प्रह्लाद ने असुर बालकों को महत्वपूर्ण उपदेश दिया।
एक दिन गुरु पुत्र अपने संसारी गृहस्ती कार्य से बहार चले गए। तब प्रह्लाद ने अपने दैत्य सहपाठियों को बुलाया। सब असुर बालक थे, राक्षसों के बच्चे पढ़ते थे ६-७ वर्ष के थे। सबको बुलाया और उपदेश देने लगे। वो उपदेश्य बड़ा महत्वूपर्ण है।
पहला श्लोक है उपदेश का भागवत ७.६.१
कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान्भागवतानिह।
दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम्॥
भावार्थ - बच्चों कुमारावस्था में ही भागवत धर्म परायण हो जाना चाहिए (भगवान का बन जाना चाहिए)। क्योंकि अगली अवस्था मिले न मिले। जवानी की अवस्था को न देखो, वृद्धा अवस्था को मत परखो। क्यों? इसलिए क्योकि यह मानव जन्म देव दुर्लभ है। यह मानव देह कब छिन जाये इसका किसी को पता नहीं। क्या पता तुम्हे जवानी की अवस्था मिले न मिले। इसलिए अगली आयु की प्रतिछा न करो।
धर्म २ प्रकार के होते है एक तो भागवत धर्म और दूसरा माइक (माया का) धर्म। भागवत धर्म को स्वभावक धर्म, परधर्म, गुणातीत धर्म, दिब्य धर्म, आध्यात्मिक धर्म कहते है। और माइक (माया का) धर्म को शारीरक धर्म, अपरधर्म, आगंतुक धर्म, त्रिगुणात्मक धर्म अनेक नाम है। धर्म के बारे में जानने के लिए पढ़े धर्म क्या है? धर्म के प्रकार? परधर्म व अपरधर्म क्या है?
जीव तत्व के आलावा दो तत्व है, १. भगवान और २. माया। तो जो भगवान को धारण करे वो भागवत धर्म है और जो माया (संसार) को धारण करें वो माइक धर्म है। धर्म का अर्थ होता है धारण करना। भगवान और संसार दोनों को कोई नहीं धारण कर सकता इसलिए भगवान ने गीता भागवत वेद में कहा है केवल मुझकों धारण करो।
एक एक श्लोक की व्याख्या हम १००० लेखों में कर सकते है, यह बहुत महत्वपूर्ण श्लोक है। संछेप में आपको हम बता रहे हैं।
प्रह्लाद जी का दूसरा उपदेश भागवत ७.६.२
"यदेष सर्वभूतानां प्रिय आत्मेश्वरः सुहृत्" भावार्थ:- भगवान समस्त प्राणियों के (आत्माओं के) प्रियतम है, आत्मा है, स्वामी है, हितैषी है।
अब भगवान हमारे प्रियतम कैसे है, हमारे आत्मा कैसे है, हमारे स्वामी कैसे है, हमारे हितैषी कैसे है? इन एक-एक प्रश्न के उतर बड़े लम्बे-चौड़े है। तब दैत्य पुत्र एकाग्र हुए। क्यों? इसलिए क्योंकि हमारा मन संसार में पहले से आसक्त है इसलिए वहाँ जाता है, क्योंकि संसार प्रत्यक्ष (हमारे सामने) है। और यह ज्ञान जो प्रह्लाद दे रहे है यह परोछ (मन बुद्धि से परे) है। क्योंकि किसी को भगवान का अनुभव तो है नहीं, न उनके प्रेम आनंद का अनुभव है, न कोई उदाहरण दी जा सकती है। जैसे कोई कहे की पेड़े और बर्फी में क्या अंतर है? तो हम कुछ मात्रा में बता सकते है। लेकिन नीम के कीड़े को रसगुल्ले के आनंद का निरूपण करो तो नीम का कीड़ा कहेगा, क्या बोल रहेहो? हमें कुछ समझ नहीं आरहा हैं। क्योंकि हमने कभी कोई मीठी चिक खाई ही नहीं। इसलिए प्रह्लाद ने संसारी सुख की और इशारा किया।
भागवत ७.६.३-४
सुखमैन्द्रियकं दैत्या देहयोगेन देहिनाम्।
सर्वत्र लभ्यते दैवाद्यथा दुःखमयत्नतः॥
तत्प्रयासो न कर्तव्यो यत आयुर्व्ययः परम्।
न तथा विन्दते क्षेमं मुकुन्दचरणाम्बुजम्॥
भावार्थ - असुर बालको, जो सुख तुम लोग पा रहे हो (खाने पिने संसारी वैभव) इसके लिए तुम्हे प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं है। (तत्प्रयासो न कर्तव्यो) इसके लिए परिश्रम मत करना। जैसे की हम कहते है कि अगर हम परिश्रम करे तो लखपति होजाये, वो देखो उसने प्रयत्न किया वो करोङपति होगया। ये सब बकवास है। ये संसार के जितने भी सुख-दुख है! ये सब भाग्य (हमारे पूर्व कर्म) से मिलते है। थोड़ा परिश्रम भी करो तो तुम वो लखपति करोङपति बन जाते है लोग। और बहुत प्रयत्न करो तोभी लोग के हाथ में कुछ नहीं बचता ये तुम संसार में देखते हो।
तो केवल परिश्रम करने से संसार का धन मिल जाए यह धोखा है। इसलिए अगर तुम यह भी कहो कि संसार में सुख है छोटा है भगवान के यहां बड़ा है मानलिया। अगर तुम्हारी यह भी बात मान लेते है तो संसार का सुख अपने आप मिलेगा। इसलिए उसके लिए कर्म मत करो।
लेकिन फिर असुर बालक सोचते हैं मन ही मन कि भगवान की भक्ति करने का प्रयत्न तो बड़ा भारी होगा। लेकिन प्रह्लाद जी कहते हैं नहीं!
भागवत ७.६.१९
न ह्यच्युतं प्रीणयतो बह्वायासोऽसुरात्मजाः।
आत्मत्वात्सर्वभूतानां सिद्धत्वादिह सर्वतः॥
भावार्थ - असुर बालको! को ध्यान देकर समझो! भगवान की भक्ति करने में अथवा भगवान के पाने में बहुत बड़ा प्रयास नहीं है। क्यों? इसलिए क्योंकि वह हमारी आत्मा है, हमारा तो भगवान पर स्वाभाविक अधिकार है। और फिर भगवान तो कृपालु जैसे तमाम गुणों से तो युक्त है। भगवान तो हमें अपनाने को बैठा है। फिर भगवान को पाने में कोई शर्त भी नहीं है, कि गुणवान हो, ब्राह्मणों हो, क्षत्रियों हो, धनवान हो। ऐसी कोई शर्त नहीं है। भगवान को पाने में कोई परिश्रम नहीं है और भगवान हर जगह प्राप्त है। ऐसा नहीं है कि किसी जगह नहीं है।
जैसे हम संसार में किसी से प्यार करें और उससे उसका प्यार पाना चाहे तो जहाँ पर वह है वहाँ पर हम जाए तब हमें प्यार इत्यादि मिल सकता है। लेकिन भगवान के विषय में ऐसा नहीं है। भगवान के मंदिर में भी नहीं जाना है। जहाँ बैठे हो जैसे बैठे हो वैसे ही बैठ जाओ, नहा धो के बैठना हैं? नहीं नहीं जैसे हो गंदे वैसे ही बैठ जाओ कोई शर्त नहीं है। इसलिए तुलसीदास जी लिखते हैं कि "कहहु भक्ति पथ कवन प्रयासा। योग न जप तप मख उपवासा॥" "सुगम उपाय पाइबे केरे।" "सुलभ (सरल) सुखद मारग यह भाई।" गीता ९.२६ "पत्रम् पुष्पम् फलम् तोयम् यः मे भक्त्या प्रयच्छति।"
जब भगवान को पत्र पुष्प फूल से खरीदा जा सकता है। और कुछ न दो केवल मन देदो, बताओ क्या प्रयास है। इसलिए भक्ति में कोई प्रयास नहीं ना कोई बुद्धि लगाने की आवश्यकता है। क्या नाम जपे उनका कोई अच्छा सा नाम बताइए? जो अच्छा लगता हो।
तो प्रह्लाद असुर बालकों से से कहते हैं कि वह सब जगह हैं वह सब की आत्मा है और देश काल का नियम किसी भी चीज का कोई नियम नहीं है इसलिए कोई प्रयास नहीं है।
भागवत ७.६.२३
केवलानुभवानन्द स्वरूपः परमेश्वरः।
माययान्तर्हितैश्वर्य ईयते गुणसर्गया॥
भावार्थ - वह परमेश्वर (भगवान) अनुभव स्वरुप है, आनंद स्वरुप है, उसमें आनंद के सिवा कुछ है ही नहीं है। आनंद का ही उसका शरीर बनता है। भगवान का हाथ पैर कुछ दिव्यानंद का बनता है, अलौकिक है, अनिर्वचनीय अपौरुषेय आनंद है वह।
असुर बालकों ने समझ लिया और कहा कि भैया तुम तो हमेशा राजमहल में रहे इतना बड़ा ज्ञान तुम्हें कैसे मिल गया? तुम्हारी बातें बैठ तो रही है बुद्धि में लेकिन यह तो बताओ कि तुम्हें यह ज्ञान कैसे मिला। प्रह्लाद ने कहा कि अरे बहुत ज्ञान हमको मिला है वह मां के पेट में मिला है। प्रह्लाद की मां जो कयाधु है। हमने आपको इस लेख में बताया की इंद्र से नारद जी ने कयाधु को छुड़ाया और अपने आश्रम में ले आये और नारद जी ने वेद भक्ति का उपदेश दिया।
प्रह्लाद जी ने कहा और सुनोगे? असुर बालकों ने कहा कि हां हां और सुनाइए भैया। तो प्रह्लाद जी कहते हैं कि सबसे पहला श्लोक उन्होंने मेरी मां को सुनाया
भागवत ७.७.१९
आत्मा नित्योऽव्ययः शुद्ध एकः क्षेत्रज्ञ आश्रयः।
अविक्रियः स्वदृघेतुर्व्यापकोऽसङ्ग्यनावृतः॥
भावार्थ - आत्मा के १२ गुण होते हैं। पहले तुम अपने आप को समझो। पहले अपने आप को समझोगे तब अपने रिश्ते को आराम से समझ लोगे। जब तुम अपने को समझ लोगे तब रिश्ते अपने आप समझ में आ जाएंगे। अगर तुम अपने को नहीं समझोगे तो तुम रिश्ते को कैसे समझोगे यही गड़बड़ हम लोग भी कर रहे हैं। हम लोगों ने अपने आप को आत्मा ना मानते हुए शरीर मान लिया है। जैसे ही हमने अपने आप को शरीर मानना वैसे ही रिस्ता टूट गया। जैसे ही हमने अपने आपको आत्मा माना वैसे ही भगवान और हमारा रिश्ता जुड़ गया इसलिए आत्मा मानों।
भागवत ७.७.२९
तत्रोपायसहस्राणामयं भगवतोदितः।
यदीश्वरे भगवति यथा यैरञ्जसा रतिः॥
भावार्थ - भगवान को पाने के लिए केवल भगवान की भक्ति करना है। भगवान को पाने के लिए कर्म ज्ञान तपस्या कुछ नहीं करना है। क्योंकि और किसी साधन से भगवान नहीं मिल सकता। अगर कोई करें भी तो भागवत २.४.१७ का चुनौती है -
तपस्विनो दानपरा यशस्विनो मनस्विनो मन्त्रविदः सुमङ्गलाः।
क्षेमं न विन्दन्ति विना यदर्पणं तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः॥
भावार्थ - कोई भी साधन करो तपस्या करो, ज्ञान करो, धर्म करो, कर्म करो, किसी का पालन करो लेकिन कल्याण नहीं होगा (भगवान नहीं मिलेंगे) लेकिन संसार की वस्तु मिल जाएगी। भगवान केवल एक मात्र भक्ति से ही ग्राही है। अस्तु, इसलिए प्रह्लाद जी कहते हैं कि केवल भगवान में मन का लगाओ करना यही एकमात्र कल्याण का मार्ग है।
प्रह्लाद के ऐसा कहने पर असुर बालकों ने कहा कि "हाँ हाँ है तो ठीक बात। लेकिन ऐसा हो कैसे?" फिर प्रह्लाद कहते है,
भागवत ७.७.३०
गुरुशुश्रूषया भक्त्या सर्वलब्धार्पणेन च।
सङ्गेन साधुभक्तानामीश्वराराधनेन च॥
भावार्थ - किसी वास्तविक महापुरुष (गुरु) का संग करो, उसकी शरणागति स्वीकार करो, उसकी सेवा करो, उनके सत्संग से वो भक्ति मिलेगी जिसका मैं तुमको इशारा कर रहा हूँ।
प्रह्लाद जी दोबारा एक ही बात को बोलते है,
भागवत ७.७.४९
सर्वेषामपि भूतानां हरिरात्मेश्वरः प्रियः।
भूतैर्महद्भिः स्वकृतैः कृतानां जीवसंज्ञितः॥
भावार्थ - प्रह्लाद जी कहते हैं कि भगवान समस्त आत्माओं की वह आत्मा है, भगवान उसका स्वामी है, उसका पालक है, उसका प्रिय है, इसलिए उसमें उसको पाने में कोई समस्या नहीं है।
भागवत ७.७.४९ "कोऽतिप्रयासोऽसुरबालका हरेरुपासने स्वे हृदि छिद्रवत्सतः" भावार्थ - फिर प्रह्लाद जी दोबारा कहते हैं कि असुर बालकों कोई प्रयास नहीं है भगवान को पाने में। भगवान तो तुम्हारे भीतर ही प्राप्त है, कहीं जाना नहीं है। केवल तुम्हें महसूस करना है कि भगवान तुम्हारे अंदर तुम्हारे साथ सदा है। जैसे कोई गले में कंठी पहना है और दूसरों से पूछ रहा है कि मेरे गले की कंठी कहाँ है। इसी प्रकार प्रह्लाद जी कहते हैं कि वह भगवान तुम्हारे अंदर है उसको तुम मानो।
प्रह्लाद जी बोले, ये याद रहे - भागवत ७.७.५२ "प्रीयतेऽमलया भक्त्या हरिरन्यद्विडम्बनम्" भावार्थ - वे भगवान निर्मल भक्ति से ही प्रसन्न होते है। और जो कुछ भी साधन (कर्म, तपस्या, ज्ञान इत्यादि) यह सब विडंबना है। क्योंकि उसका परिणाम गलत है। लेकिन कोई ये शौक रखे कि "हमको तो स्वर्ग ही जाना है" तो ठीक है हमारे वेद में उसका भी साधन लिखा है। लेकिन वह भगवान तक नहीं पहुंचा सकता, वह स्वर्ग तक पहुंचा सकता है।
तो असुर बालक प्रह्लाद के बताये ज्ञान (उपदेश) को समझ करके, स्वीकार करते हुए अवस्था में आए। तभी प्रह्लाद ने अंतिम महत्वपूर्ण उपदेश दिया -
भागवत ७.७.५५
एतावानेव लोकेऽस्मिन्पुंसः स्वार्थः परः स्मृतः।
एकान्तभक्तिर्गोविन्दे यत्सर्वत्र तदीक्षणम्॥
भावार्थ - केवल कोविंद में अनन्य भक्ति करना बस यही एक हमारा स्वार्थ है। बच्चों! तुम लोग प्रेम करते हो! किससे करते हो! मां से, बाप से, बहन से, भाई से, रसगुल्ला से। क्यों करते हो? इसलिए करते हैं क्योंकि इन लोगों से हमारा स्वार्थ सिद्ध होता है? वेद कहता है कि हर व्यक्ति स्वार्थी है इस बात को हमने अपने कई लिखो में बताया है आप उनकों अवश्य पढ़े। तुलसीदास लिखते है (शिव जी पार्वती से कहते है)
उमा राम सम हत जग माहीं। गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं॥
सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति॥
भावार्थ - हे पार्वती! जगत में श्री रामजी के समान हित करने वाला गुरु, पिता, माता, बंधु और स्वामी कोई नहीं है। देवता, मनुष्य और मुनि सबकी यह रीति है कि स्वार्थ के लिए ही सब प्रीति (प्रेम) करते हैं।
सब स्वार्थी है, क्योंकि यह सबका स्वभाव है। कोई भी व्यक्ति कही भी प्यार करेगा तो स्वार्थ हाल होगा! इस विश्वास के साथ अथवा स्वार्थ हल हो रहा है इस अनुभव के साथ प्यार करता है।
लेकिन स्वार्थ भी दो प्रकार का होता। अपने को देह (शरीर) मान लिया तो देह सम्बन्धी अर्थ को अपना स्वार्थ मानता है। अपने आप को आत्मा मान लिया तो भगवान सम्बन्धी अर्थ को अपना स्वार्थ मानता है। इस बात को हमने अपने लेख में विस्तार पूर्वक बताया है कि स्वार्थ शब्द का अर्थ क्या है? क्या हम स्वार्थी है?
प्रह्लाद के इस अंतिम उपदेश को सुनकर असुर बालकों ने १००% मानलिया (स्वीकार कर लिया) कि प्रह्लाद बिल्कुल ठीक कह रहे हैं।