कर्मयोग से श्रेष्ठ केवलाभक्ति क्यों है? सूतजी के अनुसार - पद्म पुराण।

सूत जी के अनुसार कर्मयोग से श्रेष्ठ केवलाभक्ति क्यों है?- पद्म पुराण।

आपने अबतक कर्मयोग क्या है और कैसे किया जाता है? - पद्म पुराण अनुसार। लेख में कर्मयोग के बारे में पढ़ा होगा तथा यह भी ज्ञात हो गया होगा की कर्म योग से श्रेष्ठ भक्ति है। सूतजी ने इसी प्रकरण में आगे ऋषियों से कहते है कि कर्मयोग से श्रेष्ठ केवलाभक्ति (केवल भक्ति) है। केवलाभक्ति की के बारे में सूतजी संकेत देते हुए कहते है कि जिसने श्रीहरि की भक्ति कर ली, उनको कर्म-धर्म का पालन करने की क्या आवश्यकता है। सूतजी कहते है ऋषियों से -

रहस्यं तत्र वक्ष्यामि शृणुत द्विजसत्तमाः॥३॥
ये चात्र कथिता धर्मा वर्णाश्रमनिबंधनाः।
हरिभक्तिकलांशांश समाना न हि ते द्विजाः॥४॥
- पद्म पुराण खण्ड ३ (स्वर्गखण्ड) अध्याय ६१

संक्षिप्त भावार्थ:- सूतजी ने कहा - अब इस विषय में आप लोगों को रहस्य की बात बताता हूँ, सुनिये। यहाँ (जो व्यासजी ने बताया) वर्ण और आश्रम से सम्बन्ध रखने वाले जो धर्म बताये गये है, वे सब हरि-भक्ति की एक काल के अंश के भी समानता नहीं कर सकते। (अर्थात् वर्णआश्रम धर्म की बराबरी हरि-भक्ति से नहीं की जा सकती क्योंकि हरि-भक्ति वर्णआश्रम धर्म से श्रेठ है।)

हरिभक्तिसुधां पीत्वा उल्लंघ्यो भवति द्विजः।
किं जपैः श्रीहरेर्नाम गृहीतं यदि मानुषैः॥८॥
किं स्नानैर्विष्णुपादांबु मस्तके येन धार्यते।
किं यज्ञेन हरेः पादपद्मं येन धृतं हृदि॥९॥
किं दानेन हरेः कर्म सभायां वै प्रकाशितम्।
हरेर्गुणगणान्श्रुत्वा यः प्रहृष्येत्पुनः पुनः॥१०॥
समाधिना प्रहृष्टस्य सा गतिः कृष्णचेतसः।
- पद्म पुराण खण्ड ३ (स्वर्गखण्ड) अध्याय ६१

संक्षिप्त भावार्थ:- सूतजी ने कहा - यदि मनुष्यों ने श्रीहरि के नाम का आश्रय ग्रह कर लिया तो उन्हें अन्य मन्त्रों के जप की क्या आवश्यकता है। जो मस्तक पर श्री विष्णु का चरणोदक (वह पानी जो भगवान् के चरण धोकर प्राप्त हुआ हो) धारण करता है, उससे स्नान से क्या लेना है। जिसने अपने ह्रदय में श्रीहरि के चरण-कमलों को स्थापित कर लिया है, उसको यज्ञ से क्या प्रयोजन है। जिन्होंने सभा में भागवान की लीलाओं का वर्णन किया है, उन्हें दान की क्या आवश्कता है। जो श्रीहरि के गुणों का श्रवण करके बारंबार हर्षित होता है, भगवान् श्रीकृष्ण में चित्त (मन) लगाये रखने वाले उस भक्त पुरुष को वही गति प्राप्त होती है, जो समाधि में आनंद का अनुभव करने वाले योगी को मिलती है।

अर्थात् जो व्यक्ति परधर्म (भक्ति) को अपना लेता है उसे अपरधर्म (वर्णाश्रम धर्म) पालन करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। दूसरे शब्दों में कहते तो जब केवलाभक्ति (केवल भक्ति) करने से मुक्ति, प्रेम, भगवन सेवा इत्यादि मिल जाती है, तो किसी और धर्म को क्यों अपनाये? विस्तार से पढ़े धर्म क्या है? धर्म के प्रकार? परधर्म व अपरधर्म क्या है?

यत्किंचिद्विद्यते पुंसां तच्च कृष्णे समर्पयेत्।
कृष्णार्पितं कुशलदमन्यार्पितमसौख्यदम्॥९६॥
चक्षुर्भ्यां श्रीहरेरेव प्रतिमादिनिरूपणम्।
श्रोत्राभ्यां कलयेत्कृष्ण गुणनामान्यहर्निशम्॥९७॥
जिह्वया हरिपादांबु स्वादितव्यं विचक्षणैः।
घ्राणेनाघ्राय गोविंदपादाब्जतुलसीदलम्॥९८॥
त्वचा स्पृष्ट्वा हरेर्भक्तं मनसाध्याय तत्पदम्।
कृतार्थो जायते जंतुर्नात्र कार्या विचारणा॥९९॥
तन्मना हि भवेत्प्राज्ञस्तथा स्यात्तद्गताशयः।
तमेवांतेभ्येति लोको नात्र कार्या विचारणा॥१००॥
चेतसा चाप्यनुध्यातः स्वपदं यः प्रयच्छति।
नारायणमनाद्यंतं न तं सेवेत को जनः॥१०१॥
सतत नियतचित्तो विष्णुपादारविंदे वितरणमनुशक्ति प्रीतये तस्य कुर्यात्।
नतिमतिरतिमस्यांघ्रिद्वये संविदध्यात्स हि खलु नरलोके पूज्यतामाप्नुयाच्च॥१०२॥
- पद्म पुराण खण्ड ३ (स्वर्गखण्ड) अध्याय ६१

संक्षिप्त भावार्थ:- सूतजी ने कहा - मनुष्य के पास जो कुछ हो, उसे भगवान् श्रीकृष्ण को समर्पित कर दे। श्रीकृष्ण को समर्पित कि हुई वस्तु कल्याणदायनी होती है और किसी को (भगवान् को छोड़ कर) दी हुई वस्तु केवल दुःख देनेवाली होती है। नेत्रों से श्रीहरी की प्रतिमा आदि का दर्शन तथा कानों से श्रीकृष्ण के गुण और नामों का ही अहर्निश (हर समय) श्रवण करे। विद्वान् पुरुषों को अपनी जिह्वा से श्रीहरि के चरणोदक का आस्वादन करना चाहिये। नासिका से श्रीगोविन्द के चरणारविन्दों पर चढ़े हुए तुलसीदलको सूँघकर, त्वचा से हरिभक्त का स्पर्श कर तथा मन से भगवान् के चरणों का ध्यान करके जीव कृतार्थ को जाता है - इसलिए अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है। विद्वान् पुरुष भगवान् में ही मन लगाए और ह्रदय में उन्हीं की भावना करे, ऐसा करनेवाला मनुष्य अंत में भगवान् को ही प्राप्त होता है - इसमें कुछ विचार करने की आवशकता नहीं है। जो मनसे भी निरंतर चिंतन करने पर भक्त को अपना पद प्रदान कर देता हैं, उन आदि-अंतरहित भगवान् नारायण का कौन मनुष्य सेवन नहीं करेगा। जो श्रीविष्णु के चरणारविन्दों में निरंतर चित्त लगाए रहता है, भगवान् की प्रसन्यता के लिए अपनी शक्ति के अनुसार दान किया करता है तथा उन्हींके युगल चरणों में प्रणाम करता, मन लगता और अनुराग रखता है, वह इस मृत्युलोक में निश्चय ही पूजनभाव को प्राप्त होता है।

अर्थात् मनुष्य के पास जो कुछ हो, अगर वो भगवान् के निमित्त समर्पित कर दे, तो दान धर्म अनुसार भगवान् का फल मिलेगा मुक्ति, प्रेम इत्यादि जो की कल्याणदायनी होगी। लेकिन भगवान, वास्तविक संत को छोड़ कर किसी और को (माया के आधीन जीव को) दी हुई वस्तु केवल दुःख देनेवाली होती है क्योंकि फिर माया का फल मिलेगा जो की दुःख ही दुःख है। विस्तार पूर्वक पढ़ें दान का महत्व क्या है? - वेद, भागवत और महाभारत अनुसार। और दान कितने प्रकार के होते? किस दान का क्या फल मिलता हैं? अस्तु, जो व्यक्ति भगवान् का नित्य-निरंतर मन द्वारा स्मरण कर रहा हो, अपने सभी इन्द्रिय के विषयों को भी भगवान् में ही लगाया हो तथा धर्म (दान) का पालन भी भगवान् की प्रसन्यता के लिए कर रहा हो। वह कृतार्थ को जाता है भगवान् को ही प्राप्त होता है - इसमें कुछ विचार, शंका इत्यादि करने की आवशकता नहीं है।

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