भक्ति की परिभाषा क्या है? - नारद भक्ति सूत्र
हमने अपने लेख में अब तक आपको बताया कि मूल रूप से भक्ति क्या है? अब भगवान को केंद्र में रखते हुए, यह जानने की कोशिश करेंगे कि भक्ति क्या है, भक्ति की परिभाषा क्या है? यानी यह लेख ईश्वर भक्ति या कहें भगवान की भक्ति के बारे में है। ध्यान दे, ईश्वर भक्ति बहुत बड़ा विषय है, अतः संछेप में बताना कठिन है। वैसे तो, ईश्वर भक्ति मार्ग के लिए वेद, पुराण भी हैं। लेकिन, भक्ति के लिए दो महत्वपूर्ण ग्रंथ बहुत लोकप्रिय हैं - १. नारद भक्ति सूत्र और २. शांडिल भक्ति सूत्र। इन दोनों ग्रंथों में, नारद भक्ति सूत्र सबसे अधिक प्रचलित है क्योंकि शांडिल भक्ति सूत्र की तुलना में इसे समझना आसान है।
भक्ति क्या है?
भक्ति और भजन दोनों ही ‘भज्’ धातु से बने है और ‘भज् सेवायाम्’ - ‘भज्’ धातु का अर्थ है सेवा करना। इसलिए ‘भजनम् भक्ति’ अर्थात् आराध्य का भजन यानी सेवा करना भक्ति है। ईश्वर भक्ति के संदर्भ में भगवान की प्रेम पूर्वक सेवा भक्ति है। इस भक्ति रूपी सेवा में भगवान के नाम, गुण, लीला, धाम आदि का गान होता है। यह गान अनेकों भावों (सांत भाव, दास्य भाव, साख्य भाव, वात्सल्य भाव, माधुर्य भाव इत्यादि) से किया जाता है।
भक्ति की परिभाषा क्या है?
ईश्वर भक्ति की परिभाषा करना अत्यंत कठिन है। क्योंकि भक्ति यानी सेवा अनेकों प्रकार से की जाती है। फिर भी, नारद भक्ति सूत्र जो भक्ति के बारे में कहा गया है, वही हम आपको बताते है-
सा त्वस्मिन परमप्रेमरूपा।
- नारद भक्ति सूत्र २
अर्थात् :- वह भक्ति ईश्वर के प्रति प्रेमरूपा है। (नारद जी कहते है कि भगवान में परम प्रेम होना भक्ति है।)
पूजादिष्वनुराग इति पाराशर्यः।
- नारद भक्ति सूत्र १६
अर्थात् :- परशरनन्दन श्रीव्यासजी (वेदव्यास जी) के मतानुसार भगवान की पूजा आदि में अनुराग (प्रेम) होना भक्ति है।
आज कल देखा जाता है कि सुभह-दोपहर जब मन करता है तब ही नाहा कर भगवान को फूल चढ़ा दिया, दीप-धुप जला दी, मीठा चढ़ा दिया फिर उसे प्रसाद समझ कर खा लिया। ये औपचारिकता है, भगवान की पूजा आदि में अनुराग (प्रेम) नहीं है, अतः यह भक्ति नहीं है। यह तो जड़ हाथों का काम है। इसलिए श्री वेदव्यास जी ने कहा, भगवान की पूजा आदि करते समय पूजा में अनुराग (प्रेम) होना भक्ति है। यानी भगवान की पूजा आदि जो हम करते है, वो प्रेम पूर्वक हो। ऐसा नहीं होना चाहिए की आप पूजा के नाम पर औपचारिकता निभा रहे है।
कथादिष्विति गर्गः।
- नारद भक्ति सूत्र १७
अर्थात् :- श्रीगर्गाचार्य के मतानुसार भगवान की कथा में अनुराग होना भक्ति है।
आज कल लोग बहुत कथा वाचकों द्वारा भगवान की कथा (राम कथा, भागवत कथा आदि) सुनते है। किन्तु, कितने ही लोग कथा में झपकी (छोटी नीद) लेते है, कितने ही लोग इसलिए जाते है कि कथा सुनेंगे तो पुण्य मिलेगा इसलिए मन मार कर कथा सुनते है इत्यादि। अतः यह भक्ति नहीं है। इसलिए श्री गर्गाचार्य ने कहा, भगवान की कथा सुनने में अनुराग (प्रेम) होना भक्ति है।
आत्मरत्यविरोधेनेति शाण्डिल्यः।
- नारद भक्ति सूत्र १८
अर्थात् :- शाण्डिल्य ऋषि के मत में आत्मरति के अविरोधी विषय में अनुराग होना भक्ति है।
शांडिल्य ऋषि का कहना है कि पूजा और कथा इनमें अनुराग हो, यह एक अच्छी बात है। लेकिन, अनुराग बाहरी चीजों से नहीं होना चाहिए। जैसे किसी को महादेव का उज्जैन मंदिर पसंद है, लेकिन पास के महादेव का मंदिर पास पसंद नहीं है। किसी को भगवान कृष्ण की एक मूर्ति पसंद है, लेकिन दूसरी नहीं। श्री कृष्ण की कथा अमुक व्यक्ति के कहने पर पसंद आती है, किन्तु वही कथा दूसरों के कहने पर पसंद नहीं है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि व्यक्ति का अनुराग पूजा की क्रियाओं (जैसे आरती करने की क्रिया) से हो गया है, वह उस व्यक्ति विशेष की आवाज को पसंद करता है न कि कथा को। वह वहाँ जाता है जहां भगवान के बाहरी चीजे उत्तम है, जहां भगवान की पूजा, प्रसाद, कीर्तन, कथा आदि लुभावनी हैं, भब्य हैं।
अतः शाण्डिल्य ऋषि कहते है कि आत्मरति का अविरोधी (विरोधी न) हो, वह पूजा और कथा। आत्मरति यानी अंतःकरण से सुख की अनुभूति होनी चाहिए, भगवान के बाहर के सामानों से नहीं। अर्थात् जो अनुराग कहा गया पूजा और कथा में, वो अनुराग भीतर से भगवान में हो, यह भक्ति है।
नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति।
- नारद भक्ति सूत्र १९
अर्थात् :- देवर्षि नारद के मत में, अपने सब कर्मों को भगवान को अर्पण करना और भगवान का थोड़ा-सा भी विस्मरण होने पर परम व्याकुल होना ही भक्ति है।
नारद जी, व्यास, गर्ग और शांडिल्य द्वारा दी गई भक्ति की परिभाषा में कोई विरोध नहीं है। क्योंकि सभी ने अंत में कहा कि भगवान में अनुराग हो। नारद जी उस अनुराग को अनन्यता की ओर ले जा रहे हैं। गीता १८.५७ में, श्री कृष्ण ने कहा कि सब कर्मों को मुझे अर्पण कर। यही नारद जी भी कह रहे है कि अपने सब कर्मों को भगवान को अर्पण करों एवं भगवान का थोड़ा भी भूल जाओ तो परम व्याकुल होकर, जैसे मछली बिन पानी तड़पती है, वैसे ही भगवान का पुनः चिंतन करों।
अस्तु, ईश्वर की भक्ति में केवल इतना ही ध्यान रखना कि वह भक्ति केवल भगवान की प्रेम पूर्वक हो। केवल भगवान की ही भक्ति हो, ऐसा इसलिए क्योंकि नारद भक्ति सूत्र १० 'अन्याश्रयाणां त्यागोऽनन्यता।' अर्थात् "भगवान को छोड़कर, दूसरों के आश्रयों का त्याग का नाम अनन्यता है।" यानी केवल भगवान एवं भगवान से सम्बन्ध रखने वाले लोग और वस्तुओं में मन का लगना, अनन्यता है। अर्थात भगवान का नाम, गुण, लीला, संत, धाम इत्यादि। अतः भगवान की भक्ति अनन्य होनी चाहिए।