कैसे आत्मा परमात्मा (ब्रह्म, भगवान) नहीं है? - वेदान्त अनुसार

आत्मा ब्रह्म नहीं है।

हमने पिछले लेख में तर्क और उपनिषद, गीता के प्रमाणों द्वारा विस्तार से चर्चा की और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि आत्मा ब्रह्म नहीं है। क्योंकि हमारे ग्रंथों में इसके विपरीत प्रमाण मिलते हैं। जैसे - सामवेद के छान्दोग्योपनिषद् ६.८.७ ने कहा ‘तत्त्वमसि’ अर्थात् “वह ब्रह्म तू है” ठीक इसके विपरीत श्वेताश्वतरोपनिषद् १.८ ‘अनीशश्चात्मा बध्यते भोक्तृभावाज् ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः॥’ अर्थात् “जीवात्मा इस जगत के विषयों का भोक्ता बना रहने के कारण, प्रकृति (माया) के आधीन असमर्थ हो, इसमें बँध जाता है और उस परमेश्वर को जानकर (पूर्ण रूप से भगवान को वही जनता है जो उन्हें प्राप्त किया हो) सब प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।” यानी आत्मा माया के आधीन है और ब्रह्म माया शक्ति के स्वामी है। तो यहाँ स्पस्ट रूप से आत्मा और ब्रह्म में भेद बताया गया है।

वेदान्त में वेदव्यास जी ने लिखा वेदान्त २.१.२२ ‘अधिकं तु भेदनिर्देशात्॥’ अर्थात् “किन्तु (ब्रह्म जीव नहीं है, अपितु उससे) अधिक है; क्योंकि जीवात्मा से ब्रह्म का भेद बताया गया है।” यहाँ वेदव्यास जी कहते है कि वेदों में जीवात्मा का ब्रह्म से भेद बताया गया है, इसलिए ब्रह्म जीव नहीं है, अपितु उससे अधिक है। वेदान्त २.१.२३ ‘अश्मादिवच्च तदनुपपत्तिः॥’ अर्थात् “तथा (जड) पत्थर आदि की भाँति (अल्पज्ञ) जीवात्मा भी ब्रह्म से भिन्न है, इसलिए जीवात्मा और परमात्मा का अत्यंत अभेद नहीं सिद्ध होता।” अतः वेदान्त (ब्रह्मसूत्र) भी यही कह रहा है भेद है, दोनों एक नहीं है। अतएव, उपर्युक्त प्रमाणों से यह कहना उचित नहीं है कि आत्मा ही ब्रह्म है। वह ब्रह्म सर्वशक्तिमान, सर्वसमर्थ, सृष्टिकर्ता, कर्म-फल दाता, पालक, सच्चिदानंद है। आत्मा इसके ठीक विपरीत है।

आत्मा ब्रह्म है, इस पर अलग-अलग मार्ग के संतों की अलग-अलग व्याख्या है। यदि विचार करे तो कुल तीन प्रकार से इसकी व्याख्या होगी। १. आत्मा ही ब्रह्म है और जो वेदों में ये कहा गया की ब्रह्म और आत्मा में भेद है उसे हम नहीं मानते। २. इसी का विपरीत (आत्मा ब्रह्म नहीं है और जो कहा गया की आत्मा ब्रह्म है उसे हम नहीं मानते) और ३. यह की वेदों की ये दोनों बातें सही है। इसमें से पहले और दूसरे प्रकार के विचार पर बहुत व्याख्या हुई है। लेकिन, चूँकि दोनों ही विपरीत बातें वेदों में है, यानी आत्मा का ब्रह्म भेद और अभेद दोनों ही वेदों में है। इसलिए किसी एक को अस्वीकार करना उचित नहीं है। अतः दोनों बातें कैसे सही है? अब उसे विस्तार से समझते है।

एक ही जाति के दो लोगों में भेद और अभेद दोनों होते है। जैसे पिता और पुत्र एक ही जाती (मनुष्य जाति) से हैं, लेकिन उनमें कुछ भेद है तो कुछ अभेद। जब पिता और पुत्र के कुछ स्वभाव एक से दीखते है, तो लोग कहते है की ये पिता को पड़ा है, यानी अभेद है, दोनों एक है। लेकिन अनेकों स्वभाव पिता से नहीं भी मिलते है, यानी भेद है, दोनों एक नहीं है। इसी प्रकार आत्मा और परमात्मा एक ही जाती से हैं अर्थात् दोनों चेतन हैं, इसलिए एक कह दिया जाता है। लेकिन वो एक होते हुए भी उनमें अनेक अंतर भी है अर्थात् वो सर्व्वापक, सर्वशक्तिमान, कर्म-फल दाता है और हम शरीर में व्याप्त, अल्पशक्तिमन और कर्म-फल भोक्ता हैं, इसलिए भेद है ऐसा कहा जाता है।

दूसरे उदाहरण से समझे - कारण और कार्य अभिन्न होता है, क्योंकि वह उसकी ही शक्ति का विस्तार है। लेकिन उसी का विस्तार होने से उसका अलग अस्तित्व भी होता है, इसलिए भिन्नता भी है। जैसे मिट्टी और घड़ा एक ही तो है, क्योंकि मिट्टी से घड़ा बना है। लेकिन अलग भी है, जो मिट्टी में गुण है वो घड़े में नहीं है। बस इसी प्रकार वेदों में ये दो विपरीत सी बातें दिखाई पड़ती है। तो, आत्मा और ब्रह्म एक है ऐसा भी कहना सही है और एक नहीं है ऐसा भी कहना सही है। लेकिन दोनों सिद्धांत रूप से, मूल रूप से, “एक ही है” ऐसा कहना उचित नहीं है। इसीलिए वेदान्त में वेदव्यास जी ने वेदान्त २.१.२२-२३ में कहा कि आत्मा और ब्रह्म एक नहीं है।

तो चुकी वेद, वेदान्त, गीता आदि में दोनों तरह के प्रमाण मिलते है इसलिए दोनों प्रमाण सही है। और ये तर्क से समझ भी लिया। दोनों में कोई विरोधाभास नहीं है, बस दोनों के कहने के भाव में अंतर है। आत्मा ब्रह्म है क्योंकि उसी का अंश है, उसी के जैसे नित्य, चेतन है। लेकिन आत्मा ब्रह्म मूल रूप से नहीं है क्योंकि ब्रह्म तो सर्वशक्तिमान है, सर्वव्यापक है, संसार को बनाने वाला है और हम आत्मा ऐसे नहीं है, अतः आत्मा या जीव ब्रह्म नहीं है। 

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