मोक्ष क्या है? - वेद

मोक्ष क्या है?

मोक्ष क्या है, क्या मुक्ति और मोक्ष दोनों एक है या इनमें कोई अंतर है, मोक्ष की आवश्यकता क्यों है, क्यों हम मोक्ष को प्राप्त करे, क्या माया से मुक्ति ‘मोक्ष’ है या कर्म बन्धन से मुक्ति ‘मोक्ष’ है? - यह एक ऐसा विषय है जिसके बारे में लोग विस्तार से नहीं जानते हैं। इसलिए, सरल शब्दों और प्रमाणों के द्वारा विस्तार से जानेंगे।

मोक्ष क्या है?

मोक्ष क्या है? - इसे आसानी से समझने के लिए पहले दुःख को समझना होगा। संसार में सभी व्यक्ति दुःखी है। जब हम लोग जन्म लिए तभी से जीवन में दुःख प्रारम्भ हो गया। कबीर दास लिखते है - ‘कबीरा जब हम पैदा हुये, जग हँसे हम रोये।’ तुलसीदास जी रामचरितमानस में लिखते है - ‘जनमत मरत दुसह दु:ख होई।’ अतः हमारे जन्म से लेकर मरण तक, हमें दुःख घेरे हुए है। अगर ध्यान देकर सोचे, तो व्यक्ति हर वक्त दुःखी है, किसी-न-किसी कारण से। जन्म में दुःख, बचपन में खिलौने नहीं मिलने पर दुःख, मिल जाने पर थोड़ा सुख, किसी ने छीन लिए फिर दुःख। बस यही बचपन का हाल पुरे जीवन चलता गया। गीता कहती है -

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥६२॥
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥६३॥
- गीता २.६२-६३

अर्थात् :- विषयों का चिन्तन करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से कामना (इच्छा) उत्पन्न होती है और फिर कामना से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध होने पर सम्मोह (मूढ़भाव) और सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होने से वह मनुष्यका पतन हो जाता है। विस्तार से समझने के लिए पढ़े - कामना क्या है?

यानी हम जीवन भर इच्छाओं को पूरा करने में लगे रहते हैं। अगर वह इच्छाएं पूरी हुई तो थोड़ा सा सुख और साथ में लोभ होगा, किन्तु अगर पूरी नहीं हुई तो दुःख। अब यह प्रक्रिया जीवन भर जारी रही है। अतः हम पूरे जीवन दुःख से घिरे हुए हैं और हर छण सुख की आशा किये हुए है। बृहदारण्यकोपनिषद् ४.५.६ ‘न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति।’ अर्थात् “हमारी सभी कामनाये दूसरे के सुख के लिए नहीं। अपितु, अपने सुख के लिए होती है।” तो, हम दुःखी है और सुख चाहते है। यानी, हम दुःख से मुक्त होना चाहते है और आनंद की अभिलाषा करते है। - इस निष्कर्ष को समझे रहे।

मुक्ति

किसी से छुटकारा पाने को मुक्ति कहते है। किन्तु, शास्त्रों ने दुःख से छुटकारे को मुक्ति कहा है। शास्त्रों के अनुसार मुक्ति दो प्रकार की होती है- १. अनित्य या क्षणिक दुःख निवृत्ति और २. नित्य या आत्यन्तिक दुःख निवृत्ति।

१. अनित्य या क्षणिक दुःख निवृत्ति में कुछ देर के लिए दुःख जाता है। जैसे जब मनुष्य सो जाता है या ध्यान की अवश्था में होता है तब उसे किसी प्रकार का दुःख नहीं होता। किन्तु, जब ध्यान खोलता है, जाग्रत अवस्था में आता है। तब काम, क्रोध, लोभ आदि दुखों से पुनः घिर जाता है। अतः अनित्य या क्षणिक दुःख निवृत्ति को प्रायः मुक्ति कहा जाता है। यानी कुछ पल के लिए दुखों से छुटकारा को मुक्ति कहते है।

२. नित्य या आत्यन्तिक दुःख निवृत्ति को मोक्ष कहते है। यानी सदैव के लिए दुखों से मुक्ति और आनंद दोनों मिल जाने को मोक्ष कहते है। यानी मोक्ष एक ऐसी अवस्थ है जिनमें व्यक्ति सदा के लिए दुखों से मुक्त हो जाता है और सदा के लिए आनंद युक्त होता है। तैत्तिरीयोपनिषद् २.७.२ कहती है ‘रसो वै सः। रसꣳह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति।’ अर्थात् “वही रस है, यह (जीवात्मा) इस रस को प्राप्त करके ही आनंद युक्त होता है।"

अत्यंतिक दुःख निवृत्ति (मोक्ष विस्तार से)

तो सदा के लिए दुःख से मुक्ति और आनंद की प्राप्ति को मोक्ष कहते है। अब वेदों के शब्दों में समझते है कि मनुष्य दुःखी क्यों है? वह दुःखी इसलिए है क्योंकि मनुष्य इस माया के लोक में उसके अधीन है। मनुष्य माया के लोक में यानी इस संसार में क्यों है? उत्तर है - अपने कर्में के कारण। वो कर्म करता है इसलिए कर्म बंधन होता है, जिसके कारण उसे पुनर्जन्म लेना पड़ता है। वेदों ने कहा प्रश्नोपनिषद् ३.७ ‘पुण्येन पुण्यं लोकं नयति पापेन पापमुभाभ्यामेव मनुष्यलोकम्‌॥’ अर्थात् “वह पुण्य कर्मों के द्वारा पुण्य लोक में जाता है, पाप कर्मों के द्वारा नर्क में और पाप तथा पुण्य के मिश्रित कर्मों से पुनः मनुष्य लोक में जाता है।” यानी मनुष्य अपने कर्मों के कारण कभी पुण्य लोक (स्वर्ग), कभी नर्क लोक और कभी मनुष्य लोक (यह संसार) में भटकता रहता है। अर्थात् वह पुनर्जन्म के बंधन में फंस गया।

दूसरे शब्दों में कहें - श्वेताश्वतरोपनिषद् १.८ 'अनीशश्चात्मा बध्यते भोक्तृभावाज् ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः॥’ अर्थात् “जीवात्मा इस जगत के विषयों का भोक्ता बना रहने के कारण, प्रकृति (माया) के आधीन असमर्थ हो, इसमें बँध जाता है और उस परमेश्वर को जानकर (पूर्ण रूप से भगवान को वही जनता है जो उन्हें प्राप्त किया हो) सब प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।” यानी मनुष्य माया के आधीन है और असमर्थ है इस माया से मुक्त होने में। तथा मनुष्य बहुत प्रकार के बंधनों में बँधे हुए है - जैसे माया का बंधन, त्रिकर्म का बंधन, त्रिदोष का बंधन, पंचकोश का बंधन, काल का बंधन इत्यादि। तो इन बंधनों से मुक्ति का नाम मोक्ष है।

मोक्ष सिद्धांत

अब तक हम समझ चुके हैं कि कर्म ही मूल कारण है, यदि मनुष्य सभी कर्मों से छुटकारा पा लेता है तो उसे मोक्ष मिल जाए। लेकिन कर्म करने वाले मनुष्य माया के त्रिगुण (तीन गुणों) के अधीन हैं - सात्विक कर्म, राजस कर्म और तमस कर्म। अतः यदि मनुष्य को सभी कर्मों या कर्मबंधन या पुनर्जन्म से मुक्ति मिलती है, तो मोक्ष की प्राप्ति होती है। अब इसी बात को कुछ स्थानों पर, बहुत संछेप में कहते हैं कि जो माया से मुक्त हो गया उसने मोक्ष प्राप्त कर लिया। क्योंकि मनुष्य के कर्म का कारण माया के तीन गुण है। इसलिए दोनों तरह की बातें सही हैं।

मोक्ष की आवश्यकता क्यों है, क्यों हम मोक्ष को प्राप्त करे?

इसका सीधा सा उत्तर है कि हम बिना किसी के कहे ही मोक्ष चाहते है इसलिए प्राप्त करना है। यानी, हम दुःख से मुक्त होना चाहते है और आनंद की अभिलाषा करते है। अब यह दोनों किसी को मिल जाये तो कहा जाता है कि वह मोक्ष को प्राप्त हो गया। कोई भी व्यक्ति दुःख नहीं चाहता, सभी आस्तिक-नास्तिक आनंद ही चाहते है। इसलिए ऐसा कहना उचित ही है कि सब मोक्ष चाहते है।

ध्यान रहे, मोक्ष एक अवस्था है जिसके लिए किसी तरह के शरीर त्याग की जरूरत नहीं होती है। ये पूर्णतया इसी जीवन में सशरीर हासिल की जा सकने वाली स्थिति है। भगवान की प्राप्ति या मोक्ष मरने से पहले प्राप्त करना होता है, क्योंकि मरने के बाद कर्म करने का अधिकार नहीं है। मरने से पहले मोक्ष की अवस्था किसी को प्राप्त होगी तभी वो मरणोपरांत परम गति को प्राप्त होगा। तुलसीदास, सूरदास, मीरा, प्रह्लाद, परीक्षित आदि भक्तों ने पहले मोक्ष प्राप्त किया फिर संसार छोड़ने के बाद परम गति को प्राप्त हुए। अवश्य पढ़े - मोक्ष प्राप्ति सिद्धांत - माया से मुक्ति कैसे मिले?

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