भगवान के सभी अवतार एक ही है, कैसे?
भगवान के सभी अवतार एक "ही" है। यह बात सभी लोग कहते है, परन्तु ऐसा कैसे? इस प्रश्न का समाधान करेंगे। भगवान के बारे में अद्वय ज्ञान तत्व कहा जाता है। अद्वय का तात्पर्य क्या है? कोई भी तत्व अद्वय तभी माना जायगा, जब वह स्वयं सिद्ध हो। दूसरे पर निर्भर न हो। उस तत्व के समान दूसरा तत्व न हो। उस तत्व की विजातीय (अपने से दूसरी जाति) वस्तु भी न हो। उसकी अपनी ही शक्ति सहायिका रहे। भावार्थ यह कि अद्वय ज्ञान तत्व:- सजातीय विजातीय स्वगतभेद शून्य हो। अर्थात भगवान सजातीय, विजातीय, स्वगत भेद शून्य हैं। अब इन तीनों पर विचार कर लीजिये।
सजातीय भेद
सजातीय भेद अर्थात "एक ही जाति में भेद" जैसे मनुष्य एक जाती है! परन्तु उनमें भी भेद (स्त्री, पुरुष और किन्नर ) है। परन्तु भगवान सजातीय भेद शून्य है। इसलिए भगवान के सभी सजातीय अवतार एक हो गये। सजातीय अवतार जैसे राम, कृष्ण, नारायण, ब्रह्मा, शिव, नारद, ऋषभ, मोहिनी, सीता, राधा, पार्वती अवतार आदि।
विजातीय भेद
विजातीय भेद अर्थात "अपने से दूसरी जाति से भेद" जैसे मनुष्य का घोड़े और हाथी से भेद हैं। परन्तु भगवान विजातीय भेद शून्य है। इसलिए भगवान के सभी विजातीय अवतार एक हो गये। विजातीय अवतार जैसे वराह (सूकरा) अवतार, मत्स्य अवतार, कूर्म (कछुए) का अवतार, नृसिंह व हंस अवतार आदि।
स्वगत भेद
स्वगत भेद "स्वयं के शरीर में भेद" जैसे हमरी आँख, कान, हाथ, पैर, ये सब अलग-अलग है और हमारे देह (शरीर) एवम देही (आत्मा) का भेद है। हम आत्मा है! और हमारा यह शरीर है! ये दो अलग-अलग है। तात्पर्य यह है, की हमारे शरीर के एक अंग का दुसरे अंग से भेद (अंतर) है। परन्तु, भगवान में देह एवम देही का भी भेद नहीं है। अर्थात भगवान की आत्मा ही शरीर बनती है। भगवान के शरीर के एक अंग का दूसरे अंग से भी भेद नहीं है। ईशावास्य उपनिषद् ५ के मंत्र को रामचरितमानस अयोध्याकाण्ड ;में कहा ❛तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥❜ वह बिना शरीर के स्पर्श करते है, बिना आँखों के देखते है और बिना नाक के सब गंधों को ग्रहण करते है (सूँघते है)।
अर्थात वह अपनी आँख से देखते भी है, रस भी लेते है, सूंघते भी है, सोचते भी है, चलते भी है। ऐसे ही वह अपनी हाथ से सारे काम करते है, देखते भी है, रस भी लेते है, सूंघते भी है, सोचते भी है। अर्थात भगवान एक इन्द्रिय से ही सारे काम करते है। भगवान तो श्री चैतन्य चरितामृत अन्त्य ९.४४ कर्तुम अकर्तुम अन्यथा कर्तुम समर्थ हैं। अर्थात भगवानजो चाहें करें, जो चाहें न करें और जो चाहें उल्टा-पलटा करें, वो सबकुछ करने में समर्थ (सक्षम) है।
और❛असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥❜ उस ब्रह्म (भगवान) की करनी सभी प्रकार से ऐसी अलौकिक है, कि जिसकी महिमा कही (बताई) नहीं जा सकती। अर्थात हम लोग सोचकर भी नहीं जान सकते है। क्योकि वो अलौकिक (दिव्य) है और हम लोग लौकिक (माया) के अधीन है। केनोपनिषद १.२.२४ में भी कहा, की "भगवान को शब्दों से भी नहीं जाना जा सकता। अगर जानना है तो गुरु के पास जाओ, वो जानता है।" रामचरितमानस अयोध्याकाण्ड में कहा है❛चिदानंदमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी॥❜ आपकी देह चिदानन्दमय (चेतन और आनंद मय अर्थात अलौकिक) है और सब विकारों (दोष) से रहित है, इस रहस्य को अधिकारी (गुरु) ही जानते हैं।
अतएव, जो आनंद राम नाम लेने में है, वहीं श्याम नाम लेने में है, और वहीं आनंद वराह (सूकरा) अवतार, मत्स्य अवतार, कूर्म (कछुए) का अवतार, नृसिंह व हंस अवतार आदि नामों को लेने में है। इनमे कोई भेद नहीं। जैसे आपने देखा होगा की दीपावली पर चीनी का हाथी घोड़ा आदमी आदि दुकानों पर मिलता है। अब किसी बच्चे को हाथी पसंद है तो किसी बच्चे को घोड़ा। दोनों घर ले आते है, परन्तु जब खाते है तो स्वाद उसी चीनी का होता है। उसी प्रकार भगवान के अनेक अवतार है, जिसको जिसका ध्यान (साधना अथवा उपासना) करने में अधिक मन लगे उनका ध्यान करो। अंत में उसी चीनी की भाति, सबको एक जैसे भगवान के आनंद की अनुभूति होगी।
अवश्य पढ़े ❛क्या हिन्दू एक भगवान में मानते है, ब्रह्म परमात्मा और भगवान कौन है?❜ और क्या राम और कृष्ण एक ही हैं?