श्रीकृष्ण का गोवर्धन धारण करना। कृष्ण गोवर्धन लीला - भागवत पुराण
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हमने अब तक अपने दो लेख में १. इन्द्र यज्ञ नहीं करने का कारण? कृष्ण गोवर्धन लीला - भागवत पुराण और २. गोवर्धन यज्ञ करने का कारण? कृष्ण गोवर्धन लीला - भागवत पुराण लेख में विस्तार से सब कुछ बताया की कैसे श्रीकृष्ण ने इन्द्र तथा देवताओं की पूजा नहीं करने को कहा। अस्तु, तो अब आगे की लीला कुछ इस प्रकार है-
श्रीशुक उवाच-
इन्द्रस्तदात्मनः पूजां विज्ञाय विहतां नृप।
गोपेभ्यः कृष्णनाथेभ्यो नन्दादिभ्यश्चुकोप ह॥१॥
गणं सांवर्तकं नाम मेघानां चान्तकारीणाम्।
- भागवत १०.२५.१-२
भावार्थः - श्री शुकदेव जी कहते हैं - ‘परीक्षित! जब इन्द्र को पता लगा कि मेरी पूजा बंद कर दी गयी है, तब वे नन्दबाबा आदि गोपों पर बहुत ही क्रोधित हुए। परन्तु उनके क्रोध करने से होता क्या, उन गोपों के रक्षक तो स्वयं श्रीकृष्ण थे। इन्द्र को अपने पद का बड़ा घमण्ड था, वे समझते थे कि मैं ही त्रिलोकी का ईश्वर हूँ।’
इसके बाद इन्द्र ने क्रोध में बहुत सी बातें कही। फिर
श्रीशुक उवाच-
इत्थं मघवताज्ञप्ता मेघा निर्मुक्तबन्धनाः।
नन्दगोकुलमासारैः पीडयामासुरोजसा॥८॥
विद्योतमाना विद्युद्भिः स्तनन्तः स्तनयित्नुभिः।
तीव्रैर्मरुद्गणैर्नुन्ना ववृषुर्जलशर्कराः॥९॥
- भागवत १०.२५.८-९
भावार्थः - श्री शुकदेव जी कहते हैं - ‘परीक्षित! इन्द्र ने इस प्रकार प्रलय के मेघों को आज्ञा दी और उनके बन्धन खोल दिये। अब वे बड़े वेग से नन्दबाबा के व्रज पर चढ़ आये और मूसलाधार पानी बरसाकर सारे व्रज को पीड़ित करने लगे। चारों और बिजलियाँ चमकने लगीं, बादल आपस में टकराकर कड़कने लगे और प्रचण्ड आँधी की प्रेरणा से वे बड़े-बड़े ओले बरसाने लगे।’
यहाँ ध्यान दे - ‘प्रलय के मेघों को आज्ञा दी और उनके बन्धन खोल दिये।’ इस का अर्थ यह नहीं है कि मेघ कोई जीव है जिसको बन्धन में रखा था और बारिश करने की आज्ञा दी जा रही है। यह लिखने की शैली है। जैसे ‘हनुमानजी ने सोने की लंका को आग लगा दिया और सब जल कर भस्म हो गया।’ सोना पिघलने का तापमान 1,064 °C है, तो फिर जलने का तापमान क्या होगा! अगर इतना तापमान उसवक्त लंका का होगा तो, लंका में एक भी लोग जिन्दा नहीं बचेंगे। अस्तु, तो यह एक लिखने की शैली है की सोने की लंका को आग लगा दिया और सब जल कर भस्म हो गया। इसी प्रकार यहाँ यह कहा जा रहा है कि जिस प्रकार प्रलय में जैसे मेघ वर्षा करते है वैसे मेघ वर्षा करने लगे।
स्थूणास्थूला वर्षधारा मुञ्चत्स्वभ्रेष्वभीक्ष्णशः।
जलौघैः प्लाव्यमाना भूर्नादृश्यत नतोन्नतम्॥१०॥
अत्यासारातिवातेन पशवो जातवेपनाः।
गोपा गोप्यश्च शीतार्ता गोविन्दं शरणं ययुः॥११॥
- भागवत १०.२५.१०-११
भावार्थः - (श्री शुकदेव जी कहते हैं-) ‘इस प्रकार जब दल-के-दल बादल बार-बार आ-आकार खंभे के समान मोटी-मोटी धाराएँ गिराने लगे, तब व्रजभूमि का कोना-कोना पानी से भर गया और कहाँ नीचा है, कहाँ ऊँचा - इसका पता चलना कठिन हो गया। इस प्रकार मूसलाधार वर्षा तथा झंझावत के झपाटे से जब एक-एक पशु ठिठुरने और काँपने लगा, ग्वाल और ग्वालिनें भी ठण्ड के मारे अत्यन्त व्याकुल हो गयीं, तब वे सब-के-सब भगवान श्रीकृष्ण की शरण में आये।’
यहाँ ध्यान रहे - इन्द्र चाह कर के भी लोगों को न तो सुख दे सकता है और न ही दुःख दे सकता है। यह जो कुछ हो रहा है और जिसको भी इन्द्र के कारण संकट हुआ हो, वो उसके कर्म का फल मात्र ही है। इस बात को भगवान श्री कृष्ण ने पहले ही सिद्ध कर चुके है। विस्तार से पढने के लिए पढ़े - इन्द्र यज्ञ नहीं करने का कारण? - भागवत पुराण
शिरः सुतांश्च कायेन प्रच्छाद्यासारपीडिताः।
वेपमाना भगवतः पादमूलमुपाययुः॥१२॥
कृष्ण कृष्ण महाभाग त्वन्नाथं गोकुलं प्रभो।
त्रातुमर्हसि देवान्नः कुपिताद्भक्तवत्सल॥१३॥
- भागवत १०.२५.१२-१४
भावार्थः - (श्री शुकदेव जी कहते हैं-) “मूसलाधार वर्षा से सताये जाने के कारण सबने अपने-अपने सिर और बच्चों की निहुककर अपने शरीर के नीचे छिपा था और वे काँपते-काँपते भगवान की चरण शरण में पहुँचे और बोले - ‘प्यारे श्रीकृष्ण! तुम बड़े भाग्यवान हो। अब तो कृष्ण! केवल तुम्हारे ही भाग्य से हमारी रक्षा होगी। प्रभो! इस सारे गोकुल के एकमात्र स्वामी, एकमात्र रक्षक तुम्हीं हो। भक्तवत्सल! इन्द्र के क्रोध से अब तुम्हीं हमारी रक्षा कर सकते हो।’ ”
अपर्त्वत्युल्बणं वर्षमतिवातं शिलामयम्।
स्वयागे विहतेऽस्माभिरिन्द्रो नाशाय वर्षति॥१५॥
तत्र प्रतिविधिं सम्यगात्मयोगेन साधये।
लोकेशमानिनां मौढ्याद्धनिष्ये श्रीमदं तमः॥१६॥
न हि सद्भावयुक्तानां सुराणामीशविस्मयः।
मत्तोऽसतां मानभङ्गः प्रशमायोपकल्पते॥१७॥
तस्मान्मच्छरणं गोष्ठं मन्नाथं मत्परिग्रहम्।
गोपाये स्वात्मयोगेन सोऽयं मे व्रत आहितः॥१८॥
- भागवत १०.२५.१५-१८
भावार्थः - (श्री शुकदेव जी कहते हैं-) “वे (श्रीकृष्ण) मन-ही-मन कहने लगे - ‘हमने इन्द्र का यज्ञ भंग कर दिया है, इसी से वे व्रज का नाश करने के लिये बिना ऋतु के ही यह प्रचण्ड वायु और ओलों के साथ घनघोर वर्षा कर रहे हैं। अच्छा, मैं अपनी योगमाया से इनका भलीभाँति जवाब दूँगा। ये मूर्खतावश अपने को लोकपाल मानते हैं, इनके ऐश्वर्य और धन का घमण्ड तथा अज्ञान मैं चूर-चूर कर दूँगा। देवता लोग तो सत्त्वप्रधान होते हैं। इनमें अपने ऐश्वर्य और पद का अभिमान न होना चाहिये। अतः यह उचित ही है कि इस सत्त्वगुण से च्युत दुष्ट देवताओं का मैं मान भंग कर दूँ। इससे अन्त में उन्हें शान्ति ही मिलेगी। यह सारा व्रज मेरे आश्रित है, मेरे द्वारा स्वीकृत है और एकमात्र मैं ही इनका रक्षक हूँ। अतः मैं अपनी योगमाया से इनकी रक्षा करूँगा। संतों की रक्षा करना तो मेरा व्रत ही है। अब उसके पालन का अवसर आ पहुँचा है।”
ध्यान दे - भगवान श्रीकृष्ण अपनी शक्ति योगमाया से लीला कर करते है। योगमाया असंभव को संभव कर देती है। इसलिए गोवर्धन धारण लीला में जो कुछ भी असंभव कार्य संभव होने जा रहा है वो योगमाया से होने जा रहा है। श्रीकृष्ण लीला कर रहे है हम लोगों को यह बताने के लिए कि देवताओं से डरने की या भय से उनकी पूजा करने की आवश्कता नहीं है। जो भगवान के एक मात्र शरण में आ जाता है, तब स्वयं भगवान भक्त की रक्षा करने का व्रत धारण कर लेते है। इसीलिए गीता ९.३१ ‘कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति’ श्रीकृष्ण ने कहा मेरे भक्त का पतन नहीं होता। क्योंकि मैं उसकी रक्षा करता हूँ। गीता १८:६६ में श्री कृष्ण ने कहा ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।’ अर्थात् समस्त धर्माें का परित्याग करके एकमात्र मेरी शरण में आ। जो ऐसा करता है तो “अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥६६॥” अर्थात् श्री कृष्ण उसके अनंत जन्म के पाप-पुण्य को नस्ट कर उसे मोक्ष दे देते है।
देवता तो हम ही लोग अधिक पुण्य कर के बनते है। तो चुकीं देवता माया के आधीन है उन्हें मोक्ष नहीं मिला, इसलिए उनके अन्दर कम, क्रोध आदि माया के दोष है। देवताओं का शरीर भोग शरीर है वहा केवल अधिक पुण्य करने का फल भोगा जाता है। विस्तार से पढ़े - देवी-देवता और भगवान में क्या अंतर है?
इत्युक्त्वैकेन हस्तेन कृत्वा गोवर्धनाचलम्।
दधार लीलया विष्णुश्छत्राकमिव बालकः॥१९॥
- भागवत १०.२५.१९
भावार्थः - (श्री शुकदेव जी कहते हैं-) ‘इस प्रकार कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में एक ही हाथ से गिरिराज गोवर्धन को उखाड़ लिया और जैसे छोटे-छोटे बालक बरसाती छत्ते के पुष्प को उखाड़कर हाथ में रख लेते हैं, वैसे ही उन्होंने उस पर्वत को धारण कर लिया।’
ध्यान दे - यह कार्य भगवान की अपनी शक्ति योगमाया से हुआ है। इसलिए यह मन में शंका न करे कि कैसे एक बालक ७ दिन तक बिना खाये-पिये पर्वत को उठा सकता है, पहाड़ की जड़ें तो अन्दर तक होती है उसे कैसे उखाड़ दिया? भगवान सर्व समर्थ है, वो सब कुछ कर सकते है।
फिर भगवान ने सभी को गोवर्धन पर्वत के अन्दर आने को कहा। तब सब-के-सब ग्वाल अपने-अपने गोधन, छकड़ों, आश्रितों, पुरोहितों और भृत्यों को अपने-अपने साथ लेकर सुभीत के अनुसार गोवर्धन के गड्ढे में आ गयें।
क्षुत्तृड्व्यथां सुखापेक्षां हित्वा तैर्व्रजवासिभिः।
वीक्ष्यमाणो दधाराद्रिं सप्ताहं नाचलत्पदात्॥२३॥
कृष्णयोगानुभावं तं निशम्येन्द्रोऽतिविस्मितः।
निस्तम्भो भ्रष्टसङ्कल्पः स्वान्मेघान्सन्न्यवारयत्॥२४॥
- भागवत १०.२५.२३-२४
भावार्थः - (श्री शुकदेव जी कहते हैं-) ‘भगवान श्रीकृष्ण ने सब व्रजवासियों के देखते-देखते भूख-प्यास की पीड़ा, आराम-विश्राम की आवश्यकता आदि सब कुछ भुलाकर सात दिन तक लगाकर उस पर्वत को उठाये रखा। वे एक डग भी वहाँ से इधर-उधर नहीं हुए। श्रीकृष्ण की योगमाया का यह प्रभाव देखकर इन्द्र के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अपना संकल्प पूरा न होने के कारण उनकी सारी हेकड़ी बंद हो गयी, वे भौंचक्के-से रह गये। इनके बाद उन्होंने मेघों को अपने-आप वर्षा करने से रोक दिया।’
खं व्यभ्रमुदितादित्यं वातवर्षं च दारुणम्।
निशम्योपरतं गोपान्गोवर्धनधरोऽब्रवीत्॥२५॥
निर्यात त्यजत त्रासं गोपाः सस्त्रीधनार्भकाः।
उपारतं वातवर्षं व्युदप्रायाश्च निम्नगाः॥२६॥
ततस्ते निर्ययुर्गोपाः स्वं स्वमादाय गोधनम्।
शकटोढोपकरणं स्त्रीबालस्थविराः शनैः॥२७॥
भगवानपि तं शैलं स्वस्थाने पूर्ववत्प्रभुः।
पश्यतां सर्वभूतानां स्थापयामास लीलया॥२८॥
- भागवत १०.२५.२५-२८
भावार्थः - (श्री शुकदेव जी कहते हैं-) “जब गोवर्धनधारी भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि वह भयंकर आँधी और घनघोर वर्षा बंद हो गयी, आकाश से बादल छँट गये और सूर्य दीखने लगे, तब उन्होंने गोपों से कहा - ‘मेरे प्यारे गोपों! अब तुम लोग निडर हो जाओ और अपनी स्त्रियों, गोधन और बच्चों के साथ बाहर निकल आओ। देखो, अब आँधी-पानी बंद हो गया तथा नदियों का पानी भी उतर गया।’ भगवान की ऐसी आज्ञा पाकर अपने-अपने गोधन, स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ों को साथ ले तथा अपनी सामग्री छकड़ों पर लादकर धीरे-धीरे सब लोग बाहर निकल आये। सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण ने भी सब प्राणियों के देखते-देखते खेल-खेल में ही गिरिराज को पूर्ववत उसके स्थान पर रख दिया।”
तं प्रेमवेगान्निर्भृता व्रजौकसो
यथा समीयुः परिरम्भणादिभिः।
गोप्यश्च सस्नेहमपूजयन्मुदा
दध्यक्षताद्भिर्युयुजुः सदाशिषः॥२९॥
- भागवत १०.२५.२९
भावार्थः - (श्री शुकदेव जी कहते हैं-) ‘ब्रजवासियों का हृदय प्रेम के आवेग से भर रहा था। पर्वत को रखते ही वे भगवान श्रीकृष्ण के पास दौड़ आये। कोई उन्हें हृदय से लगाने और कोई चूमने लगा। सबने उनका सत्कार किया। बड़ी-बूढ़ी गोपियों ने बड़े आनन्द और स्नेह से दही, चावल, जल आदि से उनका मंगल-तिलक किया और उन्मुक्त हृदय से शुभ आशीर्वाद दिये।’
यशोदा रोहिणी नन्दो रामश्च बलिनां वरः।
कृष्णमालिङ्ग्य युयुजुराशिषः स्नेहकातराः॥३०॥
दिवि देवगणाः सिद्धाः साध्या गन्धर्वचारणाः।
तुष्टुवुर्मुमुचुस्तुष्टाः पुष्पवर्षाणि पार्थिव॥३१॥
शङ्खदुन्दुभयो नेदुर्दिवि देवप्रचोदिताः।
जगुर्गन्धर्वपतयस्तुम्बुरुप्रमुखा नृप॥३२॥
ततोऽनुरक्तैः पशुपैः परिश्रितो राजन्स्वगोष्ठं सबलोऽव्रजद्धरिः।
तथाविधान्यस्य कृतानि गोपिका गायन्त्य ईयुर्मुदिता हृदिस्पृशः॥३३॥
- भागवत १०.२५.३०-३३
भावार्थः - (श्री शुकदेव जी कहते हैं-) ‘यशोदा रानी, रोहिणी जी, नन्दबाबा और बलवानों में श्रेष्ठ बलराम जी ने स्नेहातुर होकर श्रीकृष्ण को हृदय से लगा लिया तथा आशीर्वाद दिये। परीक्षित! उस समय आकाश में स्थित देवता, साध्य, सिद्ध, गन्धर्व और चारण आदि प्रसन्न होकर भगवान की स्तुति करते हुए उन पर फूलों की वर्षा करने लगे। राजन! स्वर्ग में देवता लोग शंख और नौबत बजाने लगे। तुम्बुरु आदि गन्धर्वराज भगवान की मधुर लीला का गान करने लगे। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने व्रज की यात्रा की। उनके बगल में बलराम जी चल रहे थे और उनके प्रेमी ग्वालबाल उनकी सेवा कर रहे थे। उनके साथ ही प्रेममयी गोपियाँ भी अपने हृदय को आकर्षित करने वाले, उसमें प्रेम जगाने वाले भगवान की गोवर्धन-धारण आदि लीलाओं का गान करती हुई बड़े आनन्द से ब्रज में लौट आयीं।’
आगे की लीला - इन्द्र का क्षमा मांगना और श्री कृष्ण का अभिषेक - कृष्ण गोवर्धन लीला - भागवत पुराण