इन्द्र यज्ञ नहीं करने का कारण? कृष्ण गोवर्धन लीला - भागवत पुराण

इन्द्र यज्ञ - कृष्ण गोवर्धन लीला

श्रीमद्भागवत महापुराण में श्रीकृष्ण की गोवर्धन लीला का उल्लेख विस्तार से मिलता है। वो लीला कुछ इस प्रकार है-

श्रीशुक उवाच -
भगवानपि तत्रैव बलदेवेन संयुतः।
अपश्यन्निवसन्गोपानिन्द्रयागकृतोद्यमान्॥१॥
तदभिज्ञोऽपि भगवान्सर्वात्मा सर्वदर्शनः।
प्रश्रयावनतोऽपृच्छद्वृद्धान्नन्दपुरोगमान्॥२॥
कथ्यतां मे पितः कोऽयं सम्भ्रमो व उपागतः।
किं फलं कस्य वोद्देशः केन वा साध्यते मखः॥३॥
- भागवत १०.२४.१-३

भावार्थः - श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण बलराम जी के साथ वृन्दावन में रहकर अनेकों प्रकार की लीलाएँ कर रहे थे। उन्होंने एक दिन देखा कि वहाँ के सब गोप इन्द्र-यज्ञ करने की तैयारी कर रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण सबके अन्तर्यामी और सर्वज्ञ हैं। उनसे कोई बात छिपी नहीं थी, वे सब जानते थे। फिर भी विनयावनत होकर उन्होंने नन्दबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपों ने पूछा - ‘पिताजी! आप लोगों के सामने यह कौन-सा बड़ा भारी काम, कौन-सा उत्सव आ पहुँचा है? इसका फल क्या है? किस उद्देश्य से, कौन लोग, किन साधनों के द्वारा यह यज्ञ किया करते हैं? पिताजी! आप मुझे यह अवश्य बतलाइये।’

ज्ञत्वाज्ञात्वा च कर्माणि जनोऽयमनुतिष्ठति।
विदुषः कर्मसिद्धिः स्याद्यथा नाविदुषो भवेत्॥६॥
तत्र तावत्क्रियायोगो भवतां किं विचारितः।
अथ वा लौकिकस्तन्मे पृच्छतः साधु भण्यताम्॥७॥
- भागवत १०.२४.६-७

भावार्थः - (श्री कृष्ण कहते है -) ‘यह संसारी मनुष्य समझे-बेसमझे अनेकों प्रकार के कर्मों का अनुष्ठान करता है। उनमें से समझ-बुझकर करने वाले पुरुषों के कर्म जैसे सफल होते हैं, वैसे बेसमझ के नहीं। अतः इस समय आप लोग जो क्रियायोग करने जा रहे हैं, वह सुहृदों के साथ विचारित-शास्त्रसम्मत है अथवा लौकिक ही है - मैं यह सब जानना चाहता हूँ, आप कृपा करके स्पष्ट रूप से बतलाइये।’

अर्थात् संसारी मनुष्य जो अनेक प्रकार कर्म करते है, उनमें जो मनुष्य समझ-बुझकर कर्म (वेद शास्त्र सम्मत) करते है उसका फल तो उन्हें मिलता है। परन्तु जो कर्म बेसमझ कर करते है, उसका फल व्यर्थ हो जाता है। अर्थात् जो फल चाहते है उस बेसमझ कर्म का वो फल नहीं मिलता क्योंकि वो कर्म ही गलत था और अगर फल मिलता भी है तो समझ-बुझकर किये गए कर्म से बहुत ही कम। जैसे लोग परंपरागत कर्मो को करते है, जिसका कोई उल्लेख वेदों शास्त्रों में भी नहीं मिलता और न ही तर्क उक्त है, ऐसे कर्म का फल नहीं मिलता क्योंकि यह मनुष्य ने अपनी मन की कल्पना, भ्रम या भय अनुसार रचा है।

नन्दबाबा का तर्क इन्द्र पूजा पर

श्रीनन्द उवाच -
पर्जन्यो भगवानिन्द्रो मेघास्तस्यात्ममूर्तयः।
तेऽभिवर्षन्ति भूतानां प्रीणनं जीवनं पयः॥८॥
तं तात वयमन्ये च वार्मुचां पतिमीश्वरम्।
द्रव्यैस्तद्रेतसा सिद्धैर्यजन्ते क्रतुभिर्नराः॥९॥
तच्छेषेणोपजीवन्ति त्रिवर्गफलहेतवे।
पुंसां पुरुषकाराणां पर्जन्यः फलभावनः॥१०॥
य एनं विसृजेद्धर्मं परम्पर्यागतं नरः।
कामाद्द्वेषाद्भयाल्लोभात्स वै नाप्नोति शोभनम्॥११॥
- भागवत १०.२४.८-११

भावार्थः - नन्दबाबा ने कहा - ‘बेटा! भगवान इन्द्र वर्षा करने वाले मेघों के स्वामी हैं। ये मेघ उन्हीं के अपने रूप हैं। वे समस्त प्राणियों को तृप्त करने वाला एवं जीवनदान करने वाल जल बरसाते हैं। मेरे प्यारे पुत्र! हम और दूसरे लोग भी उन्हीं मेघपति भगवान इन्द्र की यज्ञों द्वारा पूजा किया करते हैं। जिन सामग्रियों से यज्ञ होता है, वे भी उनके बरसाये हुए शक्तिशाली जल से ही उत्पन्न होती हैं। उनका यज्ञ करने के बाद जो कुछ बच रहता है, उसी अन्न से हम सब मनुष्य अर्थ, धर्म और कामरूप त्रिवर्ग की सिद्धि के लिये अपना जीवन-निर्वाह करते हैं। मनुष्यों के खेती आदि प्रयत्नों के फल देने वाले इन्द्र ही हैं। यह धर्म हमारी कुल परम्परा से चला आया है। जो मनुष्य काम, लोभ, भय अथवा द्वेषवश ऐसे परम्परागत धर्म को छोड़ देता है, उसका कभी मंगल नहीं होता।’

अर्थात् नन्दबाबा का तर्क इन्द्र पूजा पर यह है कि ‘इन्द्र वर्षा करने वाले मेघों के स्वामी हैं, वर्षा से ही प्राणियों को तृप्ति एवं जीवनदान मिलता है। क्योंकि वर्षा से यानि जल से खेती आदि के कार्य होते है और उससे अन्न आदि उत्पन्न होते है। अन्न आदि का सेवन और उसको बेचकर लोग अर्थ (धन) कमाते है। अर्थात् जीवन-निर्वाह में वर्षा का अधिक महत्व है। इस वर्षा का इतना उपकार है हम पर इसलिए वर्षा के स्वामी के लिए साल में एक बार यज्ञ करना ही चाहिए। और यह परम्परागत चला आ रहा है और इस परम्परा को न निभाएंगे तो कुछ अमंगल हो सकता है। इसलिए हम यह यज्ञ करते है।’


श्रीकृष्ण का तर्क इन्द्र पूजा नहीं करने पर

श्रीभगवानुवाच -
कर्मणा जायते जन्तुः कर्मणैव प्रलीयते।
सुखं दुःखं भयं क्षेमं कर्मणैवाभिपद्यते॥१३॥
- भागवत १०.२४.१३

भावार्थः - श्री भगवान ने कहा - ‘पिताजी! प्राणी अपने कर्म के अनुसार ही पैदा होता है और कर्म से ही मर जाता है। उसे उसके कर्म के अनुसार ही सुख-दुःख, भय और मंगल के निमित्तों की प्राप्ति होती है।’

अर्थात् प्राणी को सुख-दुःख, भय आदि जो कुछ है वो उसके कर्म का फल है। कुछ वर्तमान कर्म का फल है और कुछ अपने भाग्य (पूर्व जन्म के कर्म का) फल है। इसलिए अगर कोई हमें दुःख मिल रहा है या सुख मिल रहा है उसका कारण हमारा कर्म है। इसमें देवताओं का कुछ कमाल नहीं है।

किमिन्द्रेणेह भूतानां स्वस्वकर्मानुवर्तिनाम्।
अनीशेनान्यथा कर्तुं स्वभावविहितं नृणाम्॥१५॥
स्वभावतन्त्रो हि जनः स्वभावमनुवर्तते।
स्वभावस्थमिदं सर्वं सदेवासुरमानुषम्॥१६॥
देहानुच्चावचाञ्जन्तुः प्राप्योत्सृजति कर्मणा।
शत्रुर्मित्रमुदासीनः कर्मैव गुरुरीश्वरः॥१७॥
- भागवत १०.२४.१५-१७

भावार्थः - (श्री कृष्ण ने कहा -) ‘जब सब प्राणी अपने-अपने कर्मों का ही फल भोग रहे हैं, तब हमें इन्द्र की क्या आवश्यकता है? पिताजी! जब वे पूर्वसंस्कार के अनुसार प्राप्त होने वाले मनुष्यों के कर्म-फल को बदल ही नहीं सकते - तब उनसे प्रयोजन? मनुष्य अपने स्वभाव (पूर्व-संस्कारो) के अधीन है। वह उसी का अनुसरण करता है। यहाँ तक कि देवता, असुर, मनुष्य आदि को लिये हुए यह सारा जगत स्वभाव में ही स्थित है। जीव अपने कर्मों के अनुसार उत्तम और अधम शरीरों को ग्रहण करता और छोड़ता रहता है। अपने कर्मों के अनुसार ही ‘यह शत्रु है, यह मित्र है, यह उदासीन है’ - ऐसा व्यवहार करता है।’

अर्थात् सब प्राणी अपने-अपने कर्मों का ही फल भोग रहे हैं। अपने कर्मों के अनुसार उत्तम और अधम शरीरों (८४ लाख शरीर) को ग्रहण करता और छोड़ता है। अपने कर्मों के कारण उसका स्वभाव बनता है और स्वभाव के अनुसार ही वो व्यवहार करता है। इन्द्र पूर्वसंस्कार (पूर्व कर्म) के अनुसार प्राप्त होने वाले मनुष्यों के कर्म-फल को बदल ही नहीं सकते, इसलिए इन्द्र किसी का बुरा भला नहीं कर सकते। तो जब इन्द्र हमारा बुरा भला नहीं कर सकते, तो यह यज्ञ करने से वो हमारा भला करेगें यह सिधांत गलत है। अतएव यह यज्ञ करना व्यर्थ है।

तस्मात्सम्पूजयेत्कर्म स्वभावस्थः स्वकर्मकृत्।
अञ्जसा येन वर्तेत तदेवास्य हि दैवतम्॥१८॥
आजीव्यैकतरं भावं यस्त्वन्यमुपजीवति।
न तस्माद्विन्दते क्षेमं जारान्नार्यसती यथा॥१९॥
- भागवत १०.२४.१८-१९

भावार्थः - (श्री कृष्ण ने कहा -) ‘इसलिये पिताजी! मनुष्य को चाहिये कि पूर्व-संस्कारों के अनुसार अपने वर्ण तथा आश्रम के अनुकूल धर्मों का पालन करता हुआ कर्म का ही आदर करे। जिसके द्वारा मनुष्य की जीविका सुगमता से चलती है, वही उसका इष्टदेव होता है। जैसे अपने विवाहित पति को छोड़कर जार पति का सेवन करने वाली व्यभिचारिणी स्त्री कभी शान्ति लाभ नहीं करती, वैसे ही जो मनुष्य अपनी आजीविका चलाने वाले एक देवता को छोड़कर किसी दूसरे की उपासना करते हैं, उससे उन्हें कभी सुख नहीं मिलता।’

अर्थात् भगवान श्री कृष्ण कहते है कि ‘मनुष्य को चाहिये कि पूर्व-संस्कारों (पूर्व जन्म के कर्म) के अनुसार जो वर्ण तथा आश्रम में है उसी के अनुकूल धर्मों का पालन करता हुआ कर्म का ही आदर करे। इष्टदेव उसे कहते है जिसके द्वारा मनुष्य की जीविका सुगमता से चलती है। तो क्योंकि मनुष्य के कर्म अनुसार उसे फल मिलता है, इसलिए मनुष्य का इष्टदेव उसका कर्म हुआ क्योंकि कर्म से फल मिलता है अगर वो कर्म नहीं करे तो फल नहीं मिलेगा। इसलिए आजीविका चलाने वाले एक देवता (कर्म रूपी देवता) को छोड़कर किसी दूसरे की उपासना करते हैं, उससे उन्हें कभी सुख नहीं मिलता।’

वर्तेत ब्रह्मणा विप्रो राजन्यो रक्षया भुवः।
वैश्यस्तु वार्तया जीवेच्छूद्रस्तु द्विजसेवया॥२०॥
कृषिवाणिज्यगोरक्षा कुसीदं तूर्यमुच्यते।
वार्ता चतुर्विधा तत्र वयं गोवृत्तयोऽनिशम्॥२१॥
- भागवत १०.२४.२०-२१

भावार्थः - (श्री कृष्ण ने कहा -) ‘ब्राह्मण वेदों के अध्ययन-अध्यापन से, क्षत्रिय पृथ्वी पालन से, वैश्य वार्तावृति से और शूद्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा से अपनी जीविका का निर्वाह करें। वैश्यों की वार्तावृत्ति चार प्रकार की है - कृषि, वाणिज्य, गोरक्षा और ब्याज लेना। हम लोग उन चारों में से एक केवल गोपालन ही सदा से करते आये हैं।’

सत्त्वं रजस्तम इति स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः।
रजसा चोदिता मेघा वर्षन्त्यम्बूनि सर्वतः।
प्रजास्तैरेव सिध्यन्ति महेन्द्रः किं करिष्यति॥२३॥
- भागवत १०.२४.२२-२३

भावार्थः - (श्री कृष्ण ने कहा -) ‘पिताजी! इस संसार स्थिति, उत्पत्ति और अन्त में के कारण क्रमशः सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण हैं। उसी रजोगुण की प्रेरणा से मेघगण सब कहीं जल बरसाते हैं। उसी से अन्न और अन्न से ही सब जीवों की जीविका चलती है। इसमें भला इन्द्र का क्या लेना-देना है? वह भला, क्या कर सकता है?’

अर्थात् श्री कृष्ण ने यह सिद्ध किया कि इन्द्र वर्षा करने वाले मेघों के स्वामी हैं। परन्तु इन्द्र का हमारे कर्म-फल में कोई योगदान नहीं है। इसलिए अगर हमें कोई दुःख या सुख मिलता है, किसी भी कारण से, उसका कारण हमारा कर्म है। इन्द्र या देवता चाह कर भी हमारे कर्म-फल को नहीं बदल सकते। वर्षा का होना माया के रजोगुण की प्रेरणा मात्र है। इसलिए इन्द्र की पूजा करना व्यर्थ है।

इसके आगे की लीला - गोवर्धन पूजा करने का कारण? कृष्ण गोवर्धन लीला - भागवत पुराण

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