कर्म, अकर्म और विकर्म सिद्धांत क्या है?

कर्म, अकर्म और विकर्म सिद्धांत

इस संसार में जितने भी मनुष्य है - चाहे वो संत हो या आम लोग हो, सभी कर्म करते है। लेकिन, कुछ लोगों को कर्म करते हुए भी उसका फल उनको नहीं मिलता और कुछ लोगों को कर्मों का फल भोगना पड़ता है। इस सिद्धांत को कर्म-अकर्म सिद्धांत कहते है। इस सिद्धांत को समझने से पहले यह समझ ले की कर्म क्या है? - यह हमने पहले ही अपने लेख में बता दिया है कि मूल रूप से ‘कर्म’ को ‘क्रिया’ कहते है। यानी शरीर, वाणी और मन से की गयी क्रिया कर्म है। एवं इसी ‘क्रिया’ रूपी ‘कर्म’ को ध्यान में रखते हुए शास्त्र, वेद, गीता, पुराण आदि ने कर्म-अकर्म, शुभ-अशुभ कर्म, कर्मयोग, कर्म-बंधन आदि की व्याख्या की है। अस्तु, श्री कृष्ण ने गीता में कर्म, अकर्म और विकर्म के सिद्धांतों का महत्व बताते हुए कहा -

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः॥
- गीता ४.१७

अर्थात् :- (श्री कृष्ण कहते है -) कर्म के तत्त्व को भी जानना चाहिए और अकर्म के तत्त्व को भी जानना चाहिए तथा विकर्म के तत्त्व को भी जानना चाहिए, क्योंकि कर्म की गति गहन है।

अस्तु, जैसा की हमने पहले ही कहा था कि कर्म को अलग-अलग प्रकरण में परिभाषित करने से उसकी परिभाषा में अंतर हो जाता है। उसी प्रकार कर्म, अकर्म और विकर्म के प्रकरण में कर्म की परिभाषा दूसरी है।

अकर्म क्या है?

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्॥
- गीता ४.१८

अर्थात् :- (श्री कृष्ण कहते है -) जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और अकर्म में कर्म देखता है वह मनुष्यों में बुद्धिमान् है योगी है एवं सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला है।

यानी मूल रूप से जो कर्म की परिभाषा है कि क्रिया कर्म है। तो इन क्रियाओं (कर्मों) को करते हुए आसक्त नहीं होना तथा 'मैं आसक्त नहीं हूँ उन कर्मों में' ऐसा सोचने को भी कर्म मानना - यह कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखना है। इसको विस्तार से बताते हुए इसी अध्याय में आगे श्री कृष्ण ने कहा -

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः॥
- गीता ४.२०

अर्थात् :- (श्री कृष्ण कहते है -) जो मनुष्य समस्त कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संसार के आश्रय रहित हो गया हो और नित्य तृप्त हो, वह कर्मों में प्रवृत्त होते हुए भी (वास्तव में) कुछ भी नहीं करता है।

अतएव ऐसे लोग, जो अपने कर्मों में और उनके फल में आसक्ति नहीं रखते हैं, हमेशा संतुष्ट रहते हैं और बाहरी चीजों पर निर्भर नहीं होते हैं। ऐसे लोग, सब कुछ करने के बावजूद, वे कुछ भी नहीं करते हैं क्योंकि यह कर्म नहीं अकर्म है।

इस बात को और स्पष्ट रूप से कहे, तो फलेचछा, ममता और आसक्ति से रहित होकर केवल दूसरों के हित के लिये किया गया कर्म ‘अकर्म’ बन जाता है। दूसरे शब्दों में इसे परोपकार कहा जाता है।

कर्म क्या है? (कर्म, अकर्म और विकर्म प्रकरण में)

तो कर्म क्या है? अकर्म का विपरीत। यानी ऐसे लोग, जो अपने कर्मों में और उनके फल में आसक्ति रखते हैं, हमेशा असंतुष्ट रहते हैं और बाहरी चीजों पर निर्भर होते हैं। ऐसे लोग, जो कुछ करते है, वे सब कर्म हैं, क्योंकि इस प्रकार के कर्म का फल मिलता है।

इस बात को और स्पष्ट रूप से कहे, तो सकामभाव से की गई शास्त्रविहित क्रिया ‘कर्म’ है। ध्यान रहे, शास्त्रविहित कर्म! यानी जो शास्त्र के अनुसार करने योग्य कर्म बताये गए है।

विकर्म क्या है?

यह तो सभी जानते है की कामना से कर्म होते हैं। वही कामना जब शास्त्रविहित हो तो कर्म कहलाता है। परन्तु, अगर कामना अधिक बढ़ जाती है, तब विकर्म (पाप कर्म) कहलाते हैं। जैसे युद्ध करना शास्त्र के अनुसार कर्म है। परन्तु, वह युद्ध विकर्म तब कहलाने लगता है, जब स्वयं की कामना इतनी बढ़ जाती है कि धर्म-अधर्म क्या है वो भूल जाते है। उदाहरण के तौर पर - कौरवों की तरफ से किया जाने वाला युद्ध विकर्म था।

ध्यान दे - गीता के ४ अध्याय के १७ श्लोक में ही केवल भगवान ने कहा कि विकर्म का तत्त्व भी जानना चाहिये। परंतु उन्नीसवें तेईसवें श्लोक तक के प्रकरण में भगवान ने ‘विकर्म’ के विषय में कुछ कहा ही नहीं! फिर केवल इस श्लोक में ही विकर्म की बात क्यों कही?

इसका उत्तर यह है कि उन्नीसवें श्लोक से लेकर तेईसवें श्लोक तक के प्रकरण में भगवान ने मुख्य रूप से ‘कर्म में अकर्म’ की बात कही है, यानी सब कर्म अकर्म हो जाये अर्थात् कर्म करते हुए भी बंधन न हो यही बात समझने पर जोर दे रहे थे। 'विकर्म' कर्म के बहुत पास पड़ता है क्योंकि जिस कामना से ‘कर्म’ होते हैं, उसी कामना के अधिक बढ़ने पर ‘विकर्म’ होने लगते हैं। परंतु कामना नष्ट होने पर सब कर्म ‘अकर्म’ हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में कामना का नाश होने पर विकर्म होता ही नहीं; अतः विकर्म के बारे में बताने की जरूरत ही नहीं। इसलिए, श्री कृष्ण ने अकर्म के बारे में जानने पर जोर दिया।

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