वासुदेव जी द्वारा भगवान विष्णु की स्तुति। - भागवत पुराण

वासुदेव जी द्वारा विष्णु की स्तुति - भागवत पुराण

जब श्री कृष्ण का जन्म हुआ तब वो चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए। वासुदेव जी ने जब भगवान के चतुर्भुज स्वरूप को देखा तो भगवान के चरणों में अपना सर झुका दिया और फिर हाथ जोड़कर वे उनकी स्तुति करने लगे। वह स्तुति वासुदेव जी विष्णु स्तुति के नाम से जाना जाता है। वह स्तुति इस प्रकार है -

विदितोऽसि भवान् साक्षात् पुरुषः प्रकृतेः परः।
केवलानुभवानन्द स्वरूपः सर्वबुद्धिदृक्॥ १३॥
स एव स्वप्रकृत्येदं सृष्ट्वाग्रे त्रिगुणात्मकम्।
तदनु त्वं ह्यप्रविष्टः प्रविष्ट इव भाव्यसे॥१४॥
यथा इमे अविकृता भावाः तथा ते विकृतैः सह।
नानावीर्याः पृथग्भूता विराजं जनयन्ति हि॥१५॥
सन्निपत्य समुत्पाद्य दृश्यन्तेऽनुगता इव।
प्रागेव विद्यमानत्वात् न तेषां इह संभवः॥१६॥
- भागवत पुराण १०.३.१३-१६
श्री कृष्ण का जन्म

भावार्थ:- वसुदेव जी ने कहा- मैं समझ गया कि आप प्रकृति से अतीत साक्षात पुरुषोत्तम हैं। आपका स्वरूप है- केवल अनुभव और केवल आनन्द। आप समस्त बुद्धियों के एकमात्र साक्षी हैं। आप ही सर्ग के आदि में अपनी प्रकृति से इस त्रिगुणमय जगत की सृष्टि करते हैं। फिर उसमें प्रविष्ट न होने पर भी आप प्रविष्ट के समान जान पड़ते हैं। जैसे जब तक महत्त्व आदि कारण-तत्त्व पृथक-पृथक रहते हैं तब तक उनकी शक्ति भी पृथक होती है; जब वे इन्द्रियादि सोलह विकारों के साथ मिलते हैं, तभी इस ब्रह्माण्ड की रचना करते हैं और इसे उत्पन्न करके इसी में अनुप्रविष्ट-से-जान पड़ते हैं; परन्तु सच्ची बात तो यह है कि वे किसी भी पदार्थ में प्रवेश नहीं करते। ऐसा होने का कारण यह है कि उनसे बनी हुई जो भी वस्तु हैं, उनमें वे पहले से ही विद्यमान रहते हैं।

एवं भवान् बुद्ध्यनुमेयलक्षणैः ग्राह्यैर्गुणैः सन्नपि तद्‍गुणाग्रहः।
अनावृतत्वाद् बहिरन्तरं न ते सर्वस्य सर्वात्मन आत्मवस्तुनः॥१७॥
य आत्मनो दृश्यगुणेषु सन्निति व्यवस्यते स्व-व्यतिरेकतोऽबुधः।
विनानुवादं न च तन्मनीषितं सम्यग् यतस्त्यक्तमुपाददत् पुमान्॥१८॥
त्वत्तोऽस्य जन्मस्थिति संयमान् विभो वदन्ति अनीहात् अगुणाद् अविक्रियात्।
त्वयीश्वरे ब्रह्मणि नो विरुध्यते त्वद् आश्रयत्वाद् उपचर्यते गुणैः॥१९॥
स त्वं त्रिलोकस्थितये स्वमायया बिभर्षि शुक्लं खलु वर्णमात्मनः।
सर्गाय रक्तं रजसोपबृंहितं कृष्णं च वर्णं तमसा जनात्यये॥२०॥
- भागवत पुराण १०.३.१७-२०

भावार्थ:- (वसुदेव जी ने कहा -) ठीक वैसे ही बुद्धि के द्वारा केवल गुणों के लक्षणों का ही अनुमान किया जाता है और इन्द्रियों के द्वारा केवल गुणमय विषयों का ही ग्रहण होता है। यद्यपि आप उनमें रहते हैं, फिर भी उन गुणों के ग्रहण से आपका ग्रहण नहीं होता। इसका कारण यह है कि आप सब कुछ हैं, सबके अन्तर्यामी हैं और परमार्थ सत्य, आत्मस्वरूप हैं। गुणों का आवरण आपको ढक नहीं सकता। इसलिए आपमें न बाहर है न भीतर। फिर आप किसमें प्रवेश करेंगे? (इसलिए प्रवेश न करने पर भी आप प्रवेश किये हुए के समान दिखते हैं) जो अपने इन दृश्य गुणों को अपने से पृथक मानकर सत्य समझता है, वह अज्ञानी है। क्योंकि विचार करने पर ये देह-गेह आदि पदार्थ वाग्विलास के सिवा और कुछ नही सिद्ध होते। विचार के द्वारा जिस वस्तु का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, बल्कि जो बाधित हो जाती है, उसको सत्य मानने वाला पुरुष बुद्धिमान कैसे हो सकता है? प्रभो! कहते हैं कि आप स्वयं समस्त क्रियाओं, गुणों और विकारों से रहित हैं। फिर भी इस जगत की सृष्टि, स्थिति और प्रलय आपसे ही होते हैं। यह बात परम ऐश्वर्यशाली परब्रह्म परमात्मा आपके लिए असंगत नहीं है। क्योंकि तीनों गुणों के आश्रय आप ही हैं, इसलिए उन गुणों के कार्य आदि का आपमें ही आरोप किया जाता है। आप ही तीनों लोकों की रक्षा करने के लिए अपनी माया से सत्त्वमय शुक्लवर्ण (पोषणकारी विष्णुरूप) धारण करते हैं, उत्पत्ति के लिए रजःप्रधान रक्तवर्णी (सृजनकारी ब्रह्मारूप) और प्रलय के समय तमोगुण प्रधान कृष्णवर्ण (संहारकारी रुद्ररूप) स्वीकार करते हैं।

त्वमस्य लोकस्य विभो रिरक्षिषुः गृहेऽवतीर्णोऽसि ममाखिलेश्वर।
राजन्य संज्ञासुरकोटि यूथपैः निर्व्यूह्यमाना निहनिष्यसे चमूः॥२१॥
अयं त्वसभ्यस्तव जन्म नौ गृहे श्रुत्वाग्रजांस्ते न्यवधीत् सुरेश्वर।
स तेऽवतारं पुरुषैः समर्पितं श्रुत्वाधुनैव अभिसरत्युदायुधः॥२२॥
- भागवत पुराण १०.३.२१-२२

भावार्थ:- (वसुदेव जी ने कहा -) प्रभो! आप सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। इस संसार की रक्षा के लिए ही आपने मेरे घर अवतार लिया है। आजकल कोटि-कोटि असुर सेनापतियों ने राजा का नाम धारण कर रखा है और अपने अधीन बड़ी-बड़ी सेनाएँ कर रखी हैं। आप उन सब का संहार करेंगे। देवताओं के भी आराध्यदेव प्रभो! यह कंस बड़ा दुष्ट है। इसे जब मालूम हुआ कि आपका अवतार हमारे घर होने वाला है, तब उसने आपके भय से आपके भाइयों को मार डाला। अभी उसके दूत आपके अवतार का समाचार उसे सुनायेंगे और वह अभी-अभी हाथ में शस्त्र लेकर दौड़ा आयेगा।

उपर्युक्त श्लोक में जो माया से तीन गुण से विष्णु, ब्रह्मा तथा रुद्र रूप कहा जा रहा है, वो दिव्य माया के गुण है। प्राकृत माया नहीं है। उपर्युक्त श्लोक में कहा कि "अपनी माया से" अर्थात् भगवान की अपनी माया योगमाया है जो की दिव्य है।

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