यह संसार क्या है? - भागवत पुराण
यह संसार क्या है? इसका उत्तर देवताओं ने माता देवकी की गर्भ स्तुति करते वक्त, स्तुति में ही बता था। भागवत पुराण के स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय २ में इसका निरूपण है।
एकायनोऽसौ द्विफलस्त्रिमूलश्चतूरसः पञ्चविधः षडात्मा।
सप्तत्वगष्टविटपो नवाक्षो दशच्छदी द्विखगो ह्यादिवृक्षः॥२७॥
- भागवत १०.२.२७
भावार्थ:- यह संसार क्या है -
- एक सनातन वृक्ष। इस वृक्ष का आश्रय है - प्रकृति।
- इसके दो फल हैं - सुख और दुःख;
- तीन जड़ें हैं - सत्त्व, रज और तम;
- चार रस हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।
- इसके जानने के पाँच प्रकार हैं- श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका।
- इसके छः स्वभाव हैं - पैदा होना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और नष्ट हो जाना।
- इस वृक्ष की छाल हैं सात धातुएँ - रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र।
- आठ शाखाएँ हैं - पाँच महाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार।
- इसमें मुख आदि नवों द्वार खोड़र हैं।
- प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय - ये दस प्राण ही इसके दस पत्ते हैं।
- इस संसार रूपी वृक्ष पर दो पक्षी हैं - जीव और ईश्वर।
त्वमेक एवास्य सतः प्रसूतिस्त्वं सन्निधानं त्वमनुग्रहश्च।
त्वन्मायया संवृतचेतसस्त्वां पश्यन्ति नाना न विपश्चितो ये॥२८॥
- भागवत १०.२.२८
भावार्थ:- इस संसार रूप वृक्ष की उत्पत्ति के आधार एकमात्र आप ही हैं। आपमें ही इसका प्रलय होता है और आपके ही अनुग्रह से इसकी रक्षा भी होती है। जिनका चित्त आपकी माया से आवृत हो रहा है, इस सत्य को समझने की शक्ति खो बैठा है - वे ही उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करने वाले ब्रह्मादि देवताओं को अनेक देखते हैं। तत्त्वज्ञानी पुरुष तो सबके रूप में केवल आपका ही दर्शन करते हैं।