राम का अयोध्या आगमन - वाल्मीकि रामायण अनुसार

राम जी अयोध्या में आये - वाल्मीकि रामायण अनुसार

श्रीराम का अयोध्या आगमन से पूर्व, उनके आदेश अनुसार हनुमानजी ने निषादराज गुह तथा भरतजी को राम आगमन की सुचना दी। विस्तार से पढ़े राम अयोध्या आगमन से पूर्व भरत हनुमान मिलन। - वाल्मीकि रामायण अनुसार उसके उपरांत जो हुआ वो इस प्रकार है -

अयोध्या में श्रीराम के स्वागत की तैयारी

श्रुत्वा तु परमानन्दं भरतः सत्यविक्रमः।
हृष्टमाज्ञापयामास शत्रुघ्नं परवीरहा॥१॥
रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२७

भावार्थः - यह परमानंदमय समाचार सुनकर शत्रुवीरों का संहार करने वाले सत्वपराक्रमी भरत ने शत्रुघ्न को हर्ष पूर्वक आज्ञा दी-

दैवतानि च सर्वाणि चैत्यानि नगरस्य च।
सुगन्धमाल्यैर्वादित्रैरर्चन्तु शुचयो नराः॥२॥
रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२७

भावार्थः - 'शुद्धाचारी पुरुष कुल देवताओं का तथा नगर के सभी देवस्थानों का गाजे-बाजे के साथ सुगन्धित पुष्पों द्वारा पूजन करें।

सूताः स्तुतिपुराणज्ञाः सर्वे वैतालिकस्तथा।
सर्वे वादित्रकुशला गणिकाश्चैव सर्वशः॥३॥
राजदारास्तथामात्याः सैन्याः सेनाङ्गनागगाः।
ब्राह्मणाश्च सराजन्याः श्रेणिमुख्यास्तथा गणाः॥४॥
अभिनिर्यान्तु रामस्य द्रष्टुं शशिनिभं मुखम्।
रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२७

भावार्थः - स्तुति और पुराणों के जानकार सूत, समस्त वैतालिक (भाँट), बाजे बजाने में कुशल सब लोग, सभी गणिकाएँ, राजरानियाँ, मन्त्रीगण, सेनाएँ, सैनिकों की स्त्रियाँ, ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वनवासी संघ के मुखिया लोग श्रीरामचंद्रजी के मुखचंद्र का दर्शन करने के लिए नगर से बाहर चले।'

भरतस्य वचः श्रुत्वा शत्रुघ्नः परवीरहा॥५॥
विष्टीरनेकसाहस्रीश्चोदयामास भागशः।
समीकुरुत निम्नानि विषमाणि समानि च॥६॥
स्थानानि च निरस्यन्तां नन्दिग्रामादितः परम्।
सिञ्चन्तु पृथिवीं कृत्स्नां हिमशीतेन वारिणा॥७॥
रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२७

भावार्थः - भरत जी की यह बात सुनकर शत्रुवीरों का संहार करने वाले शत्रुघ्न ने कई हजार मजदूरों की अलग-अलग टोलियाँ बनाकर उन्हें आज्ञा दी -'तुम लोग ऊंच-नीच भूमियों को समतल बना दो, अयोध्या से नन्दीग्राम तक का मार्ग साफ कर दो, आसपास की सारी भूमि पर बर्फ की तरह ठंडे जल का छिड़काव कर दो।

ततोऽभ्यवकिरंस्त्वन्ये लाजैः पुष्पैश्च सर्वतः।
समुच्छ्रितपताकास्तु रथ्याः पुरवरोत्तमे॥८॥
रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२७

भावार्थः - तत्पश्चात दूसरे लोग रास्ते में सब ओर लावा और फूल बिखेर दें। इस श्रेष्ठ नगर की सड़कों के अलग-बगल में ऊंची पताकाएँ फहरा दी जायँ।

फिर कहा कि कल सूर्योदय तक लोग नगर के सब मकानों को सुनहरी पुष्प मालाओं, धनीभूत फूलों के मोटे गजरों, सूत के बंधन से रहित कमल आदि के पुष्पों इत्यादि से सजा दें।

राजमार्गमसम्बाधं किरन्तु शतशो नराः।
ततस्तच्छासनं श्रुत्वा शत्रुघ्नस्य मुदान्विताः॥१०॥
रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२७

भावार्थः - राजमार्ग पर अधिक भीड़ ना हो, इसकी व्यवस्था के लिए सैकड़ों मनुष्य सबौर लग जाएँ।' शत्रुघ्न का वह आदेश सुनकर सब लोग बड़ी प्रसन्नता के साथ उसके पालन में लग गये।

सभी लोगों का नन्दीग्राम में पहुँचना

फिर अगले दिन अयोध्या के आठों मंत्री (धृष्टि, जयन्त, विजय, सिद्धार्थ, अर्थसाधक, अशोक, मन्त्रपाल और सुमन्त्र) ध्वजा और आभूषणों के साथ मतवाले हाथियों पर चढ़कर चले। फिर दूसरे बहुत से महारथी वीर अपने हाथियों, घोड़ों और रथों पर सवार होकर निकले। ध्वजा पताकाओं के साथ हजारों अच्छे-अच्छे घोड़ों और घुड़सवारों तथा हाथों में शक्ति पाश आदि धारण करने वाले सस्त्रों पैदल योद्याओं से घिरे हुए वीर पुरुष श्री राम की अगवानी के लिए गये।

ततो यानान्युपारूढाः सर्वा दशरथस्त्रियः।
कौसल्यां प्रमुखे कृत्वा सुमित्रां चापि निर्ययुः॥१५॥
कैकेय्या सहिताः सर्वा नन्दिग्राममुपागमन्।
रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२७

भावार्थः - तदन्तर राजा दशरथ की सभी रानियाँ सवारियों पर चढ़कर कौशल्या और सुमित्रा को आगे करके निकलीं तथा कैकेयी सहित सब-की-सब नन्दीग्राम में आ पहुंचीं।

द्विजातिमुख्यैर्धर्मात्मा श्रेणीमुख्यैः सनैगमैः
माल्यमोदकहस्तैश्च मन्त्रिभिर्भरतो वृतः॥१७॥
शङ्खभेरीनिनादैश्च बन्दिभिश्चाभिवन्दितः।
आर्यपादौ गृहीत्वा तु शिरसा धर्मकोविदः॥१८॥
रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२७

भावार्थः - धर्मात्मा एवं धर्मज्ञ भरत मुख्य-मुख्य ब्राह्मणों, व्यवसायी वर्ग के प्रधानों, वैश्यों तथा हाथों में माला और मिठाई लिये मंत्रियों से घिरकर अपने बड़े भाई की चरणपादुकाओं को सिरपर धारण किये शंखों और भेरियों (वाद्य यंत्र) की गम्भीर ध्वनि के साथ चले। उस समय बन्दीजन उनका अभिनंदन कर रहे थे।

कृत्स्नं तु नगरं ततु नन्दिग्राममुपागमत्।
समीक्ष्य भरतो वाक्यमुवाच पवनात्मजम्॥२३॥
रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२७

भावार्थः - भरत जी ने देखा कि अयोध्यापुरी के सब नागरिक नन्दीग्राम में आ गये हैं। तब उन्होंने पवन पुत्र हनुमान जी से कहा -

कच्चिन्न खलु कापेयी सेव्यते चलचित्तता।
न हि पश्यामि काकुत्स्थं राममार्यं परन्तपम्॥२४॥
रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२७

भावार्थः - वानर-वीर! वानरों का चित्र स्वभावतः चञ्चल होता है। कहीं आपने भी उसी गुण का सेवन तो नहीं किया है - श्री राम के आने की झूठी खबर तो नहीं उड़ा दी है?

राम का अयोध्या का आगमन

निस्वनः श्रूयते भीमः प्रहृष्टानां वनौकसाम्॥२८॥
मन्ये वानरसेना सा नदीं तरति गोमतीम्।
रजोवर्षं समुद्भूतं पश्य वालुकिनीं प्रति॥२९॥
मन्ये सालवनं रम्यं लोलयन्ति प्लवङ्गमाः।
तदेतद् दृश्यते दूराद् विमानं चन्द्रसंनिभम्॥३०॥
विमानं पुष्पकं दिव्यं मनसा ब्रह्मनिर्मितम्
रावणं बान्धवैः सार्धं हत्वा लब्धं महात्मना।
रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२७

भावार्थः - (फिर हनुमान जी ने कहा -) देखिए, अब हर्ष से भरे हुए वानरों का भयंकर कोलाहल सुनाई देता है। मालूम होता है इस समय वानर सेना गोमती को पार कर रही है। उधर सालवन की ओर देखिए कैसे धूल की वर्षा हो रही है? मैं समझता हूँ वानर लोग रमणीय सालवन को आंदोलित कर रहे हैं। लीजिये, यह रहा पुष्पक विमान, जो दूर से चंद्रमा के समान दिखायी देता है। इस दिव्य पुष्पक विमान को विश्वकर्मा ने अपने मन से संकल्प से ही रचा था। महात्मा श्री राम ने रावण को बन्धु-बान्धवों सहित मारकर इसे प्राप्त किया है।

तरुणादित्यसंकाशं विमानं रामवाहनम्।
धनदस्य प्रसादेन दिव्यमेतन्मनोजवम्॥३२॥
एतस्मिन्भ्रातरौ वीरौ वैदेह्या सह राघवौ।
सुग्रीवश्च महातेजा राक्षसश्च विभीषणः॥३३॥
रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२७

भावार्थः - श्रीराम का वाहन बना हुआ यह विमान प्रातः काल के सूर्य की भांति प्रकाशित हो रहा है। इसका वेग मन के समान है। यह दिव्य विमान ब्रह्मा जी की कृपा से कुबेर को प्राप्त हुआ था। इसी में विदेहराजकुमारी सीता के साथ वे दोनों रघुवंशी वीर बन्धु बैठे हैं और इसी में महा तेजस्वी सुग्रीव तथा राक्षस विभीषण भी विराजमान है।

ततो हर्षसमुद्भूतो निःस्वनो दिवमस्पृशत्।
स्त्रीबालयुववृद्धानां रामोऽयमिति कीर्तिते॥३४॥
रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२७

भावार्थः - हनुमान जी के इतना कहते ही स्त्रियों, बालकों, नौजवानों और बूढ़ों - सभी पुरवासियों के मुख से यह वाणी फूट पड़ी - 'अहो! यह श्री राम जी आ रहे हैं।' उन नागरिकों का यह हर्षनाद स्वर्ग लोक तक गूंज उठा।

रथकुञ्जरवाजिभ्यस्तेऽवतीर्य महीं गताः।
ददृशुस्तं विमानस्थं नराः सोममिवाम्बरे॥३५॥
रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२७

भावार्थः - सब लोग हाथी घोड़े, और रथों से उतर पड़े तथा पृथ्वी पर खड़े हो विमान पर विराजमान श्रीराम जी का उसी तरह दर्शन करने लगे, जैसे लोग आकाश में प्रकाशित होने वाले चंद्रदेव का दर्शन करते हैं।

मनसा ब्रह्मणा सृष्टे विमाने भरताग्रजः।
रराज पृथुदीर्घाक्षो वज्रपाणिरिवापरः॥३७॥
ततो विमानाग्रगतं भरतो भ्रातरं तदा।
ववन्दे प्रणतो रामं मेरुस्थमिव भास्करम्॥३८॥
रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२७

भावार्थः - विश्वकर्मा द्वारा मनसे रचे गये उस विमान पर बैठे हुए विशाल नेत्र वाले भगवान श्री राम वज्रधारी देवराज इंद्र के समान शोभा पा रहे थे। विमान के ऊपरी भाग में बैठे हुए भाई श्रीराम पर दृष्टि पढ़ते ही भरत ने विनती भाव से उन्हें उसी तरह प्रणाम किया, जैसे मेरु के शिखर पर उदित सूर्यदेव को द्विज लोग नमस्कार करते हैं।

ततो रामाभ्यनुज्ञातं तद् विमानमनुत्तमम्।
हंसयुक्तं महाबेगं निपपात महीतलम्॥३९॥
रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२७

भावार्थः - इतने ही में श्रीरामचंद्रजी की आज्ञा पाकर वह महान वेगशाली हंसयुक्त उत्तम विमान पृथ्वी पर उतर आया।

भरत जी का श्री राम, लक्ष्मण आदि से साथ मिलन

आरोपितो विमानं तद् भरतः सत्यविक्रमः।
राममासाद्य मुदितः पुनरेवाभ्यवादयत्॥४०॥
तं समुत्थाप्य काकुत्स्थश्चिरस्याक्षिपथं गतम्।
अङ्के भरतमारोप्य मुदितः परिषष्वजे॥४१॥
ततो लक्ष्मणमासाद्य वैदेहीं च परंतपः।
अभ्यवादयत् प्रीतो भरतो नाम चाब्रवीत्॥४२॥
रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२७

भावार्थः - भगवान श्री राम ने सत्यपराक्रमी भरतजी को विमान पर चढ़ा लिया और उन्होंने श्रीरघुनाथजी के पास पहुँचकरआनंदविभोर हो पुनः उनके चरणों में साष्टांग प्रणाम किया। दीर्घकाल के पश्चात दृष्टिपथ में आये हुए भरत को उठाकर श्रीरघुनाथजी ने अपनी गोद में बैठा लिया और बड़े हर्ष के साथ उन्होंने हृदय से लगाया। तत्पश्चात शत्रुघ्न को संताप देने वाले भरत ने लक्ष्मण से मिलकर उनका प्रणाम ग्रहण करके विदेहराजकुमारी सीता को बड़ी प्रसन्नता के साथ प्रणाम किया और अपना नाम भी बताया।

सुग्रीवं कैकयीपुत्रो जाम्बवन्तमथाङ्गदम्।
मैन्दं च द्विविदं नीलमृषभं चैव सस्वजे॥४३॥
सुषेणं च नलं चैव गवाक्षं गन्धमादनम्।
शरभं पनसं चैव परितः परिषस्वजे॥४४॥
रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२७

भावार्थः - इसके बाद कैकेयी कुमार भरत ने सुग्रीव, जाम्बवान्‌, अंगद, मैंद, द्विविद, नील, ऋषभ, सुषेण (तारा के पिता), और पनस का पूर्णरूप से आलिङ्गन किया। वे इच्छानुसार रूप धारण करने वाले वानर मानव रूप धारण करके भरत जी से मिले और उन सब ने महान हर्ष से उल्लसित होकर उस समय भरत जी का कुशल समाचार पूछा।

इसके बाद भरत जी विभिष्ण से मिले।

शत्रुघ्नश्च तदा राममभिवाद्य सलक्ष्मणम्।
सीतायाश्चरणौ वीरो विनयादभ्यवादयत्॥४९॥
रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२७

भावार्थः - इसी समय वीर शत्रुघ्न ने भी श्री राम और लक्ष्मण को प्रणाम करके सीता जी के चरणों में विनय पूर्वक मस्तक झुकाया।

रामो मातरमासाद्य विवर्णां शोककर्शिताम्।
जग्राह प्रणतः पादौ मनो मातुः प्रहर्षयन्॥५०॥
अभिवाद्य सुमित्रां च कैकेयीं च यशस्विनीम्।
स मातॄश्च तदा सर्वाः पुरोहितमुपागमत्॥५१॥
रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२७

भावार्थः - माता कौसल्या शोक के कारण अत्यंत दुर्बल और कान्तिहीन हो गई थीं। उनके पास पहुँचकर श्री राम ने प्रणत हो उनके दोनों पैर पकड़ लिये और माता के मन को अत्यंत हर्ष प्रदान किया। फिर सुमित्रा और यशस्विनी कैकई को प्रणाम करके उन्होंने संपूर्ण माताओं का अभिवादन किया, इसके बाद वे राजपुरोहित वशिष्ठ के पास आये।

स्वागतं ते महाबाहो कौसल्यानन्दवर्धन।
इति प्राञ्जलयः सर्वे नागरा राममब्रुवन्॥५२॥
तन्यञ्जलिसहस्राणि प्रगृहीतानि नागरैः।
व्याकोशानीव पद्मानि ददर्श भरताग्रजः॥५३॥
रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२७

भावार्थः - उस समय अयोध्या के समस्त नागरिक हाथ जोड़कर श्रीरामचंद्रजी से एक साथ बोल उठे - 'माता कौसल्या का आनंद बढ़ाने वाले महाबाहु श्री राम आपका स्वागत है, स्वागत है।' भरत के बड़े भाई श्री राम ने देखा, खिले हुए कमल के समान नागरिकों की सहस्रों अंगुलियाँ उनकी ओर उठी हुई हैं।

पादुके ते तु रामस्य गृहीत्वा भरतः स्वयम्।
चरणाभ्यां नरेन्द्रस्य योजयामास धर्मवित्॥५४॥
अब्रवीच्च तदा रामं भरतः स कृताञ्जलिः।
एतत् ते सकलं राज्यं न्यासं निर्यातितं मया॥५५॥
अद्य जन्म कृतार्थं मे संवृत्तश्च मनोरथः।
यत् त्वां पश्यामि राजानं अयोध्यां पुनरागतम्॥५६॥
अवेक्षतां भवान् कोशं कोष्ठागारं गृहं बलम्।
भवतस्तेजसा सर्वं कृतं दशगुणं मया॥५७॥
तथा ब्रुवाणं भरतं दृष्ट्वा तं भ्रातृवत्सलम्।
मुमुचुर्वानरा बाष्पं राक्षसश्च विभीषणः॥५८॥
रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२७

भावार्थः - तदन्तर धर्मज्ञ के भरत ने स्वयं ही श्रीराम की वे चरणपादुकाएँ लेकर उन महाराज के चरणों में पहना दी और हाथ जोड़कर उस समय उनसे कहा - 'प्रभों मेरे पास धरोहर के रूप में रखा हुआ आपका यह सारा राज्य आज मैंने आपके श्री चरणों में लौटा दिया। आज मेरा जन्म सफल हो गया। मेरा मनोरथ पूरा हुआ, जो अयोध्या नरेश आप श्री राम को पुनः अयोध्या में लौटा हुआ देख रहा हूँ। आप राज्य का खजाना, कोठार, घर और सेना सब देख लें। आप के प्रताप से यह सारी वस्तुएँ पहले से १० गुनी हो गई है।' भ्रातवत्सल भरत को इस प्रकार कहते देख समस्त वानर तथा राक्षस राज विभीषण के नेत्रों से आंसू बहने लगे।

ततः प्रहर्षाद्‌भयरतं अङ्कमारोप्य राघवः।
ययौ तेन विमानेन ससैन्यो भरताश्रमम्॥५९॥
भरताश्रममासाद्य ससैन्यो राघवस्तदा।
अवतीर्य विमानाग्रादवतस्थे महीतले॥६०॥
रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२७

भावार्थः - इसके पश्चात श्रीरघुनाथजी भरत को बड़े हर्ष और स्नेह के साथ गोद में बैठाकर विमान के द्वारा ही स्नेह सहित उनके आश्रम पर गये। भारत के आश्रम में पहुँचकर सेना सहित श्रीरघुनाथजी विमान से उतरकर भूतल पर खड़े हो गये।

फिर श्रीराम ने विमान को कुबेर के पास जाने को कहा। अब वह विमान कुबेर के पास है।

पुरोहितस्यात्मसमस्य राघवो
बृहस्पतेः शक्र इवामराधीअपः।
निपीड्य पादौ पृथगासने शुभे
सहैव तेनोपविवेश वीर्यवान्॥६४॥
रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १२७

भावार्थः - तत्पश्चात पराक्रमी श्रीरघुनाथजी ने अपने सखा पुरोहित वशिष्ठ पुत्र सुयज्ञ के (अथवा अपने परम सहायक पुरोहित वशिष्ठ के) उसी प्रकार चरण छुए, जैसे देवराज इंद्र बृहस्पतिजी के चरणों का स्पर्श करते हैं। फिर उन्हें एक सुंदर प्रथक आसन पर विराजमान करके उनके साथ ही दूसरे आसन पर स्वयं भी बैठे।

इसके बाद भरत जी ने श्री राम को राज्य लौटाया, फिर श्री राम जी ने नगर की यात्रा की और फिर उनका राज्याभिषेक हुआ। अवश्य पढ़े - राम का अयोध्या आगमन - श्रीरामचरितमानस अनुसार

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