किसी के बात का बुरा और अच्छा नहीं मानना चाहिए।

कैसे किसी के बातों का बुरा और अच्छा नहीं माने?

एक साधक(साधना करने वाले) को यह बात समझना चाहिए, कि हम किसी के बातों का बुरा और अच्छा दोनों नहीं माने। एक व्यक्ति ने हमको गाली दी! और हम लोग उनकी बात का बुरा मानते है। ये एक साधक को नहीं करना चाहिए। क्यो? इसलिए क्योंकि हमें ये समझना चाहिए की जो उस व्यक्ति ने गाली दिया है, वह इस शरीर को दिया है। और हम शरीर है ही नहीं! हम तो आत्मा है। तो फिर हम क्यों उसकी बात का बुरा माने! जैसे अगर कोई हमारे पड़ोसी को गाली देता है तो हम उसकी बात का बुरा नहीं मानते। अगर हमसे कोई पूछे की, "अमुक व्यक्ति ने आपको गाली दिया था।" तो हम कहते है, "नहीं जी! हमको गाली नहीं दिया है, वो तो पड़ोसी को दिया है।"

अस्तु! हमें भी वैसे समझना चाहिए कि यह हमारा शरीर है (पड़ोसी की तरह), और हम जीव आत्मा है, किसी ने कुछ कहा है तो वह हम (मतलब जीवात्मा) मानकर कुछ नहीं बोल रहा है, वो हमे शरीर मानकर बोल रहा है। तो अगर हम अपने आप को आत्मा मान ले तो अगर कोई हमें अच्छा कहें या बुरा हमें कुछ नहीं एहशास होगा। शास्त्र, वेद कहते है, जब तक माया का अधिकार रहेगा तब तक काम क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि सब दोष रहेंगे। अर्थात जब तक हमें भगवान की प्राप्ति नहीं हो जाती, तब तक काम क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि सब दोष रहेंगे।

यह दोष संचित कर्म (संचित कर्म अनंत मात्रा का होता है। ये कर्मों का ढेर है! ये अनंत जन्मो का है और इसमें पाप-पुण्य दोनो है।) के रूप में रहते है। (अधिक जानने के लिए इस पृष्ठ पर जाये क्या प्रारब्ध (भाग्य) अनुसार ही हमारे कर्म होते हैं? कर्म के प्रकार।) तो अनंत पाप हमने किये है और वह संचित कर्म के रूप में हमारे साथ है।

एक व्यक्ति ने आपको इनमे से एक बात बोला, की "तुम बड़े स्वार्थ हो, कामी हो, क्रोधी हो, लोभी हो, मोही हो, अहंकरी हो" और हम कहते है, "क्या कहा! तुम्हारी जबान काट देंगे।" आप जरा सोचिये! जब यह बात सत्य है की हम काम क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि सब दोषो से ग्रस्त है, तब हम क्यों लोगों के बातों का बुरा मानते है। उसने तो इन्ही बातों में से एक बोल दिया। कोई आपको बोले "आप गधे है" ये बात भी सही तो है, हम लोग के अनंत जन्म हो चुके है और अनंत बार हम कुत्ता बिल्ली गधे बन चुके है। तो वो व्यक्ति जो बोला वो सही तो है!

एक उदाहरण से समझिये, जैसे किसी कांस्टेबल को एक व्यक्ति बोलता है, "आप कांस्टेबल है क्या?", तो वो कहता है, "हाँ मैं कांस्टेबल हूँ" और दूसरे से पूछता है "आप डीजी है क्या?" तो वो कहता है "हाँ मैं डीजी हूँ।" तो देखिये जो व्यक्ति जो है, वह बात कोई कहें तो किसी को बुरी नहीं लगती तो फिर हमें क्यों बुरा मानते है किसी के बातों का? उस व्यक्ति ने सही तो बोला है। परन्तु हम क्या करते है, "देखो जी उसने हमें ४२० लोभी कह दिया" अब हम उस बात का चिंतन मनन कीर्तन सब करने लगते है। अब सोचिये इससे कुछ लाभ तो हो नहीं रहा, बल्कि नुकसान हो रहा है। तो अपना नुकसान क्यों कर रहे है। वो व्यक्ति! बोल के चला गया, और हम यह सोचे जा रहे है।

चलो मान लेते है की आत्मा नाम की कोई चीज नहीं होती हम शरीर ही है। तो भी हमे बुरा मानना नहीं चाहिए। क्योंकि, किसी ने कहा "आप कुत्ते है!" अब आप सोचिये "मैं कुत्ता तो हूँ नहीं " फिर आप कहेंगे उस व्यक्ति से "आप गलत बोल रहे है मैं तो मानव हूँ।" परन्तु हम ऐसा न करते हुए क्या करते है! आप आप जानते है।

अगर हम महापुरुष हो जाये तो भी बुरा महसूस नहीं करना चाहिए, उस वक्त हमें यह सोचना चाहिए कि "इसको दिखाई नहीं दे रहा है कि हम महापुरुष है, ये माया बध्य है इसलिए ये माया से परे वालों को नहीं समझ सकता।" तो कोई बात अगर गलत भी कहें, तो भी बुरा मत मनो, किसी व्यक्ति को कोई कहें "तुम हाथी हो" तो आप कहेंगे "मैं हाथी नहीं हूँ, आपकी आँख ख़राब हो गयी है, वैद्य (डॉक्टर) को दिखाओ, मैं आदमी हूँ! हाथी नहीं!"

परन्तु! अगर आप ये कहते है की, "हम न स्वार्थ है, न कामी है, न क्रोधी है, न लोभी है, न मोही है, न अहंकरी है, और तब भी एक व्यक्ति ने कहा।" तब तो हमें बात बुरी लगनी ही नहीं चाहिए, जैसे मान लेते आप एक डॉक्टर है और आप को एक व्यक्ति बोले "इंजीनियर साहब जरा सुनना। अरे! इंजीनियर साहब! काले कोट वाले! जरा सुनना" तो आप कहेंगे "भाई मैं वैद्य (डॉक्टर) हूँ! इंजीनियर नहीं! लगता है आपको वैद्य की जरूरत है आप वैद्य के पास जाये"

किसी भी तरीके से सोचिये क्यों आप बुरा महसूस करते है? आप अपना नुकसान करते है! क्रोध में जलते है, आत्मा का भी नुकसान और शरीर का भी नुकसान। इसलिए हमें किसी के बातों का बुरा और अच्छा दोनों नहीं मानना चाहिए।
अवश्य पढ़े ❛क्रोध क्यों आता है? क्या क्रोध पर नियंत्रण कर सकते हैं?❜

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