कैसे किया आदि शंकराचार्य ने संन्यास ग्रहण?
जब आदि शंकराचार्य तीन ही वर्ष के थे तब इनके पिता का देहांत हो गया। शंकराचार्य बड़े ही मेधावी तथा प्रतिभाशाली थे। छह वर्ष की अवस्था में ही ये प्रकांड पंडित हो गए थे और आठ वर्ष की अवस्था में इन्होंने संन्यास ग्रहण किया था। शंकराचार्य के संन्यास ग्रहण करने के समय की कथा बड़ी विचित्र है।
कहते हैं, माता एकमात्र पुत्र को संन्यासी बनने की आज्ञा नहीं देती थीं। एक दिन जब शंकर अपनी माता के साथ किसी आत्मीय के यहाँ से लौट रहे थे, तब नदी, पार करने के लिए वे उसमें घुसे। गले भर पानी में पहुँकर इन्होंने माता को संन्यास ग्रहण करने की आज्ञा न देने पर डूब मरने की धमकी दी। इससे भयभीत होकर माता ने तुरंत इन्हें संन्यासी होने की आज्ञा प्रदान की और इन्होंने गोविन्द स्वामी से संन्यास ग्रहण किया।
पहले ये कुछ दिनों तक काशी में रहे, और तब इन्होंने विजिलबिंदु के तालवन में मण्डन मिश्र को सपत्नीक शास्त्रार्थ में परास्त किया। इन्होंने समस्त भारतवर्ष में भ्रमण करके बौद्ध धर्म को मिथ्या प्रमाणित किया तथा वैदिक धर्म को पुनरुज्जीवित किया।
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