उपनिषद् वेदान्त है या ब्रह्मसूत्र है? वेदान्त का अर्थ?

 वेदान्त का अर्थ?

वेदान्त का अर्थ क्या है? उपनिषद् को वेदांत कहते है, या ब्रह्मसूत्र को? वेदांत कहना इनमें से किसके लिए उचित होगा? क्योंकि कुछ लोग उपनिषदों को वेदांत कह रहे है और कुछ लोग ब्रह्मसूत्र को वेदांत कह रहे है। इस ब्रह्मसूत्र के लेखक बादरायण जी है - जो वेदव्यास, कृष्णद्वैपायन, पाराशर नंदन के नाम से भी जाने जाते है। जिस प्रकार बादरायण जी अनेक नामों से जाने जाते है, उसी प्रकार ब्रह्मसूत्र भी वेदान्त सूत्र, उत्तर-मीमांसा सूत्र, शारीरक सूत्र आदि अनेक नाम से जाने जाते है। तो किसके लिए वेदान्त कहना उचित होगा और क्यों? इस लेख में, हम इस विषय में विस्तार से जानेंगे।

वेदान्त शब्द का अर्थ

‘वेदान्त’ शब्द “वेद + अन्त” से बना है। इसलिए ‘वेदान्त’ शब्द का शाब्दिक अर्थ है ‘वेदों का अन्त’। किन्तु, उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र में से कौन वेदों का अन्त है? इसका निर्णय हो जाने के बाद, यह पता चलेगा कि किसे वेदान्त कहना उचित होगा।

क्या उपनिषद् ‘वेदान्त’ है?

जैसा की सर्वविदित है कि चार वेद है और हर एक वेद के चार भाग हैं - १. मन्त्र संहिता, २. ब्राह्मण, ३. आरण्यक और ४. उपनिषद्। चूँकि वेद के अंत में उपनिषद् आते है इसलिए उनको वेदान्त कहते है। अतएव, उपनिषदों के लिए ही ‘वेदान्त’ शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए।

‘अन्त’ से क्या तात्पर्य है?

वेदान्त में ‘अन्त’ कहने का तात्पर्य केवल इतना ही नहीं है कि जो वेद के अंत में है उसे वेदान्त कहते है। इसकी विस्तृत व्याख्या यह भी है कि अन्त में, सदैव सार (निष्कर्ष) को लिखा जाता है। जैसा की आप जानते है कि प्रश्न के उत्तर में, अंतिम अनुच्छेद (Paragraph) में निष्कर्ष (Conclusion) लिखा जाता है। अच्छे लेखक द्वारा लिखे किसी भी लेख को आप पढ़े - हिन्दी या इंग्लिश किसी भी भाषा में, अंतिम अनुच्छेद में वे निष्कर्ष लिखते हैं। अतः उपनिषदों को वेदान्त कहने का सार यह भी है कि वो वेदों का निष्कर्ष है। इसलिए, वेद के सभी शाखाओं के उपनिषद् है। मुक्तिकोपनिषद में कहा गया -

ऋग्वेदादिविभागेन वेदाश्चत्वार ईरिताः।
तेषां शाखा ह्यनेकाः स्युस्तासूपनिषदस्तथा॥११॥
ऋग्वेदस्य तु शाखाः स्युरेकविंशतिसङ्ख्यकाः।
नवाधिकशतं शाखा यजुषो मारुतात्मज॥१२॥
सहस्रसङ्ख्यया जाताः शाखाः साम्नः परन्तप।
अथर्वणस्य शाखाः स्युः पञ्चाशद्भेदतो हरे॥१३॥
एकैकस्यास्तु शाखाया एकैकोपनिषन्मता।
- मुक्तिकोपनिषद १.११-१४

संछिप्त भावार्थः - वेद चार कहे गए है - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद। उन चारों की अनेकों शाखाएँ हैं, और उन शाखाओं के उपनिषद् भी अनेकों हैं। ऋग्वेद की इक्कीस (२१) शाखाएँ हैं। यजुर्वेद की एक सौ नौ (१०९) शाखाएँ हैं। सामवेद से सहस्त्र (१०००) शाखाएँ निकली हैं। अथर्ववेद की शाखाओं के पचास (५०) भेद है। एक-एक शाखा की एक-एक उपनिषद् मानी गयी है।

यानी वेद के सभी शाखाओं के एक-एक उपनिषद् है। उन शाखाओं का सार और अन्त उपनिषद् हैं। अतः उपनिषदों के लिए ‘वेदान्त’ शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए। ऐसा कहना उचित है।

क्या ब्रह्मसूत्र ‘वेदान्त’ है?

महाभारत काल में, ब्रह्मसूत्र की रचना बादरायण जी ने की थी। उनके ब्रह्मसूत्र को लिखने का उद्देश्य सभी उपनिषदों का सार (सारांश) लिखना था और उपनिषदों में परस्पर विरोधी बातों का समाधान करना था। जैसे, उपनिषदों में कहा गया - सामवेद के छान्दोग्योपनिषद् ६.८.७ ने कहा ‘तत्त्वमसि’ अर्थात् “वह ब्रह्म तू है” अब यह ‘तू’ कौन है? और स्पष्ट से यजुर्वेद के बृहदारण्यकोपनिषद् १.४.१० ने कहा ‘अहं ब्रह्मास्मीति।’ अर्थात् “मैं ब्रह्म हुँ” अब यह ‘मैं’ कौन है? और स्पष्ट से अथर्ववेद के माण्डूक्योपनिषद् १.२ ने कहा ‘अयमात्मा ब्रह्म’ अर्थात् “यह आत्मा ब्रह्म है” यानी, उपनिषदों ने कहा कि आत्मा और ब्रह्म (भगवान, परमात्मा) एक है।

इन सबके विपरीत यजुर्वेद के श्वेताश्वतरोपनिषद् १.१० ने कहा ‘क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः।’ अर्थात् “प्रकति तो विनाशशील है, इनको भोगने वाला जीवात्मा अमृतस्वरूप अविनाशी है, इन विशालशील जड़-तत्व और चेतन आत्मा - दोनों को एक ईश्वर शाशन में रखता है।” यजुर्वेद के तैत्तिरीयोपनिषद् २.१.१ ने कहा ‘ब्रह्मविदाप्नोति परम्।’ अर्थात् “ब्रह्मज्ञानी ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।” यजुर्वेद के तैत्तिरीयोपनिषद् ३.१.१ ‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते। येन जातानि जीवन्ति। यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। तद्विजिज्ञासस्व। तद्‌ ब्रह्मेति।’ अर्थात् “ये सब प्रतक्ष्य दीखने वाले प्राणी (आत्मा) जिससे उत्पन्न होते है, उत्पन्न होकर जिसके सहारे जीवित रहते हैं तथा (अन्त में इस लोक से) प्रयाण करते हुए जिसमें प्रवेश करते हैं। उसको तत्व से जानने की इच्छा कर वही ब्रह्म है।”

देखिए! उपनिषदों में कितना विरोधाभास है। कुछ उपनिषदों ने कहा कि आत्मा ब्रह्म है। फिर कुछ उपनिषदों ने कहा कि “माया, जीवात्मा दोनों को ब्रह्म शाशन में रखता है। ब्रह्मज्ञानी उस ब्रह्म को प्राप्त करता है। उस ब्रह्म से प्राणि उत्पन्न होते है, उसी के सहारे जीवित है और अंत में उसमे लीन हो जाते है।” अगर आत्मा ही ब्रह्म है तो उसको प्राप्त करने को क्यों उपनिषद् बोल रहे है। अगर आत्मा ही ब्रह्म है, तो आत्मा का स्वामी ब्रह्म है ऐसा क्यों उपनिषद् बोल रहे है। अगर आत्मा ही ब्रह्म है तो आत्मा से सारे प्राणी (आत्मा) नहीं उत्पन्न होते है, अन्त में आत्मा में ही सभी आत्मा नहीं लीन होती है। वो तो ब्रह्म में लीन होती है।
अब कुछ लोगों को जैसे ही विरोधाभास दिखा और वो समझने में असमर्थ हुए, तब कहते है कि ये सब मिलावट है। किन्तु, बादरायण जी ने मिलावट नहीं कहा। उन्होंने इसका समाधान ब्रह्मसूत्र में किया है। कैसे? वो अपने आप में एक बड़ा विषय हैं। विस्तार से कभी उसपर लेख लिख के बताएंगे।

उपनिषद् वेदों के अंत होने के कारण पहले उसको ‘वेदान्त’ कहते थे। किन्तु, जब वेदव्यास जी ने ब्रह्मसूत्र लिखा जो वेदों के अन्त उपनिषदों का अत्यधिक संक्षेप रूप में सार है। इसलिए ब्रह्मसूत्र के लिए ‘वेदान्त’ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा। अतः उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र दोनों को वेदान्त कहना उचित है। क्योंकि उपनिषद् वेदों के अन्त है और ब्रह्मसूत्र वेदों के अन्त (उपनिषद्) का सार है।

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