क्या आत्मा ही परमात्मा (ब्रह्म, भगवान) है? - वेद, गीता अनुसार

क्या आत्मा ही भगवान है?

‘अहम् ब्रह्मास्मि’ - यह महावाक्य है। यह वेदों में वर्णित है जिसका अर्थ है कि आत्मा ब्रह्म है। लेकिन, क्या आत्मा वास्तव में ब्रह्म है? क्योंकि वेद, गीता, पुराण आदि कुछ और ही कहते है। इसके आलावा, कुछ लोग आत्मा को परमात्मा और भगवान भी कहते हैं। इसलिए, तर्क और वेद, गीता आदि के प्रमाणों से, यह समझने की कोशिश करेंगे कि क्या आत्मा वास्तव में ब्रह्म (परमात्मा, भगवान) ही है?

क्या आत्मा ब्रह्म है?

आत्मा ब्रह्म है? इसे समझने से पहले यह समझना होगा है कि ब्रह्म क्या है? सनातन धर्म के कई संप्रदाय है, उनमें ब्रह्म के बारे में अलग-अलग विचार हैं। कुछ संप्रदाय कुछ कहते है तो कुछ संप्रदाय कुछ। लेकिन, ब्रह्म के बारे में, सभी संप्रदाय दो बातों पर सहमत हैं - पहला ब्रह्म सर्वव्यापक है और दूसरा ब्रह्म निराकार है। तो अब, इन्हीं दोनों पर, आत्मा की तुलना ब्रह्म के साथ करके देखते हैं।

१. ब्रह्म सर्वव्यापक है :- अगर आत्मा ही ब्रह्म है, तो आत्मा भी सर्वव्यापक होगा। किन्तु, ऐसा है नहीं।क्योंकि, 'आत्मा का आकार क्या है, शरीराकार या अणु या सर्वव्यापक?’ उस लेख में, तर्क द्वारा तथा वेद, वेदान्त और गीता के अनुसार हमने यह जाना कि आत्मा न तो सर्वव्यापक और न ही शरीर के आकर का है। इसलिए, आत्मा सर्वव्यापक नहीं है।

२. ब्रह्म निराकार है :- अगर आत्मा ही ब्रह्म है, तो आत्मा भी निराकार होगा। किन्तु, ऐसा है नहीं। क्योंकि, ‘आत्मा का आकार कितना?’ उस लेख में, तर्क द्वारा तथा वेद के अनुसार हमने यह जाना कि आत्मा अणु आकर का है। इसलिए आत्मा निराकार नहीं है। अतएव, आत्मा को ब्रह्म मानना इस दृष्टि से उचित नहीं है।

वैसे तो ब्रह्म, परमात्मा और भगवान एक हैं। इन्हें एक ही समझना चाहिए। परमतत्व अपने को इन तीन रूपों में स्वयं को प्रकट करते है, उनके गुण इन रूपों में अलग-अलग प्रकट होते है। इसीलिए, लोग इन्हें अलग-अलग समझते है। ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ (यानि आत्मा ब्रह्म है) से शुरू हुआ विवाद ‘आत्मा परमात्मा है’ और ‘आत्मा भगवान है’ तक पहुँच गया है।

क्या आत्मा परमात्मा है?

सनातन धर्म में परमात्मा को ब्रह्माण्ड का पालन करता कहा गया है, वे हमारे द्वारा किये गए कर्मों का फल देते है। जैसे गीता १५.१७ ने कहा ‘परमात्मेत्युदाहृतः। यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥’ अर्थात् “जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा इस प्रकार कहा जाता है।"

तो यदि आत्मा को परमात्मा मानेंगे, तो आत्मा को कर्म-फल दाता और ब्रह्माण्ड का पालन करता स्वीकार करना पड़ेगा। किन्तु, क्या ऐसा है? नहीं! हम (आत्मा) कर्म-फल दाता नहीं है, हमें १० दिन पहले किये गए कर्मों का ज्ञात नहीं है, फिर कर्म-फल दाता कहलाने की बात तो बड़ी दूर है। और फिर हम (आत्मा) ब्रह्माण्ड का पालन करता है, यह सोचना भी मूर्खता पूर्ण बात है। इसलिए आत्मा को परमात्मा कहना इस दृष्टि से उचित नहीं है।

क्या आत्मा भगवान है?

आत्मा को भगवान कहना भी मूर्खता है। क्योंकि भगवान सचिदानंद सवरूप, सर्वसमर्थ, सर्वज्ञ, आत्मा और माया के स्वामी है। इसके विपरीत आत्मा भगवान के आधीन, अल्पज्ञ, असमर्थ आदि है। इसलिए, आत्मा को भगवान कहना इस दृष्टि से उचित नहीं है।

अब तक जो कुछ कहा है उसके बाद भी, कुछ लोग कह सकते हैं कि आत्मा ब्रह्म (भगवान, परमात्मा) है यह वेदों में और गीता में लिखा गया है। अतः उन्हें वेदों को फिर से पढ़ना चाहिए। क्योंकि वेद और गीता में यह भी लिखा है -

गीता ३.४२ ‘इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः। मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥’ अर्थात् “इन्द्रियों से परे मन, मन से परे बुद्धि, बुद्धि से परे आत्मा और आत्मा से परे भगवान है।” अतः आत्मा से परे भगवान को आत्मा कहना कहा तक उचित है।

गीता ४.५ “श्रीभगवानुवाच- बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप॥” अर्थात् “श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूँ, किन्तु तू (उन्हें) नहीं जानता।” तो भगवान हमारे सभी कर्म को जानते है किन्तु हम नहीं? ऐसा क्यों? अगर आत्मा भगवान है तो उसे सब कुछ ज्ञात होना चाहिए।

कृष्ण यजुर्वेद के कठोपनिषद् २.३.८ ने कहा ‘यं ज्ञात्वा मुच्यते’ अर्थात् “जिसको (भगवान को) जानकार जीवात्मा मुक्त हो जाता है।” तैत्तिरीयोपनिषद् २.१.१ ने कहा ‘ब्रह्मविदाप्नोति परम्।’ अर्थात् “ब्रह्मज्ञानी ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।” हम ब्रह्म को प्राप्त करते है, यानी ब्रह्म कोई और ही तत्व है और आत्मा कोई और ही तत्व है।

श्वेताश्वतरोपनिषद् १.८ ‘अनीशश्चात्मा बध्यते भोक्तृभावाज् ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः॥’ अर्थात् “जीवात्मा इस जगत के विषयों का भोक्ता बना रहने के कारण, प्रकृति (माया) के आधीन असमर्थ हो, इसमें बँध जाता है और उस परमेश्वर को जानकर (पूर्ण रूप से भगवान को वही जनता है जो उन्हें प्राप्त किया हो) सब प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।” यानी मनुष्य माया के आधीन है और असमर्थ है इस माया से मुक्त होने में। लेकिन भगवान या ब्रह्म या परमात्मा के विषय में ये इसके विपरीत कहा जाता है - वो सर्वसमर्थ है, वो माया शक्ति के स्वामी है।

गीता ७.१४ ‘दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥’ अर्थात् “यह दैवी (अलौकिक) त्रिगुणमयी (सात्विक, राजस और तामस गुणमयी) मेरी माया बड़ी दुस्तर (इससे पार पाना बड़ा कठिन) है। जो केवल मुझको ही निरन्तर भजते हैं, वे इस माया को तर जाते हैं अर्थात् संसार से तर जाते हैं।” तो आत्मा स्वयं की शक्ति से मुक्ति भी नहीं हो सकता, उसे भगवान की शरण में जाना पड़ता है।

अतएव, इस दृष्टि से यह कहना उचित नहीं है कि आत्मा ब्रह्म है। वह परमतत्व - सर्वशक्तिमान, सर्वसमर्थ, सृष्टिकर्ता, कर्म-फल दाता, पालक, सच्चिदानंद है। आत्मा इसके ठीक विपरीत है। लेकिन, फिर कहीं-कहीं वेद में ये क्यों लिखा गया है कि आत्मा ब्रह्म है। वह किस इस दृष्टि से सही है। इस विषय में आगे आने वाले लेखों में जानेंगे।

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