हिरण्यकशिपु या हिरण्यकश्यप कौन था? - नरसिंह कथा
इतिहास में हिरण्यकशिपु के नाम के विषय में मतभेद है। कुछ स्थानों पर उसे हिरण्यकश्यप कहा गया है और कुछ स्थानों पर हिरण्यकशिपु। लेकिन हमारा मानना है की उसका नाम हिरण्यकशिपु है। हिरण्यकश्यप लोग इस लिए बुलाते है क्योंकि वो कश्यप ऋषि का पुत्र है। जय और विजय अपने पहले जन्म में हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष के रूप में जन्मे।
हिरण्यकशिपु एक असुर था जिसकी कथा श्रीमदभागवतपुराण और विष्णु पुराण में भी आती है। उसका वध नृसिंह अवतारी भगवान विष्णु द्वारा किया गया। यह हिरण्यकरण नामक स्थान का राजा था जो अभी वर्तमान में भारत देश के राजस्थान राज्य मेे स्थित है, जिसे हिण्डौन के नाम से अब जाना जाता है।
परिवार और विष्णु से दुश्मनी
कश्यप ऋषि की अनेक पत्निया थी, उनमे से एक दिति थी। दिति के दो पुत्र थे हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष। सत्य युग में विष्णु जी ने वराहावतार लेकर हिरण्याक्ष को मर उसके अत्याचार से मुक्त किया। लेकिन उसका भाई हिरण्यकशिपु जो दैत्यों का महाबलशाली राजा था। वो विष्णु से अपने भाई (हिरण्याक्ष) का बदला लेना चाहता था। इसलिए हिरण्यकशिपु ने गुरु शुक्राचार्य से परामर्श किया। गुरु शुक्राचार्य ने कहा की उनके बताये गए तपस्या को अगर तुम कर लेते हो तो ३ लोकों (मृत्युलोक, स्वर्ग लोक, नर्क लोक) में तुमसे बड़ा कोई शक्तिशाली नहीं होगा। ऐसा जानकर हिरण्यकशिपु कठोर तपस्या करने लगा। उसने ऐसी कठोर तपस्या किया, जो अभीतक किसी ने ऐसी तपस्या नहीं की। देवताओं में इस वजह से खलबली मच गयी। इसलिए वो ब्रह्मा से आग्रह करने गए की तपश्या पूर्ण होने से पहले आप चलेजाये, नहीं तो उससे बड़ा कोई शक्तिशाली नहीं होगा। इसलिए ब्रह्मा जी हिरण्यकशिपु के तपश्या पूर्ण होने से पहले ही उसके पास गए।
हिरण्यकशिपु का वर माँगना और अत्याचार
हिरण्यकशिपु ने वर माँगा कि "कोई भी मनुष्य, स्त्री, देवता, पशु-पक्षी, जलचर इत्यादि, न ही दिन में और न ही रात्रि में, न घर के बाहर और न घर के भीतर, किसी भी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र से उसे मार नहीं पायेगा।" यह वरदान प्राप्त कर हिरण्यकशिपु को यह भ्रम हो गया की अब वो अमर हो गया है। अपनी अमरता के उन्माद में सब पर अनेकों प्रकार से अत्याचार करने लगा और अपनी बलपूर्वक पूजा करवाने लगा। वह चाहता था कि सब लोग उसे ही भगवान मानें और उसकी पूजा करें। उसने अपने राज्य में विष्णु की पूजा को वर्जित कर दिया।
हिरण्यकशिपु का पुत्र
हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद था, वो भगवान विष्णु का जन्म जात भक्त था और यातना एवं प्रताड़ना के बावजूद वे विष्णु की भक्ति करते रहे। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद से भगवना विष्णु की भक्ति करने से मना किया परन्तु वो नहीं माना। अधिक जानने के लिए पढ़े कैसे हिरण्यकशिपु ने किया अपने पुत्र प्रह्लाद को मारने का प्रयास।
नरसिंह (नर + सिंह) अवतार लेना
इस प्रकार वह कई वर्षों तक सबको त्रस्त करता रहा। और अपने पुत्र को कई प्रकार से मारने की कोशिश की। सभी देवता भगवान विष्णु की शरण में गये। तब भगवान विष्णु ने आधा शरीर मनुष्य (नर) के जैसा तथा आधा सिंह (शेर) के समान बनाकर 'नरसिंह विग्रह' धारण किया। अंत में पुत्र प्रह्लाद से अत्यंत कुपित होकर हिरण्यकशिपु बोला- "मैं त्रिलोकों का नाथ हूँ। मेरे सिवा कोई अन्य ईश्वर है तो वह कहाँ है?" प्रह्लाद ने उत्तर दिया - "ईश्वर सर्वव्यापी हैं। वे सर्वत्र विराजमान हैं"। हिरण्यकशिपु गरज उठा, उसने कहा कि- "क्या तेरा विष्णु महल के इस स्तंभ में भी हैं?" प्रह्लाद जी बोले - "हाँ, इस स्तंभ में भी भगवान का वास है पुत्र के उत्तर को सुन हिरण्यकशिपु ने मुट्टी बनाकर जोर से स्तंभ (खंभे) पर प्रहार किया। खंभे में दरार पड गयी। उसके भीतर से भगवान नरसिंह (नर + सिंह) के रूप में प्रकट हुए।
हिरण्यकशिपु की मृत्यु
भगवान विष्णु ने हिरण्यकशिपु को उसके वरदान को याद दिलाते हुए कहा कि "देख! यह सायं काल का समय है, दिन और रात नहीं। देख! मैं न तो नर पुरुष न देवता न पशु-पक्षी हूँ। मैं नरसिंह (नर + सिंह) हूँ। देख! यह राजमहल की देहली है, जो न ही भवन के भीतर, न ही बाहर हैं। और यह नाख़ून से जो कि अस्त्र-शस्त्र भी नहीं हैं, और जंघा पर रखकर मार रहा हूँ, जो न आसमान है और न ही पृथ्वी।" ऐसा कहने के बाद हिरण्यकशिपु को नाखूनों से उसके सीने को चीर कर उसका वध किया। निष्कलंक भक्त प्रह्लाद के मुख से निकले वचन सत्य सिद्ध हुए।
आप सोचिये, कितना बुद्धि लगा कर उसने वरदान माँगा। लेकिन भगवान के समान तो कोई बुद्धिमान और सर्वज्ञ नहीं हैं। इतना लम्बा चौड़ा वर मांगने के बाद भी भगवान ने उसे मारा। भला भगवान की बुद्धि के आगे कौन टिक सकता है। इसीलिए होली मनाई जाती है कि भगवान हर जगह है यह हम मने। अधिक जानने के लिए पढ़े हम होली क्यों मनाते है? होलिका-दहन क्यों किया जाता हैं?