ऋष्यश्रृंग या श्रृंगी ऋषि कौन थे? पिता व उनका जीवन
ऋष्यश्रृंग या 'श्रृंगी ऋषि' के बारे में वाल्मीकि रामायण (बालकाण्ड नवम: सर्ग - १.९.२ - २०) में संछेप में वर्णित हैं। उनके नाम को लेकर यह उल्लेख है कि उनके माथे पर सींग (संस्कृत में ऋंग) जैसा उभार होने की वजह से उनका यह नाम पड़ा था। उनका विवाह अंगदेश के राजा रोमपाद की गोद ली गयी पुत्री शान्ता से सम्पन्न हुआ जो दशरथ की पुत्री थी। ऋष्यश्रृंग के जन्म और राजा रोमपाद की कथा को वाल्मीकि जी ने अपने रामायण में विस्तार से लिखा है, परन्तु तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में ने इस प्रकरण को नहीं लिखा है। अवश्य पढ़े क्यों रामचरितमानस में नहीं लिखा राम की बहन शान्ता का प्रकरण?
श्रृंगी ऋषि एक महान ऋषि है, जो वेदों के पारंगत विद्वान थे। जिन्होंने राजा दशरथ के पुत्र प्राप्ति के लिए अश्वमेध यज्ञ तथा पुत्रकामेष्टि यज्ञ भी कराये थे।
काश्यपस्य च पुत्रोऽस्ति विभाण्डक इति श्रुत: ॥ १-९-३
ऋष्यशृङ्ग इति ख्यातः तस्य पुत्रो भविष्यति।
स वने नित्य संवृद्धो मुनिर् वनचरः सदा॥ १-९-४
भावार्थ - महर्षि कश्यप के विभाण्डक नाम से एक पुत्र है। विभाण्डक का भी एक पुत्र जिसे ऋष्यश्रृंग (श्रृंगी ऋषि) के नाम से प्रसिद्धि होगी। वे ऋष्यश्रृंग सदा वन में ही रहेंगे और वन में ही सदा लालन-पालन पाकर वे बड़े होंगे। "न अन्यम् जानाति विप्रेन्द्रो नित्यम् पित्र अनुवर्तनात्।" भावार्थ - सदा पिता के ही साथ रहने के कारण विप्रवर ऋष्यश्रृंग (श्रृंगी ऋषि) दूसरे किसी को नहीं जानेगे।
ऋष्यश्रृंग या 'श्रृंगी ऋषि' का जन्म
विभण्डक (ऋष्यश्रृंग के पिता) ने कठोर तप किया जिससे देवतागण भयभीत हो गये और उनके तप को भंग करने के लिए इंद्र ने उर्वशि को भेजा। उर्वशी ने उन्हें मोहित कर उनके साथ संसर्ग किया जिसके फलस्वरूप ऋष्यश्रृंग का जन्म हुआ। ऋष्यश्रृंग के माथे पर एक सींग (शृंग) था अतः उनका यह नाम पड़ा। ऋष्यश्रृंग के पैदा होने के तुरन्त बाद उर्वशी का धरती का काम समाप्त हो गया तथा वह स्वर्गलोक के लिए प्रस्थान कर गई।
इस धोखे से विभण्डक इतने आहत हुये और उन्हें नारी जाति से घृणा हो गई तथा उन्होंने अपने पुत्र ऋष्यश्रृंग पर नारी का साया भी न पड़ने देने की ठान ली। इसी उद्देश्य से वह ऋष्यश्रृंग का पालन-पोषण एक अरण्य (वर्षा वन) में करने लगे।
एतस्मिन् एव काले तु रोमपादः प्रतापवान्॥ १-९-७
आङ्गेषु प्रथितो राजा भविष्यति महाबलः।
तस्य व्यतिक्रमात् राज्ञो भविष्यति सुदारुणा॥ १-९-८
अनावृष्टिः सुघोरा वै सर्वलोक भयाअवहा।
भावार्थ - उसी समय अङ्गदेश (अंगदेश) में रोमपद नमक एक बड़े प्रतापी और बलवान राजा थे, उनके द्वारा धर्म का उल्लंघन हो जाने के कारण सब लोगों को अत्यन्त भयभीत हो गए। 'अनावृष्ट्याम् तु वृत्तायाम् राजा दुःख समन्वितः || १-९-९' वर्षा बंद हो जाने से राजा रोमपाद को बहुत दुःख हुआ।
राजा रोमपाद ने ब्राह्मण ऋषियों से मंत्रणा की। फिर ब्राह्मणों ने कहा किसी भी तरह से ऋष्यश्रृंग को अंगदेश की धरती में ले आया जाता है तो उनकी यह विपदा दूर हो जायेगी। अतः ऋष्यश्रृंग को रिझाने के लिए देवदासियों का सहारा लिया क्योंकि ऋष्यश्रृंग ने जन्म लेने के पश्चात् कभी नारी का अवलोकन नहीं किया था। और ऐसा ही हुआ भी। ऋष्यश्रृंग का अंगदेश में बड़े हर्षोल्लास के साथ स्वागत किया गया। फिर उनके आते हो इंद्रदेव उस राज्य में वर्षा करने लगे।
लेकिन उनके पिता विभाण्डक के क्रोध के भय से रोमपाद ने तुरन्त अपनी पुत्री शान्ता का हाथ ऋष्यश्रृंग को सौंप दिया। बाद में ऋष्यश्रृंग ने दशरथ की पुत्र कामना के लिए अश्वमेध यज्ञ तथा पुत्रकामेष्टि यज्ञ भी कराया।
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