श्री कृष्ण नाम की महिमा - पुराण अनुसार।

कृष्ण नाम की महिमा। - ब्रह्मवैवर्त, ब्रह्माण्ड, स्कन्द, पद्म और भागवत पुराण अनुसार।

हमने आपको अबतक भगवान के नाम की महिमा। हरि नाम संकीर्तन कैसे करना चाहिये? और भगवान का नाम लेने की विधि क्या है? इन सभी लेख में विस्तार से सबकुछ बताया है। जिसका सार यह है कि भगवान ने अपने नाम में अपनी समस्त शक्तियाँ रख दी है। उनके नाम का जप और नाम संकीर्तन में भगवान का स्मरण करना जरूरी है।

वैसे तो राम और कृष्ण एक ही है इसलिए जो राम नाम की महिमा है वही कृष्ण नाम की महिमा है। परन्तु हम अल्पज्ञों को उनमें अंतर लगता है। अगर कोई ज्ञानी गहन विचार करके कृष्ण या राम नाम की महिमा की तुलना करे तो एक ही अर्थ मिलता है। अस्तु, तो श्री कृष्ण नाम की महिमा मैं क्या, ब्रह्मा क्या, स्वयं भगवान भी नहीं कर सकते। चुकी भगवान की सभी चीजें अनंत है अर्थात्‌ भगवान का नाम, गुण, लीला, शक्तियाँ इत्यादि सब अनंत-अनंत मात्रा की है इसलिए भगवान स्वयं भी अगर नाम की महिमा करने बैठे। तो अनंत काल तक नाम की महिमा गाते रहे, लेकिन नाम की महिमा ख़तम नहीं होगी। कृष्ण नाम की महिमा ब्रह्मवैवर्त पुराण, भागवत पुराण, पद्म पुराण और भी अन्य पुराण में मिलती है।

ब्रह्मवैवर्त पुराण अनुसार कृष्ण नाम की महिमा और कृष्ण का अर्थ

कृषिरुत्कृष्टवचनो णश्च सद्भक्तिवाचकः।
अश्चापि दातृवचनः कृष्णं तेन विदुर्बुधाः॥३२॥
कृषिश्च परमानन्दे णश्च तद्दास्यकर्मणि।
तयोर्दाता च यो देवस्तेन कृष्णः प्रकीर्तितः॥३३॥
- ब्रह्मवैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्म खण्ड अध्याय १११ . ३२-३३

संक्षिप्त भावार्थ:- (श्रीराधा जी द्वारा ‘कृष्ण’ नाम की व्याख्या। श्रीराधा जी कहती है -) ‘कृषि’ उत्कृष्टवाची, ‘ण’ सद्भक्तिवाचक और ‘अ’ दातृवाचक है; इसी से विद्वानलोग उन्हें ‘कृष्ण’ कहते हैं। परमानन्द के अर्थ में ‘कृषि’ और उनके दास्य कर्म में ‘ण’ का प्रयोग होता है। उन दोनों के दाता जो देवता हैं, उन्हें ‘कृष्ण’ कहा जाता है।

कोटिजन्मार्जिते पापे कृषिःक्लेशे च वर्तते।
भक्तानां णश्च निर्वाणे तेन कृष्णः प्रकीर्तितः॥३४ ॥
सहस्रनाम्ना: दिव्यानां त्रिरावृत्त्या चयत्फलम्।
एकावृत्त्या तु कृष्णस्य तत्फलं लभते नरः॥३५॥
कृष्णनाम्नः परं नाम न भूतं न भविष्यति।
सर्वेभ्यश्च परं नाम कृष्णेति वैदिका विदुः॥३६॥
कृष्ण कृष्णोति हे गोपि यस्तं स्मरति नित्यशः।
जलं भित्त्वा यथा पद्मं नरकादुद्धरेच्च सः॥३७॥
- ब्रह्मवैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्म खण्ड अध्याय १११ . ३४-३७

संक्षिप्तभावार्थ:- (श्रीराधा जी कहती है -) भक्तों के कोटिजन्मार्जित पापों और क्लेशों में ‘कृषि’ का तथा उनके नाश में ‘ण’ का व्यवहार होता है; इसी कारण वे ‘कृष्ण’ कहे जाते हैं। सहस्र दिव्य नामों की तीन आवृत्ति करने से जो फल प्राप्त होता है; वह फल ‘कृष्ण’ नाम की एक आवृत्ति से ही मनुष्य को सुलभ हो जाता है। वैदिकों का कथन है कि ‘कृष्ण’ नाम से बढ़कर दूसरा नाम न हुआ है, न होगा। ‘कृष्ण’ नाम से सभी नामों से परे है। हे गोपी! जो मनुष्य ‘कृष्ण-कृष्ण’ यों कहते हुए नित्य उनका स्मरण करता है; उसका उसी प्रकार नरक से उद्धार हो जाता है, जैसे कमल जल का भेदन करके ऊपर निकल आता है।

कृष्णेति मङ्गलं नाम यस्य वाचि प्रवर्तते।
भस्मीभवन्ति सद्यस्तु महापातककोटयः॥३८॥
अश्वमेधसहस्रेभ्यः फलं कृष्णजपस्य च।
वरं तेभ्यः पुनर्जन्म नातो भक्तपुनर्भवः॥३९॥
सर्वेषामपि यज्ञानां लक्षाणि च व्रतानि।
तीर्थस्नानानि सर्वाणि तपांस्यनशनानि च॥४०॥
वेदपाठसहस्राणि प्रादक्षिण्यं भुवः शतम्।
कृष्णनामजपस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥४१॥
- ब्रह्मवैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्म खण्ड अध्याय १११ . ३८-४१

संक्षिप्तभावार्थ:- (श्रीराधा जी कहती है -) ‘कृष्ण’ ऐसा मंगल नाम जिसकी वाणी में वर्तमान रहता है, उसके करोड़ों महापातक तुरंत ही भस्म हो जाते हैं। ‘कृष्ण’ नाम-जप का फल सहस्रों अश्वमेध-यज्ञों के फल से भी श्रेष्ठ है; क्योंकि उनसे पुनर्जन्म की प्राप्ति होती है; परंतु नाम-जप से भक्त आवागमन से मुक्त हो जाता है। समस्त यज्ञ, लाखों व्रत तीर्थस्नान, सभी प्रकार के तप, उपवास, सहस्रों वेदपाठ, सैकड़ों बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा- ये सभी इस ‘कृष्णनाम’- जप की सोलहवीं कला की समानता नहीं कर सकते।

पद्म और भागवत पुराण अनुसार कृष्ण नाम की महिमा

तीर्थानां च परं तीर्थं कृष्णनाम महर्षयः।
तीर्थीकुर्वंति जगतीं गृहीतं कृष्णनाम यैः॥१७॥
-पद्म पुराण खण्ड ३ (स्वर्गखण्ड) अध्यायः ५०

संक्षिप्त भावार्थ:- (सूतजी कहते है -) जिन्होंने श्रीकृष्ण-नाम को अपनाया है, वे पृथ्वी को तीर्थ बना देते हैं। इसलिए श्रेष्ठ मुनिजन इससे बढ़कर पावन वस्तु और कुछ नहीं मानते।

अर्थात् जिन्होंने कृष्ण नाम को अपना लिया मीरा इत्यादि जैसे। वे इस पृथ्वी को तीर्थ बना देते है। जो श्रेष्ठ ज्ञानी है वे हरि भक्ति मांगते है। क्योंकि हरि भक्ति से बढ़कर कोई और वस्तु नहीं है। एक बार राम जी ने काकभुसुंडि से कहा -

काकभसुंडि मागु बर अति प्रसन्न मोहि जानि।
अनिमादिक सिधि अपर रिधि मोच्छ सकल सुख खानि॥
ग्यान बिबेक बिरति बिग्याना। मुनि दुर्लभ गुन जे जग नाना॥
आजु देउँ सब संसय नाहीं। मागु जो तोहि भाव मन माहीं॥
- श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड

भावार्थ:- (श्रीरामजी ने काकभुसुंडिजी से कहा -) हे काकभुशुण्डि! तू मुझे अत्यंत प्रसन्न जानकर वर माँग। अणिमा आदि अष्ट सिद्धियाँ, दूसरी ऋद्धियाँ तथा संपूर्ण सुखों की खान मोक्ष, ज्ञान, विवेक, वैराग्य, विज्ञान, (तत्त्वज्ञान) और वे अनेकों गुण जो जगत्‌ में मुनियों के लिए भी दुर्लभ हैं, ये सब मैं आज तुझे दूँगा, इसमें संदेह नहीं। जो तेरे मन भावे, सो माँग ले।

परन्तु काकभुसुंडि इनमे से एक भी चीज नहीं मांगी। वे सोचने लगे कि प्रभु ने सब सुखों के देने की बात कही, यह तो सत्य है, पर अपनी भक्ति देने की बात नहीं कही। भक्ति से रहित सब गुण और सब सुख वैसे ही (फीके) हैं जैसे नमक के बिना बहुत प्रकार के भोजन के पदार्थ। भजन से रहित सुख किस काम के? तब काकभुसुंडि जी ने कहा -

अबिरल भगति बिसुद्ध तव श्रुति पुरान जो गाव।
जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव॥
भगत कल्पतरू प्रनत हित कृपा सिंधु सुखधाम।
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम॥
- श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड

भावार्थ:- (काकभुसुंडिजी ने श्रीरामजी से कहा -) आपकी जिस अविरल (प्रगाढ़) एवं विशुद्ध (अनन्य निष्काम) भक्ति को श्रुति और पुराण गाते हैं, जिसे योगीश्वर मुनि खोजते हैं और प्रभु की कृपा से कोई विरला ही जिसे पाता है। हे भक्तों के (मन इच्छित फल देने वाले) कल्पवृक्ष! हे शरणागत के हितकारी! हे कृपासागर! हे सुखधान श्री रामजी! दया करके मुझे अपनी वही भक्ति दीजिए।

अतएव भगवान की भक्ति ही सबसे श्रेष्ठ है।

प्रायश्चित्तानि सर्वाणि तपः कर्मात्मकनि वै।
यानि तेषामशेषाणा कृष्णानुस्मरणं परम्॥१३॥
- पद्म पुराण खण्ड ६ उत्तरखण्ड अध्यायः ७२

भावार्थ:- ब्रह्माजी बोले - (नारद!) तपस्या के रूप में किया जाने वाला जो सम्पूर्ण प्रायश्चित है, उन सबकी अपेक्षा श्रीकृष्ण का निरंतर स्मरण श्रेष्ठ है।

कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान्गुणः।
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गः परं व्रजेत्॥
- भागवत १२.३.५१

भावार्थ:- परीक्षित! यो तो कलियुग दोषों का खजाना है परन्तु इसमें एक बहुत बड़ा गुण है वह गुण यही है कि कलियुग में केवल भगवान श्रीकृष्ण का संकीर्तन करने मात्र से ही सारी आसक्तियाँ छूट जाती है, और परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।

स्कन्द और ब्रह्माण्ड पुराण अनुसार कृष्ण नाम की महिमा और कृष्ण का अर्थ

गोविंदमाधवमुकुंद हरेमुरारे शंभो शिवेश शशिशेखर शूलपाणे।
दामोदराच्युत जनार्दन वासुदेव त्याज्या भटाय इति संततमामनंति॥९९॥
- स्कन्द पुराण खण्ड ४ (काशीखण्ड) अध्याय ८

भावार्थ:- (यमराज नाममहिमाके विषय में कहते हैं-) जो गोविन्द, माधव, मुकुन्द, हरे, मुरारे, शम्भो, शिव, ईशान, चन्द्रशेखर, शूलपाणि, दामोदर, अच्युत, जनार्दन, वासुदेव - इस प्रकार सदा उच्चारण करते हैं, उनको मेरे प्रिय दूतो! तुम दूर से ही त्याग देना।

महस्रनाम्नां पुण्यानां त्रिरावृत्त्या तु यत्फलम्।
एकावृत्त्या तु कृष्णस्य नामैकं तत्प्रयच्छति॥९॥
- ब्रह्माण्ड पुराण मध्यभाग अध्यायः ३६

भावार्थ:- विष्णु के तीन हजार पवित्र नाम (विष्णुसहस्त्रनाम) जप के द्वारा प्राप्त परिणाम (पुण्य), केवल एक बार कृष्ण के पवित्र नाम जप के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

पुराणों ने कृष्ण नाम की महिमा बहुत की है। परन्तु अनेक जगहों पर कृष्ण नाम का प्रेम पूर्वक मन से जप या कीर्तन करने को भी कहा है। विस्तार से जानने के लिए पढ़ने - हरि नाम संकीर्तन कैसे करना चाहिये? मन या इन्द्रियों से - पुराण और रामायण के अनुसार। जो लोग कृष्ण नाम और राम नाम की महिमा में भेद भाव करते है वो नामापराध कर रहे है। दोनों नामों का फल एक है। अगर विश्वास नहीं हो रहा हो? तो अवश्य पढ़ें - क्या राम नाम और कृष्ण नाम महिमा में अंतर है? - प्रमाण द्वारा

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