भगवान निराकार और साकार दोनों है? - वेदों के प्रमाणों द्वारा।
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हमने अबतक आपको वेद के अनेक प्रमाणों द्वारा यह बताया है कि भगवान निराकार है - वेदों के प्रमाणों द्वारा। और भगवान साकार है - वेदों के प्रमाणों द्वारा। तो अब मन में यह शंका होती है की क्या भगवान निराकार और साकार दोनों है? अगर है तो कैसे? क्या वेदों में कोई प्रमाण है? इन सभी प्रश्नों का उत्तर वेद के द्वारा देंगे। वेदों के उत्तर भाग और अंतिम भाग को उपनिषद् से जानन जाता है। यह ध्यान रहे की उपनिषद् वैदिक वाङ्मय के अभिन्न भाग हैं, अतएव यह वेद का ही अंश है।
उपर्युक्त प्रश्नों का उत्तर निम्नलिखित वेद मन्त्रों द्वारा कुछ इस प्रकार है -
य एकोऽवर्णो बहुधा शक्तियोगाद् वरणाननेकान् निहितार्थो दधाति।
विचैति चान्ते विश्वमादौ च देवः स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु॥
- श्वेताश्वतरोपनिषद् ४.१
भावार्थ:- जो रंग रूप आदि से रहित होकर भी छिपे हुए प्रयोजनवाला होने के कारण विविध शक्तियों के संबंध से सृष्टि के आदि में अनेक रूप-रंग धारण कर लेता है तथा अन्त में यह सम्पूर्ण विश्व (जिसमें) विलीन भी हो जाता है, वह परमदेव (परमात्मा) एक (अद्वितीय) है, वह हम लोगों को शुभ बुद्धि से संयुक्त करें।
अर्थात् जो भगवान निराकार स्वरूप में रंग-रूप आदि से रहित होकर भी सृष्टि के आदि में किसी रहस्यपूर्ण प्रयोजन के कारण अपनी स्वरूपभूत नाना प्रकार की शक्तियों के संबंध से अनेक रूप-रंग आदि धारण करते है (अर्थात् साकार रूप धारण करते है)।
द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च मर्त्यं चामृतं च
स्थितं च यच्च सच्च त्यच्च॥
- बृहदारण्यकोपनिषद् २.३.१
भावार्थ:- ब्रह्म के दो रूप हैं - मूर्त और अमूर्त, मर्त्य और अमृत, स्थित और यत् (चर) तथा सत् और त्यत्।
अर्थात् वो भगवान के ही दो स्वरूप है एक निराकार (अमूर्त) और दूसरा साकार (मूर्त)। प्रश्न - उस भगवान के दर्शन कैसे हो सकते है? उत्तर -
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥
- मुण्डकोपनिषद् ३.२.३ और कठोपनिषद् १.२.२३ में भी इसी प्रकार है।
भावार्थ:- यह परब्रह्म परमात्मा न तो प्रवचन से, न बुद्धि से और न बहुत सुनने से ही प्राप्त हो सकता है। यह जिसको स्वीकार कर लेता है, उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है (क्योंकि) यह परमात्मा उसके लिए अपने यथार्थ स्वरूप को प्रकट कर देता है।
अणोरणीयान्महतो महीयानात्माऽस्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्।
तमक्रतुः पश्यति वीतशोको धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः॥
- कठोपनिषद् १.२.२०
भावार्थ:- इस जीवात्मा के हृदयरूप गुफा में रहने वाला परमात्मा सूक्ष्म से अतिसूक्ष्म और महान से भी महान है। परमात्मा की उस महिमा को कामनारहित और चिन्तानरहित (कोई विरला साधक) सर्वाधार परब्रह्म परमेश्वर की कृपा से ही देख पता है।
अर्थात् जो ब्रह्म अब तक निराकार है, उसको उसकी कृपा से देखा जा सकता है। प्रश्न - भगवान को हम क्यों नहीं देख पाते? उत्तर -
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥
- ईशोपनिषद् १५
भावार्थ :- हे सबका भरण-पोषण करने वाले परमेश्वर सत्य स्वरूप आप सर्वेश्रर का श्रीमुख ज्योतिर्मय सूर्यमण्डलस्वरूप पात्र से ढका हुआ है। आपकी भक्तिरूप सत्यधर्म का अनुष्ठान करने वाले मुझको अपने दर्शन करने के लिए उस आवरण को आप हटा लीजिये।
अर्थात् कोई आवरण है जिसको हटाने पर भगवान के स्वरूप को देखा जा सकता है। इस वेद मन्त्र में साधक भगवान के दर्शन के लिए जिस आवरण को हटाने को कहता है, वह आवरण योग माया का है। गीता ७.२५ 'नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः' और कठोपनिषद् भी इस बात की पुष्टि करता है -
तं दुर्दर्शं गूढमनुप्रविष्टं गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम्।
अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति॥
- कठोपनिषद् १.२.१२
भावार्थ :- जो योगमाया के पर्दे में छिपा हुआ सर्व्याप्ति सबके हृदयरूप गुफा में स्थित (अतएव) संसाररूप गहन वन में रहने वाला सनातन है, ऐसे उस कठिनता से देखे जाने वाले परमात्मदेव को शुद्ध बुद्धियुक्त साधक अध्यात्मयोग की प्राप्ति के द्वारा समझकर हर्ष और शोक को त्याग देता है।
एष सर्वेषु भूतेषु गूढोऽऽत्मा न प्रकाशते।
दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः॥
- कठोपनिषद् १.३.१२
भावार्थ :- यह सबका आत्मरूप परमपुरुष समस्त प्राणियों में रहता हुआ भी माया के परदे में छिपा रहने के कारण सबके प्रत्यक्ष नहीं होता। केवल सूक्ष्मतत्वों को समझने वाले पुरुषों द्वारा ही अति सूक्ष्म तीक्ष्ण बुद्धि से देखा जा सकता है।
उपर्युक्त वेद के प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि भगवान के ही दो स्वरूप है - निराकार (अमूर्त) और दूसरा साकार (मूर्त), जिसे न तो प्रवचन से, न बुद्धि से और न बहुत सुनने से जानन जा सकता है क्योंकि वो योग माया के पर्दे में छिपा हुआ है। जिस पर भगवान कृपा करके योग माया के पर्दे को हटा देता है वो भगवान के दिव्य स्वरूप को देख लेते है।
अगर अभी भगवान अवतार लेकर आये तो भी हम अपने इस चर्म चक्षु से उनको माया के आधीन कोई व्यक्ति समझेंगे। लेकिन जिन जीव ने भगवान की शरणागति कर ली है उन पर से भगवान योगमाया का पर्दा हटा देते है, जिस के फल स्वरूप जिस अवतारी भगवान को वो माया के आधीन देखता था, अब उन्ही भगवान को उनके दिव्य स्वरूप में देखता है।