वर्ण व्यवस्था क्या है? - गीता अनुसार

ब्राह्मण के नौ गुण, क्षत्रिय के सात गुण कौन से है?

वर्ण व्यवस्था क्या है? इस बारे में लोगों में बहुत भ्रांति है। कुछ लोग वेद, रामायण, गीता और मनुस्मृति का नाम लेते हैं, और कहते हैं कि वर्ण व्यवस्था समाज को बाटने तथा छोटे वर्ण वालों पर अत्याचार का साधन है तथा यह सनातन धर्म की कुप्रथा है इत्यादि। लेकिन, जो लोग ऐसी बातें करते हैं, उन्होंने इन ग्रंथों का स्वाध्याय सही ढंग से नहीं किया होगा। अतः समस्त उपनिषद् रूपी गाय को श्रीकृष्ण ने दुहा और गीता रूपी अमृत विश्व को प्रदान किया। उस वेद के अनुसार गीता में, वर्ण व्यवस्था के बारे में जो कहा गया है, वह कुछ इस प्रकार है।

गीता ४.१३ में श्री कृष्ण ने कहा गया 'चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।' अर्थात् गुण और कर्मों के विभागपूर्वक चारों वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) मेरे द्वारा रचा गया है। इसके बाद फिर श्री कृष्ण ने गीता के १८ अध्याय के ४१ श्लोक में विस्तार से कुछ इस प्रकार कहा-

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥
- गीता १८.४१

अर्थात् : - हे परन्तप! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों के अनुसार विभक्त किये गये हैं।

यानी जिसका जैसा कर्म और स्वभाव है, उसी के अनुसार उसका वर्ण निर्धारित होगा। यानी राजा का बेटा तभी राजा होगा जब उसमें राजा के समान कर्म और स्वभाव होंगे। श्री राम इसलिए राजा नहीं बने कि वो सबसे बड़े थे। राजा इसलिए बने क्योंकि वे श्रेष्ठ क्षत्रिय गुण वाले थे तथा प्रजा एवं मंत्री मंडल को भी वो राजा के रूप में स्वीकार थे।

ब्राह्मण किसे कहते हैं?

श्री कृष्ण ने गीता में ब्राह्मण के नौ गुण बताये है। वे कुछ इस प्रकार है -

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥
- गीता १८.४२

अर्थात् : - शम, दम, तप, शौच, क्षान्ति, आर्जव, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिक्य ये सब ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।

आज के समय में जितने भी लोग अपने आप को ब्राह्मण कहते है और गीता, वेद आदि को मानते है। उन्हें विचार करना चाहिए कि क्या उनमें ये नौ गुण है?

ब्राह्मण के नौ गुण

ध्यान रहे, इन एक-एक गुणों की व्याख्या बहुत विस्तृत है। इसलिए सरल एवं संछेप शब्दों में कुछ इस प्रकार है -

  1. शम - अंतःकरण (मन) को वश में करना।
  2. दम - इन्द्रियों का दमन करना।
  3. तप - वाणी और मन को तपा कर शुद्ध करना, धर्म पालन के लिए कष्ट सहना तप है।
  4. शौच - भीतर-बाहर से शुद्ध रहना।
  5. क्षान्ति - दूसरों को क्षमा करना।
  6. आर्जव - निष्कपट भाव को आर्जव कहते हैं।
  7. ज्ञान - वेद, शास्त्र आदि का ज्ञान होना तथा ज्ञान कराना।
  8. विज्ञान - उपनिषत्प्रतिपादित आत्मज्ञान का अनुभव।
  9. आस्तिक्य - वेद, शास्त्र, ईश्वर आदि में श्रद्धा रखना।

क्षत्रिय किसे कहते हैं?

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥
- गीता १८.४३

अर्थात् : - शौर्य, तेज, धृति, दाक्ष्य (दक्षता), युद्ध से पलायन न करना, दान और ईश्वर भाव (स्वामी भाव) ये सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं।

क्षत्रिय के सात गुण

  1. शौर्य - शूरवीरता
  2. तेज - तेजस्वी
  3. धृति - धैर्य
  4. दाक्ष्य - प्रजा के संचालन आदि की विशेष चतुरता
  5. युद्ध से पलायन न करना - युद्ध में कभी पीठ न दिखाना
  6. दान - दान करना
  7. ईश्वर भाव - स्वामी भाव (शासन करने का भाव)

वैश्य और शूद्र किसे कहते हैं?

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥
- गीता १८.४४

अर्थात् : - कृषि, गौपालन तथा वाणिज्य (व्यवसाय) ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं। और शूद्र का स्वाभाविक कर्म है परिचर्या अर्थात् सेवा करना।

यानी जो व्यापार करते है उन्हें वैश्य कहा जायेगा। और जो सेवा करते है उन्हें शूद्र कहा जायेगा। वर्तमान समय में जो लोग नौकरी करते है वो शूद्र है। शूद्रों के विषय में ऐसा भी कहा गया है कि चारों वर्णों की सेवा करना शूद्र का स्वाभाविक कर्म है। तो इसमें कोई गलत बात नहीं है। क्योंकि सेवा (नौकरी) के बदले धन प्राप्त होता है।

सभी वर्ण में शूद्रों की आवश्कता है। एक ब्राह्मण का घर बिना शूद्र के नहीं बन सकता। एक क्षत्रिय का महल, भोजन, तलवार आदि बिना शूद्र के नहीं बन सकती। एक वैश्य का व्यापार बिना शूद्र के नहीं हो सकता। यहाँ तक की शूद्र स्वयं का घर बिना शूद्र के नहीं बना सकता। इसलिए चारों वर्णों के लिए सेवा (नौकरी) करना शूद्र का स्वाभाविक कर्म है, ऐसा कहना उचित ही है। इसमें किसी को लज्जा आदि नहीं आनी चाहिए।

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