भगवान का नाम लेने की विधि? नाम का जप मन या जीभा से? - रामायण, दोहावली के अनुसार।
भगवान का नाम कैसे लेना चाहिए तथा क्या मन से नाम का जप करे या केवल जीभा से जप करने से ईश्वरीय जगत का फल हमे मिल जायेगा? कुछ लोग रामायण तथा अन्य महापुरुषों के कथनानुसार कहते है कि "राम का नाम किसी भी प्रकार से लेना चाहिए, उसमें चाहे मन का लगाव हो या न हो सब चलेगा।" उदाहरण देते है -
भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
- श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड
भावार्थ:- अच्छे भाव (प्रेम) से, बुरे भाव (बैर) से, क्रोध से या आलस्य से, किसी तरह से भी नाम जपने से दसों दिशाओं में कल्याण होता है।
उलटा नामु जपत जगु जाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना॥
- श्रीरामचरितमानस अयोध्याकांड
भावार्थ:- जगत जानता है कि उलटा नाम (मरा-मरा) जपते-जपते वाल्मीकिजी ब्रह्म के समान हो गए।
राम नाम जपि जीहँ जन भए सुकृत सुखसालि।
- दोहावली
भावार्थ:- जीभ से रामनाम का जप करके लोग पुण्यात्मा और परम सुखी हो गये।
अबतक के प्रमाणों से यह लगता है कि किसी भी प्रकार से रामनाम लिया जाये अथवा जप किया जाये तो कल्याण होता है। हाँ! यह बात सत्य है कि कल्याण होता है लेकिन परम् कल्याण नहीं होता। अर्थात् कल्याण केवल इतना होता है कि जहा आप संसारियो के नाम लेते थे वहा आप रामनाम लेने लगे जो की अच्छी बात है। लेकिन यह सोचो कि इससे मुक्ति मिलेगी या इश्वर कृपा मिलेगी? तो यह आपका भोलापन है।
वास्तव में तुलसीदास जी ने यह सब बातें इसलिए लिखी कि लोग सही मार्ग की सीढ़ी की ओर चल पड़े। केवल नाम जपने से कुछ नहीं होता। हम आपको तुलसीदास जी के ही शब्दों में बताने जा रहे है। इन प्रमाणों के एक-एक शब्दों को ध्यान से समझियेगा। इन प्रमाणों में तुलसीदासजी अनेक स्थानों पर मन के द्वारा स्मरण करते हुए, प्रेम पूर्वक भगवान राम के नाम को पुकारने को कहा है।
भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥
- श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड
भावार्थ:- अच्छे भाव (प्रेम) से, बुरे भाव (बैर) से, क्रोध से या आलस्य से, किसी तरह से भी नाम जपने से दसों दिशाओं में कल्याण होता है। उसी (परम कल्याणकारी) राम नाम का स्मरण करके और श्री रघुनाथजी को मस्तक नवाकर मैं रामजी के गुणों का वर्णन करता हूँ।
प्रस्तुत दोहे में तुलसीदासजी राम नाम का स्मरण करके और श्री रघुनाथजी को मस्तक नवाकर रामजी के गुणों का वर्ण करने जा रहे है। तो राम नाम का स्मरण स्वयं तुलसीदासजी ने किया है। तुलसीदास कृत श्रीराम की आरती लोग गाते है "श्री रामचंद्र कृपालु भजु मन" जिसका अर्थ ही होता है कि हे मन! तू कृपालु श्री रामचंद्रजी का भजन कर। जबकि तुलसीदास जी ने विनयपत्रिका में राम आरती करने के बाद मन द्वारा क्या क्या करना है वो तक कहा है।
तुलसी हठि हठि कहत नित चित सुनि हित करि मानि।
लाभ राम सुमिरन बड़ो बड़ी बिसारें हानि॥
- दोहावली
भावार्थ:- तुलसीदासजी नित्य-निरंतर बड़े आग्रह के साथ कहते हैं कि हे चित्त! (मन) तू मेरी बात सुनकर उसे हितकारी समझ। राम का स्मरण करना ही बहुत बड़ा लाभ है और उसे भुलाने में ही सबसे बड़ी हानि है।
उपर्युक्त प्रमाणों में तुलसीदासजी नित्य-निरंतर बड़े आग्रह के साथ चित्त! (मन) से कहते हैं कि तू राम का स्मरण कर क्योंकि यह बहुत बड़ा लाभ है। स्मरण नहीं करना यह सबसे बड़ी हानि है। अर्थात् रामनाम के स्मरण पर बहुत जोर दे रहे है तुलसीदासजी।
राम नाम जप कैसे करना है? / भगवान का नाम लेने की विधि?
नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा॥
- श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड
भावार्थ:- भक्तगण प्रेम के साथ नाम का जप करते हुए सहज ही में आनन्द और कल्याण के घर हो जाते हैं।
ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठाऊँ॥
सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू॥
- श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड
भावार्थ:- ध्रुवजी ने ग्लानि से (विमाता के वचनों से दुःखी होकर सकाम भाव से) हरि नाम को जपा और उसके प्रताप से अचल अनुपम स्थान (ध्रुवलोक) प्राप्त किया। हनुमान्जी ने पवित्र नाम का स्मरण करके श्री रामजी को अपने वश में कर रखा है।
बिगरी जनम अनेक की सुधरै अबहीं आजु।
होहि राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाजु॥
- दोहावली
भावार्थ:- तुलसीदासजी कहते हैं कि तू कुसंगति और चित्त (मन) के सारे बुरे विचारों को त्यागकर रामका बन जा और उनके नाम ‘राम’ का जप कर। ऐसा करने से तेरी अनेकों जन्मों की बिगड़ी हुई स्थिति अभी सुधर जा सकती है।
अर्थात् कुसंगति और चित्त (मन) के सारे बुरे विचारों को त्यागकर, प्रेम के साथ भगवान के पवित्र नाम का स्मरण के साथ जप करने से अनेकों जन्मों की बिगड़ी हुई स्थिति सुधर जाती है तथा श्री रामजी प्रेम के वश में होकर आपके हो जाते है।
राम नाम के जप में प्रेम, विश्वास और भरोसा हो।
तुलसी प्रीति प्रतीति सों राम नाम जप जाग।
किएँ होइ बिधि दाहिनो देइ अभागेहि भाग॥
- दोहावली
भावार्थ:- तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रेम और विश्वास के साथ राम-नाम जपरूपी यज्ञ करने से ईश्वर अनुकूल हो जाता है और अभागे मनुष्य को भी परम भाग्यवान बना देता है।
राम भरोसो राम बल राम नाम बिस्वास।
सुमिरत सुभ मंगल कुसल माँगत तुलसीदास॥
- दोहावली
भावार्थ:- तुलसीदासजी कहते हैं कि एकमात्र राम पर ही मेरा भरोसा रहे, राम ही का बल रहे और जिसके स्मरण मात्र से ही शुभ मंगल और कुशल की प्राप्ति होती है, उस रामनाम में ही विश्वास रहे।
राम नाम रति राम गति राम नाम बिस्वास ।
सुमिरत सुभ मंगल कुसल दुहुँ दिसि तुलसीदास ॥
- दोहावली
भावार्थ:- तुलसीदासजी कहते हैं कि जिसका रामनाम में प्रेम है, राम ही जिसकी एकमात्र गति है और रामनाम में ही जिसका विश्वास है, उसके लिए रामनाम का स्मरण करने से ही दोनों और (लोक-परलोक) शुभ, मंगल और कुशल है।
राम नाम पर नाम तें प्रीति प्रतीति भरोस।
सो तुलसी सुमिरत सकल सगुन सुमंगल कोस॥
- दोहावली
भावार्थ:- तुलसीदासजी कहते हैं कि जो रामनाम के परायण है और रामनाम में ही जिसक प्रेम, विश्वास और भरोसा है, वह रामनाम का स्मरण करते ही सद्गुणों और श्रेष्ठ मंगलों का खजाना बन जाता है।
अर्थात् तुलसीदासजी कहते हैं कि एकमात्र जिसका रामनाम में प्रेम, विश्वास और भरोसा है तथा वो राम का स्मरण करता है। उसका लोक-परलोक शुभ, मंगल और कुशल है और वो सद्गुणों और श्रेष्ठ मंगलों का खजाना बन जाता है।
अस्तु, केवल जीभा से राम नाम लेने से इतना कल्याण अवश्य होगा कि आप नास्तिक नहीं होंगे और किसी दिन कोई वास्तविक संत-महात्मा मिल जाएँगे तो आपको सही मार्ग बताकर आपको परम् कल्याण पद पर पहुँचा देंगे।
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किएँ जोग तप ग्यान बिरागा॥
- श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड
भावार्थ:- बिना प्रेम के केवल योग, तप, ज्ञान और वैराग्यादि के करने से श्री रघुनाथजी नहीं मिलते।
यहाँ तुलसीदास जी साफ तोर से कह देते है कि बिना प्रेम के श्री राम नहीं मिल सकते। चाहे आप कितना भी केवल योग, तप, ज्ञान और वैराग्यादि क्यों न करले। अब विचार कीजिये, यह प्रेम तो मन ही करता है। तो अगर मन से श्री राम के प्रति प्रेम नहीं हुआ तो फिर श्री राम कैसे मिलेंगे?
अतएव अगर परम् कल्याण करना है तो रामनाम का जप प्रेम पूर्वक, विश्वास और भरोसा के साथ, भगवान् का स्मरण (मन से) करना होगा। यही बात तुलसीदास जी ने रामायण, दोहावली के राम-नाम-जपकी महिमा में प्रमुख रूप से कहा है। वेद ने कहा -
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।
बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम्॥
- ब्रह्मबिन्दूपनिषद् २, शाट्यायनीयोपनिषद् १
भावार्थ:- मन ही मानव के बंध और मोक्षका कारण है, जो वह विषयासक्त हो तो बंधन कराता है और निर्विषय हो तो मुक्ति दिलाता है।
अतएव अगर मन विषय में आसक्त होगा तो बंधन का कारण होगा और भगवान् में आसक्त होगा तो मोक्ष का कारण होगा। इसलिए अगर मन में ही राम नहीं होंगे तो मुक्ति कैसे मिलेगी? जीभा से राम नाम लेने का लाभ नहीं है। हाँ! जीभा और मन दोनों का साथ हो तो ठीक है। लेकिन मन नहीं तो कुछ नहीं। इस लेख को भी पढ़ें अगर अभी भी कोई शंका हो - हरि नाम संकीर्तन कैसे करना चाहिये? मन या इन्द्रियों से - पुराण और रामायण के अनुसार।