को, जो जगत का परम मंगल करने वाला है, वसुदेव जी के द्वारा आधान किये जाने पर देवी देवकी ने ग्रहण किया। जैसे पूर्व दिशा चन्द्रदेव को धारण करती है, वैसे ही शुद्ध सत्त्व से संपन्न देवी देवकी ने विशुद्ध मन से सर्वात्मा एवं आत्मस्वरूप भगवान को धारण किया।

जब भगवान वासुदेव जी के मन में गए उसके बाद देवकी के मन में गए। फिर वहा से भगवान ने वही अनुभव माँ देवकी को होने लगी जैसे किसी गर्भ धारण स्त्री को होने लगी। ऐसा होते ही भगवान शंकर और ब्रह्मा जी कंश के कैदखाने में आये। उनके साथ अपने अपने अनुचरों के सहित समस्त देवता और नारद ऋषि भी थे। सभी श्री हरि की स्तुति की। जिसे आज लोग देवकी गर्भ स्तुति के रूप में जानते है।

यह ध्यान रहे कि भगवान का शरीर हम मनुष्य शरीर जैसे नहीं था और माया के तीन गुण के आधीन नहीं था। इस बारे विस्तार के पढ़ें - श्री कृष्ण का शरीर दिव्य था या माया के आधीन था? - भागवत अनुसार

भगवान श्री कृष्ण का प्राकट्य (जन्म)

श्रीशुक उवाच
अथ सर्वगुणोपेतः कालः परमशोभनः।
यर्ह्येवाजनजन्मर्क्षं शान्तर्क्षग्रहतारकम्॥१॥
दिशः प्रसेदुर्गगनं निर्मलोडुगणोदयम्।
मही मङ्गलभूयिष्ठ पुरग्रामव्रजाकरा॥२॥
नद्यः प्रसन्नसलिला ह्रदा जलरुहश्रियः।
द्विजालिकुलसन्नाद स्तवका वनराजयः॥३॥
- भागवत पुराण १०.३.१-३

भावार्थ:- श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! अब समस्त शुभ गुणों से युक्त बहुत सुहावना समय आया। रोहिणी नक्षत्र था। आकाश के सभी नक्षत्र, ग्रह और तारे शान्त-सौम्य हो रहे थे। दिशाऐं स्वच्छ, प्रसन्न थीं। निर्मल आकाश में तारे जगमगा रहे थे। पृथ्वी के बड़े-बड़े नगर, छोटे-छोटे गाँव, अहीरों की बस्तियाँ और हीरे आदि की खानें मंगलमय हो रहीं थीं। नदियों का जल निर्मल हो गया था। रात्रि के समय भी सरोवरों में कमल खिल रहे थे। वन में वृक्षों की पत्तियाँ रंग-बिरंगे पुष्पों के गुच्छों से लद गयीं थीं। कहीं पक्षी चहक रहे थे, तो कहीं भौंरे गुनगुना रहे थे।

मनांस्यासन्प्रसन्नानि साधूनामसुरद्रुहाम्।
जायमानेऽजने तस्मिन्नेदुर्दुन्दुभयः समम्॥५॥
जगुः किन्नरगन्धर्वास्तुष्टुवुः सिद्धचारणाः।
विद्याधर्यश्च ननृतुरप्सरोभिः समं मुदा॥६॥
मुमुचुर्मुनयो देवाः सुमनांसि मुदान्विताः।
मन्दं मन्दं जलधरा जगर्जुरनुसागरम्॥७॥
- भागवत पुराण १०.३.५-७

भावार्थ:- संत पुरुष पहले से ही चाहते थे कि असुरों की बढ़ती न होने पाये। अब उनका मन सहसा प्रसन्नता से भर गया। जिस समय भगवान के आविर्भाव (प्रकट या जन्म होने) का अवसर आया, स्वर्ग में देवताओं की दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं। किन्नर और गन्धर्व मधुर स्वर में गाने लगे तथा सिद्ध और चारण भगवान के मंगलमय गुणों की स्तुति करने लगे। विद्याधरियाँ अप्सराओं के साथ नाचने लगीं। बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि आनन्द से भरकर पुष्पों को वर्षा करने लगे, जल से भरे हुए बादल समुद्र के पास जाकर धीरे-धीरे गर्जना करने लगे।

निशीथे तम उद्‍भूते जायमाने जनार्दने।
देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः।
आविरासीद् यथा प्राच्यां दिशि इन्दुरिव पुष्कलः॥८॥
तमद्‍भुतं बालकमम्बुजेक्षणं चतुर्भुजं शंखगदार्युदायुधम्।
श्रीवत्सलक्ष्मं गलशोभि कौस्तुभं पीताम्बरं सान्द्रपयोदसौभगम्॥९॥
महार्हवैदूर्यकिरीटकुण्डल त्विषा परिष्वक्त सहस्रकुन्तलम्।
उद्दाम काञ्च्यङ्‍गद कङ्कणादिभिः विरोचमानं वसुदेव ऐक्षत॥१०॥
स विस्मयोत्फुल्ल विलोचनो हरिं सुतं विलोक्यानकदुन्दुभिस्तदा।
कृष्णावतारोत्सव संभ्रमोऽस्पृशन् मुदा द्विजेभ्योऽयुतमाप्लुतो गवाम्॥११॥
अथैनमस्तौदवधार्य पूरुषं परं नताङ्‌गः कृतधीः कृताञ्जलिः।
स्वरोचिषा भारत सूतिकागृहं विरोचयन्तं गतभीः प्रभाववित्॥१२॥
- भागवत पुराण १०.३.८-१२

भावार्थ:- जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ाने वाले जनार्दन के अवतार का समय था निशीथ। चारों ओर अन्धकार का साम्राज्य था। उसी समय सबके हृदय में विराजमान भगवान विष्णु देवरूपिणी देवकी के गर्भ से प्रकट हुए, जैसे पूर्व दिशा में सोलहों कलाओं से पूर्ण चन्द्रमा का उदय हो गया हो। वसुदेव जी ने देखा, उनके सामने एक अद्भुत बालक है। उसके नेत्र कमल के समान कोमल और विशाल हैं। चार सुन्दर हाथों में शंख, गदा, चक्र और कमल लिये हुए है। वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न - अत्यन्त सुन्दर सुवर्णमयी रेखा है। गले में कौस्तुभमणि झिलमिला रही है। वर्षाकालीन मेघ के समान परम सुन्दर श्यामल शरीर पर मनोहर पीताम्बर फहरा रहा है। बहुमूल्य वैदूर्यमणि के किरीट और कुण्डल की कान्ति से सुन्दर-सुन्दर घुँघराले बाल सूर्य की किरणों के सामान चमक रहे हैं। कमर में चमचमाती करधनी की लड़ियाँ लटक रहीं हैं। बाँहों में बाजूबंद और कलाईयों में कंकण शोभायमान हो रहे हैं। इन सब आभूषणों से सुशोभित बालक के अंग-अंग से अनोखी छटा छिटक रही है। जब वसुदेव जी ने देखा कि मेरे पुत्र के रूप में स्वयं भगवान ही आये हैं, तब पहले तो उन्हें असीम आश्चर्य हुआ; फिर आनन्द से उनकी आँखें खिल उठी। उनका रोम-रोम परमानन्द में मग्न हो गया। श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाने की उतावली में उन्होंने उसी समय ब्राह्मणों के लिए दस हज़ार गायों का संकल्प कर दिया। परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण अपनी अंगकांति से सूतिका गृह को जगमग कर रहे थे। जब वसुदेव जी को यह निश्चय हो गया कि ये तो परम पुरुष परमात्मा ही हैं, तब भगवान का प्रभाव जान लेने से उनका सारा भय जाता रहा। अपनी बुद्धि स्थिर करके उन्होंने भगवान के चरणों में अपना सर झुका दिया और फिर हाथ जोड़कर वे उनकी स्तुति करने लगे।

श्री कृष्ण का जन्म

सर्वप्रथम वासुदेव जी ने भगवान विष्णु की स्तुति की फिर माता देवकी ने भगवान विष्णु की स्तुति।

स त्वं घोरात् उग्रसेनात्मजात् नः त्राहि त्रस्तान् भृत्यवित्रासहासि।
रूपं चेदं पौरुषं ध्यानधिष्ण्यं मा प्रत्यक्षं मांसदृशां कृषीष्ठाः॥२८॥
- भागवत पुराण १०.३.२८

भावार्थ:- (माता देवकी ने कहा -) प्रभो! आप हैं भक्त्तभयहारी। और हम लोग इस दुष्ट कंस से बहुत ही भयभीत हैं। अतः आप हमारी रक्षा कीजिये। आपका यह चतुर्भुज दिव्यरूप ध्यान की वस्तु है। इसे केवल मांस-मज्जामय शरीर पर ही दृष्टि रखने वाले देहाभिमानी पुरुषों के सामने प्रकट मत कीजिये।

उपसंहर विश्वात्मन् अदो रूपं अलौकिकम्।
शंखचक्रगदापद्म श्रिया जुष्टं चतुर्भुजम्॥३०॥
विश्वं यदेतत् स्वतनौ निशान्ते यथावकाशं पुरुषः परो भवान्।
बिभर्ति सोऽयं मम गर्भगो अभूद् अहो नृलोकस्य विडंबनं हि तत्॥३१॥
- भागवत पुराण १०.३.३०-३१

भावार्थ:- (माता देवकी ने कहा -) विश्वात्मन! आपका यह रूप अलौकिक है। आप शंख, चक्र, गदा और कमल की शोभा से युक्त अपना यह चतुर्भुज रूप छिपा लीजिये। प्रलय के समय आप इस सम्पूर्ण विश्व को अपने शरीर में वैसे ही स्वाभाविक रूप से धारण करते हैं, जैसे कोई मनुष्य अपने शरीर में रहने वाले छिद्ररूप आकाश को। वही परम पुरुष परमात्मा आप मेरे गर्भवासी हुए, यह आपकी अद्भुत मनुष्य-लीला नहीं तो और क्या?

माता देवकी के कहने का तात्पर्य यह है कि महाप्रलय में अनंतकोटि ब्रह्मांड भगवान के महोदर (पेट) में रहता है। वो भगवान मेरे गर्भ में नहीं थे, यह मैं जान गयी।

फिर भगवान ने वासुदेव-देवकी के पूर्व २ जन्म का बोध कराया। फिर कहा -

एतद् वां दर्शितं रूपं प्राग्जन्म स्मरणाय मे।
नान्यथा मद्‍भवं ज्ञानं मर्त्यलिङ्गेन जायते॥४४॥
युवां मां पुत्रभावेन ब्रह्मभावेन चासकृत्।
चिन्तयन्तौ कृतस्नेहौ यास्येथे मद्‍गतिं पराम्॥४५॥
- भागवत पुराण १०.३.४४-४५

भावार्थ:- (भगवान ने कहा -) मैंने तुम्हें अपना यह रूप इसलिये दिखला दिया है कि तुम्हें मेरे पूर्व अवतारों का स्मरण हो जाय। यदि मैं ऐसा नहीं करता, तो केवल मनुष्य-शरीर से मेरे अवतार की पहचान नहीं हो पाती। तुम दोनों मेरे प्रति पुत्रभाव तथा निरन्तर ब्रह्मभाव रखना। इस प्रकार वात्सल्य-स्नेह और चिन्तन के द्वारा तुम्हें मेरे परम पद की प्राप्ति होगी।

इत्युक्त्वासीत् हरिः तूष्णीं भगवान आत्ममायया।
पित्रोः संपश्यतोः सद्यो बभूव प्राकृतः शिशुः॥४६॥
ततश्च शौरिः भगवत्प्रचोदितः सुतं समादाय स सूतिकागृहात्
यदा बहिर्गन्तुमियेष तर्ह्यजा या योगमायाजनि नन्दजायया॥४७॥
- भागवत पुराण १०.३.४६-४७

भावार्थ:- श्री शुकदेव जी कहते हैं - भगवान इतना कहकर चुप हो गये। अब उन्होंने अपनी योगमाया से पिता-माता के देखते-देखते तुरंत एक साधारण शिशु का रूप धारण कर लिया। तब वसुदेव जी ने भगवान की प्रेरणा से अपने पुत्र को लेकर सूतिका गृह से बाहर निकलने की इच्छा की। उसी समय नन्दपत्नी यशोदा के गर्भ से उस योगमाया का जन्म हुआ, जो भगवान की शक्ति होने के कारण उनके समान ही जन्म-रहित है।

यह ध्यान रहे जैसे भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुआ वैसे ही भगवान की शक्ति योगमाया का जन्म हुआ। क्योंकि सुखदेव जी स्पष्ट रूप से कहते है कि नन्दपत्नी यशोदा के गर्भ से उस योगमाया का जन्म हुआ, जो भगवान की शक्ति होने के कारण उनके समान ही जन्म-रहित है। भगवान के सामान कोई वस्तु नहीं है। इसलिए अगर कोई वस्तु 'भगवान के सामान' ऐसा लिखा है तो उसे भगवान ही मानना चाहिए।

फिर द्वारपाल सो गये, वासुदेव जी श्री कृष्ण को यमुना पार कर, यशोदा की पुत्री (योगमाया) से बदलकर वापस कंश के कैदखाने में आगये।

जैसे श्री कृष्ण का जन्म हुआ वैसे ही श्री राम का भी जन्म हुआ है। परन्तु फिर भी लोग राम और कृष्ण में अंतर मानते है तथा भेद बुद्धि लगाया करते है।

जय श्री कृष्णा।

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