माया से मुक्ति कैसे मिले? - मोक्ष प्राप्ति सिद्धांत
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माया से मुक्ति कैसे मिले? कैसे सभी बन्धनों से मुक्ति मिले? क्या मोक्ष, आनन्द सदा के लिए मिल जाता है? इसको दूसरे शब्दों में ऐसा कह सकते है कि मोक्ष प्राप्ति की बाधाओं का अंत कैसे हो? कैसे मनुष्य त्रिकर्म, त्रिदोष, पंचकोश, काल आदि के बन्धनों से मुक्त हो? अतः इस लेख में इन विषयों पर विस्तार से जानेंगे।
कर्म समाप्त मोक्ष प्राप्ति?
मोक्ष क्या है? - लेख में यह भी बताया गया कि कर्म बंधन के कारण, मनुष्य माया के बंधन में हैं। इसलिए, कुछ लोग अपने बल पर माया से मुक्त होना चाहते है और ऐसा कहते है कि “यदि मनुष्य कर्म करना बंद कर दे, तो कर्म-फल के चक्र में नहीं बँधेगा। इस प्रकार माया से मुक्ति यानी मोक्ष अपने-आप ही मिल जायेगा।” सुनने में तो तर्क सही लगता है। किन्तु, सही है नहीं! यदि हमने एक जन्म में एक बार भी झूठ बोला हैं, एक बार भी कर्म किए हैं, तो हमारे अनंत जन्म हो चुके हैं। हम अनंत जन्म तक अपने अनंत कर्मों का फल भोगते रहेंगे।
अब यदि हम इस तर्क को स्वीकार नहीं करें। तो कर्म के विषय में गीता ३.५ ने कहा ‘न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्’ अर्थात् “कोई भी मनुष्य, किसी भी अवस्था में, क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता।” यानी हर क्षण (पल) मनुष्य कर्म कर रहा है। क्योंकि गीता १८.१५ ने कहा ‘शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म’ अर्थात् “शरीर, वाणी और मन से की गयी क्रिया कर्म है।” यानी शरीर-निर्वाह-संबंधी क्रियाएँ; नींद, चिंतन आदि क्रियाएँ और समाधि आदि क्रियाएँ ये सब कर्म ही है। कर्म के विषय में विस्तार से पढ़े - कर्म क्या है? कर्म की परिभाषा? - गीता
अतः हम हर क्षण (हर पल) कर्म कर रहे हैं। हम कर्म-बंधन में और बंधते जा रहे है। इसलिए, कर्मों को भोगकर समाप्त करने का तर्क गलत है। जहाँ तक रहीं बात अपने बल से माया से मुक्त होने की। तो कठोपनिषद् ने कहा -
महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः।
पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः॥
- कठोपनिषद् १.३.११
अर्थात् :- जीवात्मा से बलवती है भगवान की अव्यक्त माया शक्ति, अव्यक्त माया से भी श्रेष्ठ है परमपुरुष (स्वयं परमेश्वर), परमपुरुष भगवान से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। वही सबकी परम अवधि और वही परम गति है।
श्वेताश्वतरोपनिषद् ४.१० ने कहा ‘मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं च महेश्वरम्।’ अर्थात् “माया तो प्रकति को समझना चाहिये और मायापति (माया के स्वामी) महेश्वर (महान ईश्वर) को समझना चाहिए।”
अतएव, उपर्युक्त उपनिषद् के प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि “माया भगवान की शक्ति है एवं माया रूपी शक्ति का स्वामी भगवान है। और जीवात्मा से बलवती माया शक्ति है (यानी माया के आधीन है जीवात्मा), इसीलिए जीवात्मा स्वयं के बल से माया से मुक्त नहीं हो सकता।” अतः मोक्ष प्राप्त करना है, तो भगवान की शरण में जाना होगा। इसे और भी स्पस्ट रूप से गीता ने कहा -
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
- गीता ७.१४
अर्थात् :- यह दैवी (अलौकिक) त्रिगुणमयी (सात्विक, राजस और तामस गुणमयी) मेरी माया बड़ी दुस्तर (इससे पार पाना बड़ा कठिन) है। जो केवल मुझको ही निरन्तर भजते हैं, वे इस माया को तर जाते हैं अर्थात् संसार से तर जाते हैं।
अतएव, भगवान की शरण से मुक्ति मिल सकती है, अन्य कोई और उपाय नहीं है। अगर मोक्ष चाहिए तो भगवान के ही शरण में जाना होगा, उनका निरन्तर भजन करना होगा।
सभी बन्धनों से मुक्ति कैसे मिले
मोक्ष प्राप्ति के मार्ग में कई प्रकार के बन्धनों (त्रिकर्म, त्रिदोष, पंचकोश आदि) का वर्णन हैं। और यह भी सत्य है कि जब तक सभी बन्धनों से मुक्ति नहीं मिलती, तबतक मोक्ष प्राप्त करना असम्भव है। किन्तु, यह सभी प्रकार के बंधन माया के ही अंतर्गत है। इसलिए, माया से मुक्ति का अभिप्राय यही है कि सभी प्रकार के बंधन से मुक्ति। अतः उपनिषद्, गीता, पुराण आदि में एक ही बात को दो तरह से कहा गया है - भगवान को जानकर सभी बन्धनों से मुक्ति मिल जाएगी और भगवान को जानकर माया से मुक्ति मिल जायेगी।
जैसे कठोपनिषद् २.३.८ ने कहा ‘यं ज्ञात्वा मुच्यते’ अर्थात् “जिसको (भगवान को) जानकार जीवात्मा मुक्त हो जाता है।” और श्वेताश्वतरोपनिषद् ४.१६ ने कहा ‘ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः।’ अर्थात् “जिसको जानकार, (मनुष्य) समस्त बन्धनों से छूट जाता हैं।” अतएव, त्रिकर्म, त्रिदोष, पंचकोश, काल आदि सभी बंधनों से मुक्त होना है तो भगवान को जानना होगा। दूसरे शब्द में भगवान को प्राप्त करना होगा।
ध्यान से ही मोक्ष की प्राप्ति
भगवान की प्राप्ति के लिए ध्यान करना आवश्यक है। केवल निरंतर भगवान का ध्यान करने से! भगवान की कृपा से मनुष्य मुक्ति (मोक्ष) को प्राप्त करता हैं। इस विषय में उपनिषदों में कहा -
न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम्।
हृदा मनीषा मनसाऽभिक्लृप्तो य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति॥
- कठोपनिषद् २.३.९
अर्थात् :- इस परमेश्वर का वास्तविक स्वरूप आपने सामने प्रतक्ष्य विषय के रूप में नहीं ठहरता, इसको कोई भी चर्मचक्षुओं द्वारा नहीं देख पता। मन से बारम्बार चिन्तन करके ध्यान में लगा हुआ, निर्मल और निश्चल ह्रदय से और विशुद्ध बुद्धि के द्वारा देखने में आता है। जो इसको (परमेश्वर को) जानते हैं, वे अमृत (आनन्द) स्वरूप हो जाते हैं।
क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः।
तस्याभिध्यानाद्योजनात्तत्त्वभावात् भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः॥
- श्वेताश्वतरोपनिषद् १.१०
अर्थात् :- प्रकति तो विनाशशील है, इनको भोगने वाला जीवात्मा अमृतस्वरूप अविनाशी है। इन विनाशशील जड-तत्व और चेतन आत्मा दोनों को एक ईश्वर अपने शासन में रखता है। (इसलिए, इस प्रकार जानकार) उसका निरन्तर ध्यान करने से, मन को उसमें लगाये रहने से तथा तन्मय हो जाने से अन्त में (उसकी प्राप्ति हो जाती है) फिर समस्त माया की निवृत्ति हो जाती है।
ध्यान दे, ‘ध्यान’ मन का कार्य है। इसीलिए ब्रह्मबिन्दूपनिषद् २, शाट्यायनीयोपनिषद् १ ने कहा ‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।’ अर्थात् “मन ही मानव के बन्धन और मोक्ष का कारण है।” इसीलिए, बार-बार ध्यान करने को उपनिषद्, गीता, पुराण आदि कहते है। बिना ध्यान के मुक्ति (मोक्ष) सम्भव नहीं है। इसलिए भगवान के नाम संकीर्तन में भी ध्यान करना आवश्यक है। विस्तार से पढ़ें - हरि नाम संकीर्तन कैसे करना चाहिये करें? - पुराण और रामायण के अनुसार।
मोक्ष, आनन्द सदा के लिए मिल जाता है?
कुछ लोग कहते है कि मोक्ष की अवधि होती है। यानी मुक्ति कुछ समय के तक ही है, उसके बाद पुनः माया के लोक में आना होगा। और कुछ लोग ऐसा सोचते है कि आनन्द सदा के लिए नहीं मिलता। परन्तु, यह सत्य नहीं है। अगर मोक्ष की अवधि है! तो हम इतना परिश्रम करके माया से मुक्त क्यों हो? रहे इसी संसार में। ऐसा कहने वालों को उपनिषदों को पढ़ना चाहिए। श्वेताश्वतरोपनिषद् ४.१४ ने कहा ‘ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति’ अर्थात् “कल्याणस्वरूप महेश्वर को जानकार सदा रहने वाली शान्ति को प्राप्त होता है।” श्वेताश्वतरोपनिषद् ६.१२ ने कहा ‘तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्॥’ अर्थात् “उस हृदयस्थित परमेश्वर को जो धीर पुरुष निरन्तर देखते रहते हैं, उन्हीं को सदा रहने वाला परमानन्द प्राप्त होता है, दूसरों को नहीं।” अतः उपनिषद् कहते है कि मोक्ष, आनन्द सदा के लिए मिल जाता है।
कुछ लोग ऐसा सोचते है कि भगवान को बिना प्राप्त किये भी दुःख से मुक्त मिल सकती है। लेकिन ऐसा हो नहीं सकता है। क्योंकि श्वेताश्वतरोपनिषद् ने कहा -
यदा चर्मवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवाः।
तदा देवमविज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति॥
- श्वेताश्वतरोपनिषद् ६.१९
अर्थात् :- जब मनुष्यगण आकाश को चमड़े की भाँति लपेट सकेंगे, तब उन परमदेव परमात्मा को बिना जाने भी दुःख समुदाय का अंत हो सकेगा।
कहने का भाव यह है कि जिस प्रकार आकाश को चमड़े की भाँति लपेटना मनुष्य के लिए सर्वथा असम्भव है, यह कार्य सारे मनुष्य मिलकर भी नहीं कर सकते। उसी प्रकार परमात्मा को बिना जाने (बिना प्राप्त किये) कोई भी जीव इस दुःख रूपी समुद्र से पार नहीं हो सकता।
अस्तु, तो सदा के लिए दुःखों से मुक्ति तथा सदा के लिए आनन्द की प्राप्ति के लिए, मनुष्य को निश्चल मन से निरन्तर भगवान का ध्यान करना होगा। फिर भगवान की प्राप्ति होगी, तभी माया से मुक्ति या मोक्ष की प्राप्ति होगी।