कलियुग के लक्षण। भाग २ - भागवत पुराण अनुसार
भागवत पुराण में अनेक जगहों पर कलियुग के लक्षण का वर्णन मिलता है। श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय २ में भी कलियुग के लक्षणों का वर्णन मिलता है और श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय ३ में भी लक्षणों का वर्णन मिलता है। भागवत पुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय ३ में श्री शुखदेव जी ने कलियुग के लक्षणों का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है -
कलियुग में धर्म का पतन
प्रभवन्ति यदा सत्त्वे मनोबुद्धीन्द्रियाणि च।
तदा कृतयुगं विद्यात् ज्ञाने तपसि यद्रुचिः॥२७॥
यदा धर्मार्थ कामेषु भक्तिर्यशसि देहिनाम्।
तदा त्रेता रजोवृत्तिः इति जानीहि बुद्धिमन्॥२८॥
यदा लोभस्तु असन्तोषो मानो दम्भोऽथ मत्सरः।
कर्मणां चापि काम्यानां द्वापरं तद् रजस्तमः॥२९॥
यदा मायानृतं तन्द्रा निद्रा हिंसा विषादनम्।
शोकमोहौ भयं दैन्यं स कलिस्तामसः स्मृतः॥३०॥
यस्मात् क्षुद्रदृशो मर्त्याः क्षुद्रभाग्या महाशनाः।
कामिनो वित्तहीनाश्च स्वैरिण्यश्च स्त्रियोऽसतीः॥३१॥
दस्यूत्कृष्टा जनपदा वेदाः पाषण्डदूषिताः।
राजानश्च प्रजाभक्षाः शिश्नोदरपरा द्विजाः॥३२॥
अव्रता वटवोऽशौचा भिक्षवश्च कुटुम्बिनः।
तपस्विनो ग्रामवासा न्यासिनोऽत्यर्थलोलुपाः॥३३॥
- भागवत पुराण १०.३.२७-३३
भावार्थः - जिस समय झूठ-कपट, तन्द्रा-निद्रा, हिंसा-विषाद, शोक-मोह, भय और दीनता की प्रधानता हो, उसे तमोगुण-प्रधान कलियुग समझना चाहिये। जब कलियुग का राज्य होता है, तब लोगों की दृष्टि क्षुद्र हो जाती है; अधिकांश लोग होते तो हैं अत्यन्त निर्धन, परन्तु खाते हैं बहुत अधिक। उनका भाग्य तो होता है बहुत ही मन्द और चित्त में कामनाएँ होती हैं बहुत बड़ी-बड़ी। स्त्रियों में दुष्टता और कुलटापन की वृद्धि हो जाती है। सारे देश में, गाँव-गाँव में लुटेरों की प्रधानता एवं प्रचुरता हो जाती है। पाखण्डी लोग अपने नये-नये मत चलाकर मनमाने ढंग से वेदों का तात्पर्य निकालने लगते हैं और इस प्रकार उन्हें कलंकित करते हैं। राजा कहलाने वाले लोग प्रजा की सारी कमाई हड़पकर उन्हें चूसने लगते हैं। ब्राह्मण नामधारी जीव पेट भरने और जननेन्द्रिय को तृप्त करने में ही लग जाते हैं। ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्य व्रत से रहित और अपवित्र रहते लगते हैं। गृहस्थ दूसरों को भिक्षा देने के बदले स्वयं भीख माँगने हैं, वानप्रस्थी गाँवों में बसने लगते हैं और संन्यासी धन के अत्यन्त लोभी-अर्थपिशाच हो जाते हैं।
कलियुग में स्त्रियों का व्यवहार
ह्रस्वकाया महाहारा भूर्यपत्या गतह्रियः।
शश्वत्कटुकभाषिण्यः चौर्यमायोरुसाहसाः॥३४॥
- भागवत पुराण १०.३.३४
भावार्थः - स्त्रियों का आकार तो छोटा हो जाता है, पर भूख बढ़ जाती है। उन्हें सन्तान बहुत अधिक होती है और वे अपने कुल-मर्यादा का उल्लंघन करके लाज-हया-जो उनका भूषण है-छोड़ बैठती हैं। वे सदा-सर्वदा कड़वी बात कहती रहती हैं और चोरी तथा कपट में बड़ी निपुण हो जाती हैं। उनमें साहस भी बहुत बढ़ जाता है।
कलियुग में व्यापारियों का व्यवहार
पणयिष्यन्ति वै क्षुद्राः किराटाः कूटकारिणः।
अनापद्यपि मंस्यन्ते वार्तां साधु जुगुप्सिताम्॥३५॥
पतिं त्यक्ष्यन्ति निर्द्रव्यं भृत्याप्यखिलोत्तमम्।
भृत्यं विपन्नं पतयः कौलं गाश्चापयस्विनीः॥३६॥
- भागवत पुराण १०.३.३५-३६
भावार्थः - व्यापारियों के हृदय अत्यन्त क्षुद्र हो जाते हैं। वे कौड़ी-कौड़ी से लिपटे रहते और छदाम-छदाम के लिये धोखाधड़ी करने लगते हैं। और तो क्या-आपत्ति काल न होने पर धनी होने पर भी वे निम्न श्रेणी के व्यापारों को, जिनकी सत्पुरुष निन्दा करते हैं, ठीक समझने और अपनाने लगते हैं। स्वामी चाहे सर्वश्रेष्ठ ही क्यों न हों-जब सेवक लोग देखते हैं कि इसके पास धन-दौलत नहीं रही, तब उसे छोड़कर भाग जाते हैं। सेवक चाहे कितना ही पुराना क्यों न हो-परन्तु जब वह किसी विपत्ति में पड़ जाता है, तब स्वामी उसे छोड़ देते हैं। और तो क्या, जब गौएँ बकेन हो जाती हैं-दूध देना बन्द कर देती हैं, तब लोग उनका भी परित्याग कर देते हैं।
कलियुग में मनुष्य का व्यवहार
पितृभ्रातृसुहृत्ज्ञातीन् हित्वा सौरतसौहृदाः।
ननान्दृश्यालसंवादा दीनाः स्त्रैणाः कलौ नराः॥३७॥
शूद्राः प्रतिग्रहीष्यन्ति तपोवेषोपजीविनः।
धर्मं वक्ष्यन्त्यधर्मज्ञा अधिरुह्योत्तमासनम्॥३८॥
- भागवत पुराण १०.३.३७-३८
भावार्थः - प्रिय परीक्षित! कलियुग के मनुष्य बड़े ही लम्पट हो जाते हैं, वे अपनी कामवासना को तृप्त करने के लिये ही किसी से प्रेम करते हैं। वे विषय वासना के वशीभूत होकर इतने दीन हो जाते हैं कि माता-पिता, भाई-बन्धु और मित्रों को भी छोड़कर केवल अपनी साली और सालों से ही सलाह लेने लगते हैं। शूद्र तपस्वियों का वेष बनाकर अपना पेट भरते और दान लेने लगते हैं। जिन्हें धर्म का रत्तीभर भी ज्ञान नहीं है, वे ऊँचें सिंहासन पर विराजमान होकर धर्म का उपदेश करने लगते हैं।
कलियुग में मौसम का हाल
नित्यमुद्विग्नमनसो दुर्भिक्षकरकर्शिताः।
निरन्ने भूतले राजन् अनावृष्टिभयातुराः॥३९॥
- भागवत पुराण १०.३.३९
भावार्थः - प्रिय परीक्षित! कलियुग की प्रजा सूखा पड़ने के कारण अत्यन्त भयभीत और आतुर हो जाती है। एक तो दुर्भिक्ष और दूसरे शासकों की कर-वृद्धि! प्रजा के शरीर में केवल अस्थिपंजर और मन में केवल उद्वेग शेष रह जाता है। प्राण-रक्षा के लिये रोटी का टुकड़ा मिलना भी कठिन हो जाता है।
कलियुग में भोजन और धन का हाल
वासोऽन्नपानशयनव्यवायस्नानभूषणैः।
हीनाः पिशाचसन्दर्शा भविष्यन्ति कलौ प्रजाः॥४०॥
कलौ काकिणिकेऽप्यर्थे विगृह्य त्यक्तसौहृदाः।
त्यक्ष्यन्ति च प्रियान्प्राणान् हनिष्यन्ति स्वकानपि॥४१॥
- भागवत पुराण १०.३.४०-४१
भावार्थः - कलियुग में प्रजा शरीर ढकने के लिये वस्त्र और पेट की ज्वाला शान्त करने के लिये रोटी, पीने के लिये पानी और सोने के लिये दो हाथ जमीन से भी वंचित हो जाती है। उसे दाम्पत्य-जीवन, स्नान और आभूषण पहनने तक सुविधा नहीं रहती। लोगों की आकृति, प्रकृति और चेष्टाएँ पिशाचों की-सी हो जाती हैं। कलियुग में लोग, अधिक धन की तो बात ही क्या, कुछ कौड़ियों के लिये आपस में वैर-विरोध करने लगते और बहुत दिनों के सद्भाव तथा मित्रता को तिलांजलि दे देते हैं। इतना ही नहीं, वे दमड़ी-दमड़ी के लिये अपने सगे-सम्बन्धियों तक की हत्या कर बैठते और अपने प्रिय प्राणों से भी हाथ धो बैठते हैं।
कलियुग में क्षुद्र का व्यवहार
न रक्षिष्यन्ति मनुजाः स्थविरौ पितरौ अपि।
पुत्रान् सर्वार्थकुशलान् क्षुद्राः शिश्नोदरम्भराः॥४२॥
- भागवत पुराण १०.३.४२
भावार्थः - परीक्षित! कलियुग के क्षुद्र प्राणी केवल कामवासना की पूर्ति और पेट भरने की धुन में ही लगे रहते हैं। पुत्र अपने बूढ़े माँ-बाप की रक्षा-पालन-पोषण नहीं करते, उनकी उपेक्षा कर देते हैं और पिता अपने निपुण-से-निपुण, सब कामों में योग्य पुत्रों की भी परवा नहीं करते, उन्हें अलग कर देते हैं।
कलियुग में भगवान के प्रति लोगों का भाव
कलौ न राजन् जगतां परं गुरुं
त्रिलोकनाथानतपादपङ्कजम्।
प्रायेण मर्त्या भगवन्तमच्युतं
यक्ष्यन्ति पाषण्डविभिन्नचेतसः॥४३॥
यन्नामधेयं म्रियमाण आतुरः
पतन् स्खलन् वा विवशो गृणन् पुमान्।
विमुक्तकर्मार्गल उत्तमां गतिं
प्राप्नोति यक्ष्यन्ति न तं कलौ जनाः॥४४॥
- भागवत पुराण १०.३.४३-४४
भावार्थः - परीक्षित! श्रीभगवान ही चराचर जगत् के परम पिता और परम गुरु हैं। इन्द्र-ब्रह्मा आदि त्रिलोकाधिपति उनके चरणकमलों में अपना सिर झुकाकर सर्वस्व समर्पण करते रहते हैं। उनका ऐश्वर्य अनन्त है और वे एकरस अपने स्वरूप में स्थित हैं। परन्तु कलियुग में लोगों में इतनी मूढ़ता फैल जाती है, पाखण्डियों के कारण लोगों का चित्त इतना भटक जाता है कि प्रायः लोग अपने कर्म और भावनाओं के द्वारा भगवान की पूजा से भी विमुख हो जाते हैं।
ध्यान दे, श्रीशुकदेवजी ने जो बात कही है कलियुग के सम्बन्ध में, उसमे भी वेद विज्ञान है। जब श्रीशुकदेवजी ने प्रथम बार कलियुग के बारे में कहा तो उन्होंने धर्म के पतन होने की बात कही, उसके बाद क्रमश धर्म के पतन होने से क्या होता है यह इस प्रकार कहते गए - जब धर्म का पतन होता है तो स्त्रियों, व्यापारियों और मनुष्यों का पतन होता है, लोगों के कारण से मौसम का हाल, भोजन इत्यादि का हाल और भी ख़राब हो जाता है। इन सभी कारण से मनुष्य का भगवान से और भी विमुख हो जाते हैं। अस्तु, तो ये सबकुछ जो हो रहा है इसका कारण धर्म का पतन है। इसीलिए श्रीशुकदेवजी ने सबसे पहले कलियुग में धर्म के पतन के बारे में बताया और जितना धर्म का पतन होगा, उतना ही जो कुछ श्रीशुकदेवजी जी ने कहा वो सब कुछ प्रत्यक्ष आपको दिखेगा।
अस्तु, तो कलियुग के अंत में भगवान अवतार लेंगे और कलियुग का अंत होगा और फिर से सतयुग की शुरुआत होगी। अवस्य पढ़े कलियुग के अंत में भगवान कल्कि अवतार - भागवत पुराण