गीता स्मृति है या श्रुति? - ब्रह्मसूत्र, शंकराचार्य अनुसार

गीता स्मृति है?

श्रीमद्भगवद्गीता जिसे स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा था, उसके बारे में समाज के कुछ वर्गों में मतभेद हैं। क्या है वह मतभेद? वो यह है कि गीता श्रुति है या स्मृति? गीता के विषय में कुल तीन प्रकार की बातें कहीं जाती हैं - १. गीता श्रुति है २. गीता स्मृति है ३. गीता श्रुति और स्मृति दोनों है। अतः इनमें से कौन सा मत सही है, आइए इसे एक-एक करके प्रमाण द्वारा समझते हैं।

क्या गीता श्रुति है?

ध्यान दे, श्रुति व स्मृति क्या है? इसके बारे में प्रस्थानत्रयी के लेख में विस्तार से बताया है। तो श्रीमद्भगवद् गीता को केवल श्रुति कहने वाले लोग की संख्या बहुत कम हैं। अर्थात् गीता श्रुति ही है, ऐसे बहुत कम लोग है। जो लोग गीता को श्रुति कहते है उनका तर्क यह है कि गीता स्वयं भगवान ने कहा है, उन्हीं की वाणी है, इसलिए श्रुति है। किन्तु, यह तर्क उचित नहीं हैं, क्योंकि ग्रंथों में श्रुति केवल वेदों को कहा गया है।

तुलसीदास जी ने रामचरितमानस बालकाण्ड में लिखा ‘जाकी सहज स्वास श्रुति चारी’ अर्थात् “चारों श्रुति जिनके स्वाभाविक श्वास हैं।” चार श्रुति - ऋग, यजु, साम और अथर्व। इसके अलावा शंकराचार्य, मध्वाचार्य आदि आचार्य ने केवल वेद को ही श्रुति कहा हैं। यहाँ तक कि जिन्होंने ब्रह्मसूत्र और गीता को लिखा महर्षि वेदव्यास जी, उन्होंने भी वेदों को ही श्रुति कहा है। जैसे ब्रह्मसूत्र १.१.११ - “श्रुतत्वाच्च॥", ब्रह्मसूत्र १.३.२१ - “अल्पश्रुतेरिति चेत्तदुक्तम्॥", ब्रह्मसूत्र २.३.१ - “न वियदश्रुतेः॥” इत्यादि। सभी जगह “श्रुति में कहा है” ऐसा कह रहे है वेदव्यास जी। यहाँ श्रुति वेद-उपनिषद् को कहा गया है, गीता को नहीं है, क्योंकि इसी ब्रह्मसूत्र में वेदव्यास जी ने गीता को स्मृति कहा है। ब्रह्मसूत्र २.३.४५ “अपि च स्मर्यते॥” में वेदव्यास जी ने गीता को स्मृति कहा है। अतएव, गीता श्रुति है - यह कहकर, हम सनातन धर्म के आचार्यों के विरुद्ध बात कर रहे हैं।

क्या गीता स्मृति है?

गीता को स्मृति कहना उचित है। क्यों? इसलिए क्योंकि जितने भी पूर्व आचार्य हुए हैं, उन्होंने गीता को स्मृति ही कहा है। जैसे आदि जगद्गुरु शंकराचार्य, सनातन धर्म में उनका कितना योगदान है, यह सभी जानते हैं कि जब भारत में बौद्ध धर्म और मांसाहार का प्रसार हो रहा था, तब शंकराचार्य जी ने तर्क से शास्त्रार्थ से इनके विचारों का खंडन किया और पुनः भारतवर्ष में सनातन धर्म का प्रचार किया। केवल आठ वर्ष की आयु में, उन्होंने वेदों का अध्ययन किया और सन्यास धारण किया। वे उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र आदि के भाष्य में, “गीता स्मृति है” ऐसा लिखते है। जैसे कठोपनिषद् १.३.११ के भाष्य में उन्होंने लिखा -

अत एव च गन्तृणां सर्वगतिमतां संसारिणां परा प्रकृष्टा गतिः।
“यद्गत्वा न निवर्तन्ते” (भ. गी. १५.६) इति स्मृतेः ॥११॥।
- कठोपनिषद् १.३.११ शांकरभाष्य

अर्थात् :- अतः यही गमन करने वाले यानी सम्पूर्ण गतियों वाले संसारियों की परा अर्थात् उत्कृष्ट गति है, जैसा कि “जिसको प्राप्त होकर फिर नहीं लौटते” इस स्मृति से सिद्ध होता है।

यहाँ ध्यान दें, आदि शंकराचार्य ने कठोपनिषद १.३.११ के भाष्य में “यद्गत्वा न निवर्तन्ते” लिखा और कहा कि यह स्मृति से सिद्ध होता है। “यद्गत्वा न निवर्तन्ते" गीता के १५ अध्याय के ६ श्लोक में मिलता है। अतएव आदि शंकराचार्य जी गीता को स्मृति ही मानते हैं। एवं जिन्होंने ब्रह्मसूत्र की रचना की महर्षि वेदव्यास जी, उन्होंने गीता को स्मृति ही कहा है। ब्रह्मसूत्र २.३.४५ “अपि च स्मर्यते॥” में वेदव्यास जी गीता को स्मृति कह रहे है।

वर्तमान में, विश्व की धार्मिक पुस्तकों को प्रकाशित करने वाला संस्था गीताप्रेस गोरखपुर है। उनके संपादक हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने, श्रीमद्भगवद् गीता शांकर भाष्य के हिन्दी अनुवाद में, गीता को श्रुति नहीं बल्कि स्मृति ही लिखा है। वह अनुवाद आज भी प्रकाशित होती हैं। इसके इतर, गीता महाभारत का भाग है, महाभारत के भीष्मपर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व है। चुकी महाभारत स्मृति है, इसलिए गीता भी स्मृति ही हुई।

इस प्रकार, जो गीता को स्मृति ही मानते है वो अनेकानेक आचार्यों का प्रमाण देते है और कहते है कि क्या आप अपने को उनसे भी महान मानते हैं और गीता को स्मृति न कहते हुए श्रुति कैसे कह सकते हैं? अतएव गीता स्मृति ही है, ऐसा अधिकांश लोग मानते हैं।

क्या गीता श्रुति भी है और स्मृति भी है?

गीता स्मृति और श्रुति दोनों है, ऐसा कहने वाले लोग भी है। वे कहते हैं कि स्वयं भगवान श्री कृष्ण की वाणी है गीता, श्री कृष्ण ने कहा और अर्जुन ने सुना, इसलिए श्रुति है। तो, ऐसे तो श्री कृष्ण ने कितने ही ज्ञान की बातें अवतार काल में कहा होगा, उनको एकत्रित कर फिर उन्हें भी श्रुति घोषित कर दिया जाये। और तो और श्री राम ने माता शबरी को जो कहा भक्ति-ज्ञान, जिसे लोग श्री राम गीता के नाम से जानते है, फिर उसे भी श्रुति घोषित कर दिया जाये। और कहाँ तक इस तर्क पर विचार करें, वेदव्यास जी! जो स्वयं विष्णु जी के अवतार है, उन्होंने अपने शिष्यों को जो शिक्षा बोल कर दी, फिर उसे भी श्रुति घोषित कर दिया जाये।

कुछ लोग ये भी कहते है कि गीता उपनिषदों का सार है इसलिए श्रुति है। तो इस प्रकार, ब्रह्मसूत्र न्याय प्रस्थान है लेकिन ब्रह्मसूत्र भी उपनिषदों का सार है, क्या उसे श्रुति भी कहा जाएगा? सनातन धर्म में, श्रुति वेद को ही कहा गया है। वेदव्यास जी जिन्होंने वेदों को विभाजित किया एवं लिपिबद्ध किया, उन्हीं के द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र में उन्होंने स्वयं ‘श्रुति’ वेद के लिए प्रयोग किया है। इसका प्रमाण 'क्या गीता श्रुति है?' में बताया गया है। वेद को श्रुति कहने का एक कारण यह है कि वह ब्रह्मा जी से मनु महाराज ऐसे करते-करते एक से दूसरे व्यक्ति तक सुनते-बोलते हुए पहुंची है। वहीं गीता लिपिबद्ध होते हुए एक से दूसरे व्यक्ति तक पहुंची है। वेदव्यास जी ने गीता को लिखा है। गीता महाभारत का अंश है इसलिए वह स्मृति है।

ध्यान दे, श्रुति एक ही है वह वेद है। मनु महाराज ने स्वयं कहा - मनुस्मृति २.१० ‘श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृति:।’ अर्थात् “श्रुति वेद को और स्मृति धर्मशास्त्र को कहते हैं।” यदि कोई भक्ति भाव में आकर गीता को श्रुति कहे, तो उससे कोई आपत्ति नहीं है। बस यह ध्यान रहे कि सिद्धान्त रूप से श्रीमद्भगवद् गीता स्मृति है।

अब भी एक प्रश्न है कि गीता श्रुति भी और स्मृति भी है ऐसा क्यों कहा जाता है? स्पस्ट कहूँ तो समाज में कुछ ऐसे लोग भी है जो वेद जितना महत्व श्रीमद्भगवद् गीता को नहीं देते। इसलिए जो केवल गीता का जोर-शोर से प्रचार करते है उनके सामने यह समस्या उत्पन्न होती है। अतः गीता को वेद जितना महत्व देने के लिए श्रुति भी है ऐसा कहा जाता है।

यदि ध्यान देकर समझें तो लोग अपनी रचनाओं को वेद के साथ जोड़ते है जिससे उसकी महिमा अधिक हो जाये। आज समाज में ऐसे बहुत से लोग मिलेंगे जो हर चीज को वेद और भगवान के साथ जोड़ते है। जैसे कुछ लोग कहा करते है कि कबीर जी भगवान विष्णु है शंकर है, साईं बाबा भगवान श्री राम ही है इत्यादि। और कुछ आरती में लिखा मिलता है कि वेदों में तेरी महिमा गाई है - ये सब इसलिए लिखा कहा जाता है की लोग प्रश्न न करे।

अस्तु, यह सोचने वाली बात है कि गीता प्रेस ने गीता को श्रुति नहीं कहा वह स्मृति ही मानते है। जबकि उनके नाम में ही ‘गीता’ है। वेदव्यास से लेकर शंकराचार्य आदि जगद्गुरु कभी भी सैद्धांतिक रूप में गीता को श्रुति नहीं माना। अतः गीता स्मृति ही है ऐसा समझना चाहिए। यदि कोई भक्ति भाव में आकर गीता को श्रुति कहे, तो उससे कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए क्योंकि अन्तः वह वेद का ही ज्ञान है।

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