कैसे हिरण्यकशिपु ने किया अपने पुत्र प्रह्लाद को मारने का प्रयास। - नरसिंह कथा

 हिरण्यकशिपु ने किया अपने पुत्र प्रह्लाद को मारने का प्रयास।

नारद जी ने हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु को गर्भावस्था में ही अपने आश्रम लेके आये। और नारद जी ने भक्ति का उपदेश दिया। कयाधु नारद जी के पास तबतक रही जबतक हिरण्यकशिपु ने तपस्या ख़त्म नहीं कर ली।हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद, वो भगवान विष्णु का जन्म जात भक्त था और यातना एवं प्रताड़ना के बावजूद वो विष्णु की भक्ति करते रहे।

प्रह्लाद को गुरुकुल भेजा

एक बार हिरण्यकशिपु प्रह्लाद को बुलाया और बड़े प्यार से पूछा "बेटा तुम्हे क्या अच्छा लगता है।" प्रह्लाद ने ऐसा उत्तर दिया की हिरण्यकशिपु को अपने भाई हिरण्याक्ष के वध से भी अधिक दुःख हुआ। प्रह्लाद ने मुस्कुराते हुए कहा "पिताजी हमको सबसे अच्छा लगता की जंगल में जाकर के भगवान की निरंतर उपासना करू" यह सुन कर हिरण्यकशिपु क्रोध में अँधा हो गया और गुरु के पुत्रों को बुलाया, शुक्राचार्य के दो पुत्र शंद और अमर्क थे। हिरण्यकशिपु ने कहा गुरु पुत्रों से की प्रह्लाद को लेजाओ ये हमारी आँख के सामने न रहे, और इसको पढ़ाओ समझाओ, साम दाम भेद जो राजाओं का जो लक्ष है उसका ज्ञान कराओ।

गुरुकुल व घर पर प्रह्लाद का आचरण

प्रह्लाद पढ़ने गए। उनको पढ़ना क्या था, वह तो गर्भ में ही सिद्ध महापुरुष थे। लेकिन फिर भी लीला में एक्टिंग में जो गुरु पढ़ाते है वह प्रह्लाद बेईमानी से सुना देते थे। लेकिन भागवत ७.४.३७ कहती है "कृष्णग्रहगृहीतात्मा न वेद जगदीदृशम्" की प्रह्लाद को छोटी आयु में कृष्ण (भगवान) रूपी ग्रह लग गया था। इसलिए वह जगत को कुछ समझते ही नहीं थे, संसार भी कोई तत्व है, यह समझते ही नहीं थे। मां हो भाई हो बेटा हो पति हो पत्नी हो ऐश्वर्य हो संसार का, यह सब उनको शून्य लगता था। प्रह्लाद को सदा श्री हरि के प्रेम में विभोर रहते थे। भागवत ७.४.४० "क्वचित्तद्भावनायुक्तस्तन्मयोऽनुचकार ह" कभी-कभी इतने विभोर हो जाते थे श्री हरि प्रेम में, कि वह भूल जाते थे कि मैं प्रह्लाद हूँ। अपने आप को भगवान विष्णु मान ले लेते थे और वैसा ही व्यवहार करने लगते थे।

बाद में जब प्रह्लाद गुरुकुल से वापस आये। तो हिरण्यकशिपु को लगा की गुरु पुत्रों ने अब समझा पढ़ा दिया है और अब प्रह्लाद को बोद्ध भी हो गया होगा। इसलिए हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को छमा कर दिया। फिर एक दिन प्रह्लाद को हिरण्यकशिपु ने बड़े प्यार से गोद में बैठाकर प्यार से पुछा "अब बताओ तुम्हें क्या प्रिय लगता है, तुमने क्या पढ़ा है? क्या समझा है अबतक गुरु पुत्रों से?" प्रह्लाद ने उत्तर दिया भागवत ६.५.२३

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥

भावार्थ - श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेद। इसे नवधा भक्ति कहते है। यह नवधा भक्ती को समस्त वैष्णव आचार्य ने माना है। तो प्रह्लाद जी ने कहा कि पिताजी! भगवान को पहले अपना सबकुछ समर्पित करदे, फिर उसके बाद नवधा भक्ति करे, मैंने इतना ज्ञान प्राप्त किया है।" तो प्रह्लाद ने हिरण्यकशिपु को नवधा भक्ति सुना दिया। कि हमको यह अच्छी लगती है पिताजी।"

पिता द्वारा हत्या का आदेश

अब तो हिरण्यकशिपु आग बबूला हो गया। उसने अपने सेना पतियों से कहा की प्रह्लाद को किसी भी प्रकार से मार डालो, अब इसमें सुधार नहीं होगा। हिरण्‍यकशिपु ने अपने दैत्‍यों को सेनापतियों को आज्ञा दी- "जाओ, तुरंत इस दुष्‍ट को किसी भी प्रकार मार डालो।" तब असुरों ने पूरे बल से अपने अस्‍त्र-शस्‍त्र बार-बार चलाये, किन्तु प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ। उनको तनिक भी चोट नहीं लगी। उनके शरीर से छूते ही वे हथियार टुकडे-टुकडे हो जाते थे।

अब हिरण्‍यकशिपु को आश्‍चर्य होने लगा। उसने अनेक उपाय किया। हाथी के सामने हाथ-पैर बांधकर प्रह्लाद को डाला, पर हाथी ने उन्‍हें सूंड से उठाकर मस्‍तक पर बैठा लिया। कोठरी में उन्‍हें बंद किया गया और वहाँ सर्प छोडे गये, पर वे सर्प प्रह्लाद के पास पहुँचकर केंचुओं के समान सीधे हो गये। जंगली सिंह जब वहाँ छोड़ दिया गया, लेकिन वो पालतू कुत्‍ते के समान पूंछ हिलाकर प्रह्लाद के पास जाकर बैठ गया। प्रह्लाद को भोजन में विष दिया गया, लेकिन उसका कोई प्रभाव नहीं हुआ।

अनेक दिनों तक भोजन और जल की एक बूँद तक प्रह्लाद को नहीं दी गयी। पर प्रह्लाद ज्‍यों-के-त्‍यों बने रहे। उन्‍हें पर्वत से गिराया गया लेकिन जब वो गिरे तो पृथ्वी फूलों से भर गयी। पत्‍थर बांधकर समुद्र में फैंका गया। दोनों बार वे सकुशल भगवन नाम का कीर्तन करते नगर में लौट आये। जितने भी मार डालने की पक्रिया थी सब किया लेकिन प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ।

एक दिन गुरुं पुत्रो ने कहा की महाराज! प्रह्लाद का तो संस्कार ही विचित्र है। कितना भी इसको समझाओ कुछ मानता ही नहीं है। हम तो हार गए। चाहें आप हमको जो दण्ड दीजिये। लेकिन हिरण्‍यकशिपु ने कहा की एक बार और कोशिश करो समझानें की। फिर गुरु पुत्र लेगये और राजनीत पढ़ने लगे। तो पढ़ते समय प्रह्लाद कुछ बोलते नहीं थे और जो सबक पढ़ाया जाता था उसे सुना देते थे। किन्तु प्रह्लाद उस सिद्धांत को मानते नहीं थे। एक दिन गुरु पुत्र लोग संसारी गृहस्ती कार्य से बाहर गए, तब प्रहलाद ने अपने सहपाठी को उपदेश दिया। वो उपदेश बहुत महत्पूर्ण है। अवश्य पढ़ें प्रह्लाद ने असुर बालकों को महत्वपूर्ण उपदेश दिया।

एक बार हिरण्‍यकशिपु ने अपनी बहन होलिका को बुलाया। उसने तप से एक वस्‍त्र अग्नि प्राप्त कर लिया था जो जलता नहीं था। होलिका वह वस्‍त्र ओढ़कर प्रह्लाद को गोद में लेकर लकड़ियों के ढेर पर बैठ गयी। दैत्यों ने उसमे आग लगा दी गयी। पता नहीं, कैसे देह से उसका वस्‍त्र उड़ गया। होलिका तो भस्‍म हो गयी। किन्तु फिर प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ।

एक बार गुरुपुत्र शण्‍ड तथा अमर्क ने प्रह्लाद को मारने के लिये कृत्‍या (एक शक्ति है जो ब्रम्हाण में किसी को भी मार सकती है) को बुलाया। परंतु उस कृत्‍या ने गुरुपुत्रों को ही उल्टे मार दिया। किन्तु प्रह्लाद ने भगवान की प्रार्थना करके गुरुपुत्रों को फिर से जीवित कर दिया।

ज्ञान की बात

जबतक किसी का अंतिम समय नहीं आजाता। अर्थात भगवान सबका जन्म और मरण का समय निर्धारित करते हैं उसके कर्म अनुसार। तो जिसका जब अंत लिखा है उसी समय इसका अंत होता है। अगर किसी को १० बजे मरना है तो उसके पहले कोई भी उसे मार नहीं सकता। इसी बात को भगवान ने इस लीला में माध्यम से बताने की कोशिश की है। इस बात पर हमें विश्वाश करना चाहिए और निडर होकर अपना जीवन जीना चाहिए।

अवश्य पढ़ें आगे की कथा भक्त प्रह्लाद कौन थे? इनके जन्म और जीवन की कथा।

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