श्रीमद्भगवद्गीता - क्यों, क्या, किसने, महत्त्व?
गीता क्यों कहा गया? क्या अर्जुन वाकई में अज्ञानी था? गीता किसने लिखी? गीता का महत्व? गीता में कितने अध्याय है? क्या गीता को पढ़ने से मन में संन्यास की भावना होती है? इत्यादि कई प्रश्न है जिन्हें जानना आवश्यक है। इस लेख में हम श्रीमद्भगवद्गीता के विषय में जानेंगे, उसके माहात्म्य के विषय में जानेंगे।
क्यों गीता कही गयी?
बिना बुद्धि लगाए इसका उत्तर तो इतना ही है कि “एक ही परिवार के कौरवों व पांडवों में जब बात से विवाद हल न हो सका, तब युद्ध होना तय हुआ; कुरुक्षेत्र की भूमि में पांडवों में से एक अर्जुन ने, कौरवों को दूसरी ओर देख, युद्ध करने की मंशा को त्याग देना चाहा। क्योंकि दूसरी ओर उसके सगे भाई, मित्र, पिता व गुरुजन थे। धर्म की ओर खड़ा हुआ अर्जुन, धर्म की वजह से, अपने धर्म का त्याग करने तक की बात सोच रहा था। तब श्रीकृष्ण अर्जुन के रथ सारथी और मित्र के बीच में जो बातचीत होती है वह श्रीमद भगवद गीता है।” लेकिन! क्या यह सत्य है। ये बातें तभी सत्य हो सकती है जब अर्जुन अज्ञानी हो।
क्या अर्जुन अज्ञानी था?
यदि बुद्धि लगाए तो कई प्रश्न उठते है। जैसे - “अर्जुन को इतना ज्ञान नहीं था कि मैं आत्मा हूँ, शरीर का नाश होता है आत्मा का नहीं, अधर्मी कोई हो (अपने परिवार का हो) उसका साथ नहीं देना चाहिए।” जबकि अर्जुन कर्म से क्षत्रिय और गुरुकुल में पढ़ा हुआ है। गुरुकुल में तो यह सब पढ़ाया जाता है। क्या उसने वेदों का अंश मात्र भी अध्ययन नहीं किया? इसलिए यह प्रश्न उठता है कि क्या अर्जुन को ज्ञान नहीं था? क्या अर्जुन अज्ञानी था जिससे इतनी छोटी-छोटी बातें स्मरण नहीं?
हमें तो ऐसा नहीं लगता क्योंकि यह वही अर्जुन है जो महाभारत युद्ध के पहले अर्जुन ने कृष्ण के सलाह अनुसार भगवान शिव की आराधना शुरू किया। कठोर आराधना के बाद भगवान शिव प्रसन्न हुए और पाशुपतास्त्र प्रदान किया। इतना सब हुआ फिर भी वह अज्ञानी था? महाभारत वनपर्व के ‘कैरातपर्व’ के अध्याय ३९-४० में शिव द्वारा अर्जुन को वरदान दिया गया है, इसके बारे में बताया गया है।
यह वही अर्जुन जिसने युद्ध के लिए, श्री कृष्ण को निहत्थे मांगा था। जबकि कौरव संख्या बल में अधिक थे। इसका मतलब कि अर्जुन को यह ज्ञात था श्री कृष्ण भगवान है। जिसको यह दृढ़ विश्वास हो कि श्री कृष्ण भगवान, उसे भगवत प्राप्ति न हुई हो उसका अज्ञान चला गया न हो ऐसा कैसे संभव है। इसके अलावा अर्जुन और श्री कृष्ण दोनों नर-नारायण के अवतार है। अर्जुन तो पूर्व जन्म में ही माया मुक्त, ज्ञान उक्त, भगवान को प्राप्त हो गया था। फिर इस अवतार काल में अर्जुन रूपी महात्मा अज्ञानी कैसे हो गया?
गीता किसने लिखी?
गीता के रचयिता वेदव्यास जी है। वेदव्यास जी ने गणेश की सहायता से एक लाख श्लोकों का महाभारत लिखा। जिसमें महाभारत के भीष्मपर्व में गीता के ७०० श्लोक मिलते है। उसके बाद गीता के महत्व को जानकर वेदव्यास जी ने गीता के ७०० श्लोक को अलग कर श्रीमद्भगवद्गीता लिखा होगा।
गीता का महत्त्व
श्रीमद्भगवद्गीता में १८ अध्याय और ७०० श्लोक हैं। भारतीय परम्परा के अनुसार गीता का स्थान वही है जो वेदों-उपनिषदों और धर्मसूत्रों का है। कलियुग में तो गीता का स्थान और अधिक हो जाता है, क्योंकि कलियुग के मनुष्यों को अपने परम कल्याण के लिए ७०० श्लोक में जो अतिआवश्यक सिद्धांत जानने चाहिए वो इसमें है। श्रीमद् भगवत गीता के श्लोक में मनुष्य जीवन की हर समस्या का हल छिपा है, यह इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसके ७०० श्लोक में कर्म, धर्म, कर्मफल, जन्म, मृत्यु, सत्य, असत्य, आसक्ति आदि जीवन से जुड़े प्रश्नों के उत्तर हैं।
श्रीमद्भागवत गीता का माहात्म्य वाणी द्वारा वर्णन करना असंभव ही है; क्योंकि जो सार रूपी ज्ञान इस ग्रंथ में वो अद्वितीय है। पेड़ और उसके फल में जो भेद है यही वेद और गीता में है। वैशंपायन जी ने महाभारत में गीता का वर्णन करते हुए कहा-
वैशंपायन उवाच-
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रसंग्रहैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य सुखपद्माद्विनिःसृता॥१॥
- महाभारत भीष्म पर्व अध्याय ४३
अर्थात् :- वैशंपायन जी कहते है - गीता सुगीता करने योग्य है अर्थात् गीता को पढ़कर और उसके अर्थ को जानकर उसे धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य है। अन्य बहुत से शास्त्रों का संग्रह करने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि गीता स्वयं पद्मनाभ भगवान के साक्षात मुखकमल से निकली हुई है।
गीता को पढ़ने से मन में संन्यास की भावना होती है?
गीता के महत्व को न समझने के कारण समाज में पति-पत्नी स्वम और माता-पिता अपने बच्चों को गीता का अध्ययन नहीं करने देते हैं। वे कह देते है कि गीता तो केवल संन्यासियों के लिए ही हैं। वे अपने बालकों को इसी भय से श्रीमद्भगवद्गीता का अभ्यास नहीं कराते कि गीता के ज्ञान से कही लड़का घर छोड़कर संन्यास न हो जाये। संन्यास के भय से, गीता रूपी अमृत ज्ञान से सब वंचित हो रहे है। जबकि वास्तविकता दूसरी ही है।
जिनके मन में गीता से संन्यास होगा यह भय है, वे केवल गीता का पहला व दूसरा अध्याय ही पढ़े। ध्यान दे - अपने सगे-सम्बन्धियों को देख, मोह के कारण, क्षत्रिय धर्म से विमुख होकर संन्यास लेने को तैयार अर्जुन ने गीता उपदेश से संन्यास छोड़ अपने कर्तव्य का पालन किया। इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता का ऐसा उल्टा परिणाम कैसे हो सकता है? अतः कल्याण की इच्छा रखने वालों को गीता अवश्य पढ़नी चाहिए।
वैसे एक रोचक जानकारी दे दूँ, गीता में प्रेम शब्द नहीं है। कुछ लोग गीता को इसलिए पढ़ते है जिससे उनके प्रेम की समस्या हल हो जाये। वे गीता के श्लोक में प्रेम शब्द ढूढ़ रहे है, अतः वो ऐसा न करे। लेकिन इसका आशय यह नहीं की गीता प्रेम पर कुछ नहीं कहती। वह कहती है लेकिन गुप्त रूप से। प्रेम प्रदर्शन करने की वस्तु नहीं है, प्रेम अनुभव की वस्तु है। अतः गीता के श्लोकों के भाव को समझने पर प्रेम जानने में आएगा।