जय विजय द्वारपाल - जो रावण, कुंभकर्ण, हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप बने।

जो रावण, कुंभकर्ण, हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप बने

जय और विजय दोनों भगवान विष्णु के नित्य पार्षद (द्वारपाल) व महापुरुष थे।

जय और विजय का सनकादिक को प्रवेश से रोकना।

एक बार सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार (ये चारों सनकादि ऋषि कहलाते हैं, ये सदा छोटे से बालक के रूप में रहते है और ब्रह्मा के पुत्र हैं) सम्पूर्ण लोकों में वो कही पर अपनी इच्छा से जा सकते हैं। एक बार उनके मन में भगवान विष्णु के दर्शन की इच्छा उत्पन्न हुई, इसलिए वो उनके बैकुण्ठ लोक में गये। बैकुण्ठ के द्वार पर जय और विजय नाम के दो द्वारपाल थे। जय और विजय ने सनकादिक ऋषियों को द्वार पर ही रोक लिया और भीतर जाने से मना करने लगे।

उनके इस प्रकार मना करने पर सनकादिक ऋषियों ने क्रोध में कहा, "अरे मूर्खों! हम तो भगवान विष्णु के भक्त हैं। हमारी गति कहीं भी नहीं रुकती है। हम विष्णु जी के दर्शन करना चाहते हैं। तुम हमें उनके दर्शनों से क्यों रोकते हो? तुम लोग तो भगवान की सेवा में रहते हो, तुम्हें तो उन्हीं के समान समदर्शी होना चाहिए। जैसा की भगवान का स्वभाव परम शान्तिमय है, तुम्हारा स्वभाव भी वैसा ही होना चाहिये। हमें भगवान विष्णु के दर्शन के लिये जाने दो।" सनकादि ऋषियों के इस प्रकार कहने पर भी जय और विजय ने उन्हें बैकुण्ठ के अन्दर जाने से रोकने लगे।

जय विजय को श्राप

'शाप' शब्द संस्कृत भाषा के 'श्राप' का अपभ्रंश है। जय और विजय के इस प्रकार रोकने पर सनकादिक ऋषियों ने क्रोधित होकर कहा, "भगवान विष्णु के समीप रहने के बाद भी तुम लोगों में अहंकार आ गया है और अहंकार का वास बैकुण्ठ में नहीं हो सकता। इसलिये हम तुम्हें शाप देते हैं कि तुम लोग मृत्युलोक में जाओं" उनके इस प्रकार शाप देने पर जय और विजय भयभीत होकर उनके चरणों में गिर पड़े और क्षमा माँगने लगे।

भगवान विष्णु स्वयं लक्ष्मी सहित का आगमन

सनकादिक से भेंट करने के लिए भगवान विष्णु व लक्ष्मी जी अपने समस्त पार्षदों (द्वारपाल) के साथ उनके स्वागत के लिय पधारे। भगवान विष्णु ने उनसे कहा, "हे मुनीश्वरों! ये जय और विजय मेरे पार्षद हैं। इन दोनों ने अहंकार में आकर आपका अपमान करके अपराध किया है। आप लोग मेरे प्रिय भक्त हैं और इन्होंने आपकी अवज्ञा करके मेरी भी अवज्ञा की है। इनको शाप देकर आपने उत्तम कार्य किया है। इन्होंने ने ब्रह्मणों का तिरस्कार किया है और उसे मैं अपना ही तिरस्कार मानता हूँ। मैं जय विजय की ओर से क्षमा याचना करता हूँ। सेवकों का अपराध होने पर भी संसार स्वामी का ही अपराध मानता है। इसलिए मैं आप लोगों की प्रसन्नता की भिक्षा चाहता हूँ।"

भगवान के इन मधुर वचनों से सनकादिक ऋषियों का क्रोध तुरंत शान्त हो गया। भगवान की इस उदारता से वे अनन्दित हुये और बोले, "आप धर्म की मर्यादा रखने के लिये ही ब्राह्मणों को इतना आदर देते हैं। हे नाथ! हमने इन निरपराध पार्षदों को क्रोध के वश में होकर शाप दे दिया है इसके लिये हम क्षमा चाहते हैं। आप उचित समझें तो इन द्वारपालों को क्षमा करके हमारे शाप से मुक्त कर सकते हैं।"

जय विजय को श्राप देने की सचाई

तब भगवान विष्णु ने कहा, "हे मुनिगणों! मै सर्वशक्तिमान होने के बाद भी ब्राह्मणों के वचन को असत्य नहीं करना चाहता क्योंकि इससे धर्म का उल्लंघन होता है। आपने जो शाप दिया है वह मेरी ही प्रेरणा से हुआ है।" तब सनकादिक ने कहा की जय और विजय के तीन जन्म लेने होंगे। तब ये श्राप से मुक्त हो जायेंगे।

यहाँ पर ध्यान देने की एक बात है की जो भक्त भगवान को पा लेता है उसे महापुरुष कहते है। उसपर माया (काम, क्रोध, लोभ, आदि) कभी भी फिर हावी नहीं हो सकते। इसलिए सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार व जय और विजय ये महापुरुष है, क्योंकि भगवान के लोक में केवल महापुरुष ही रहते है। इसलिए जय और विजय को अहंकार नहीं हुआ था और सनकादिक को भी क्रोध नहीं हुआ था। वो लीला कर रहे थे। इस बात को बाद में विष्णु जी ने भी कहा की जो कुछ हुआ वो मेरी ही प्रेरणा से हुआ।

तब जय और विजय के तीन जन्म हुए

जय और विजय अपने पहले जन्म में हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष के रूप में जन्मे। भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष का वध और नरसिंह वतार से हिरण्यकशिपु का वध किया। दूसरे जन्म में दोनों रावण और कुम्भकर्ण के रूप में जन्मे और राम अवतार के हाथों मारे गए। तीसरे जन्म में वो दोनों शिशुपाल और दंतवक्र के रूप में जन्मे और श्री कृष्ण अवतार के हाथों मारे गए और अंततः उन्हें शाप से मुक्ति मिल गई।

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