क्यों एक ऋषि ब्राह्मण होकर भी संध्या नहीं कर रहे - कथा मैत्रेयी उपनिषद की।
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मैत्रेयी उपनिषद में एक कथा है। किसी ऋषि से किसी ने पूछा कि तुम ब्राह्मण (ब्रह्मऋषि) हो आज कल तुम संध्या नहीं करते, हर समय भगवान का ध्यान करते रहते है। ब्राह्मण अगर ३ बार भी संध्या न करे तो वो ब्राह्मण नहीं कहलायेगा। तब उस ब्रह्मऋषि ने कहा मैत्रेयी उपनिषद २.१३
मृता मोहमयी माता जातो बोधमयः सुतः।
सूतकद्वयसम्प्राप्तौ कथं सन्ध्यामुपास्महे॥
मृता मोहमयी माता जातो बोधमयः सुतः। भावार्थ:- "मेरी मोहमयी माँ मर गयी है और बोधमय पुत्र पैदा हुआ है।" तो किसी के मरने पर संध्या नहीं की जाती क्योंकि सूतक होता है और कोई बच्चा पैदा होता है तब भी सूतक होता है। तो सूतक में धर्म-कर्म का पालन नहीं होता। सूतकद्वयसम्प्राप्तौ कथं सन्ध्यामुपास्महे॥ भावार्थ :- "दो सूतक हो गए है इसलिए संध्या हम कैसे करे" इसलिए फिर मैत्रेयी उपनिषद १.१३ कहती है कि
वर्णाश्रमाचारयुता विमूढाः कर्मानुसारेण फलं लभन्ते।
वर्णादिधर्मं हि परित्यजन्तः स्वानन्दतृप्ताः पुरुषा भवन्ति॥
भावार्थ :- "वो मुर्ख लोग वर्णाश्रम धर्म के कर्म का पालन कर के, उसी कर्म के फल को भोगते रहते है।" कर्म का फल भोगने के लिए, ८४ लाख प्रकार के शरीरो में, कर्म के अनुसार शरीर दिया जाता है, कर्म का फल भोगने के लिए।
इस कथा का अभिप्राय यह है कि जिसको यह ज्ञान क्रियात्मक रूप से हो जाये की हमे हरि-हरिजन की भक्ति करनी है, वो ही मेरे है। तब वो व्यक्ति कर्म धर्म का पालन नहीं करता। उसके लिए बस एक ही धर्म और कर्म बचता है, हरि-हरिजन की भक्ति (सेवा)
कर्म धर्म का पालन बेकार है इसके उदाहरण राजा नृग को कर्म-धर्म का फलस्वरूप गिरगिट बनना पड़ा। और राजा निमि - श्राप से सम्बंधित एक कथा।