इन्द्र का क्षमा मांगना और श्री कृष्ण का अभिषेक - कृष्ण गोवर्धन लीला - भागवत पुराण
हमने अब तक अपने तीन लेख में १. इन्द्र यज्ञ नहीं करने का कारण - कृष्ण की गोवर्धन लीला - भागवत पुराण २. गोवर्धन यज्ञ करने का कारण - कृष्ण की गोवर्धन लीला - भागवत पुराण और ३. श्रीकृष्ण का गोवर्धन धारण करना - कृष्ण की गोवर्धन लीला - भागवत पुराण लेख में विस्तार से सब कुछ बताया की कैसे श्रीकृष्ण ने इन्द्र तथा देवताओं की पूजा नहीं करने को कहा। अस्तु, तो अब आगे की लीला कुछ इस प्रकार है-
श्रीशुक उवाच
गोवर्धने धृते शैले आसाराद्रक्षिते व्रजे।
गोलोकादाव्रजत्कृष्णं सुरभिः शक्र एव च॥१॥
विविक्त उपसङ्गम्य व्रीडीतः कृतहेलनः।
पस्पर्श पादयोरेनं किरीटेनार्कवर्चसा॥२॥
दृष्टश्रुतानुभावोऽस्य कृष्णस्यामिततेजसः।
नष्टत्रिलोकेशमद इदमाह कृताञ्जलिः॥३॥
- भागवत १०.२७.१-३
भावार्थः - श्री शुकदेव जी कहते हैं - ‘परीक्षित! जब भगवान श्रीकृष्ण ने गिरिराज गोवर्धन को धारण करके मूसलधार वर्षा से व्रज को बचा लिया, तब उनके पास गोलोक से कामधेनु (बधाई देने के लिये) और स्वर्ग से देवराज इन्द्र (अपने अपराध को क्षमा कराने के लिये) आये। भगवान का तिरस्कार करने के कारण इन्द्र बहुत ही लज्जित थे। इसलिये उन्होंने एकान्त-स्थान में भगवान के पास जाकर अपने सूर्य के समान तेजस्वी मुकुट से उनके चरणों का स्पर्श किया। परम तेजस्वी भगवान श्रीकृष्ण का प्रभाव देख-सुनकर इन्द्र का यह घमंड जाता रहा कि मैं ही तीनों लोकों का स्वामी हूँ। अब उन्होंने हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की।’
ध्यान रहे - देवताओं को माया से मुक्ति (मोक्ष) नहीं मिला हैं। इसलिए उनमे माया के विकार है जैसे काम, क्रोध, लोभ आदि। अधिक पुण्य करने से स्वर्ग लोक मिलता है वो भी कुछ दिन को। विस्तार से पढ़े - देवता और भगवान में अंतर। पुण्य करने वाले को काम क्रोध लोभ आदि होते है, क्योंकि जबतक माया रहती है तब तक यह माया के दोष रहते है। व्यक्ति अधिक पुण्य करता हो इसका मतलब यह नहीं होता की वो कभी पाप नहीं कर सकता। जब तक व्यक्ति माया के आधीन है वो पाप कभी भी कर सकता है।
इन्द्र उवाच-
विशुद्धसत्त्वं तव धाम शान्तं तपोमयं ध्वस्तरजस्तमस्कम्।
- भागवत १०.२७.४
भावार्थः - इन्द्र ने कहा - ‘भगवान! आपका स्वरूप परम शान्त, ज्ञानमय, रजोगुण तथा तमोगुण से रहित एवं विशुद्ध अप्राकृत सत्त्वमय है।’
जो लोग यह सोचते है कि छोटा बालक पहाड़ को नहीं उठा सकता। उनको इन्द्र की बात पर ध्यान देना चाहिए की भगवान श्री कृष्ण का शरीर विशुद्ध अप्राकृत सत्त्वमय है। श्री कृष्ण का जन्म भी माँ के पेट से नहीं हुआ है। तो ऐसे विशुद्ध माया से परे और सर्व समर्थ भगवान बालक रूप में भी ये असंभव कार्य, अपनी शक्ति योगमाया से कर सकते है।
पिता गुरुस्त्वं जगतामधीशो दुरत्ययः काल उपात्तदण्डः।
हिताय चेच्छातनुभिः समीहसे मानं विधुन्वञ्जगदीशमानिनाम्॥६॥
- भागवत १०.२७.६
भावार्थः - (इन्द्र ने कहा -) ‘आप जगत के पिता, गुरु और स्वामी हैं। आप जगत का नियन्त्रण करने के लिये दण्ड धारण किये हुए दुस्तर काल हैं। आप अपने भक्तों की लालसा पूर्ण करने के लिये स्वच्छन्दता से लीला-शरीर प्रकट करते हैं और जो लोग हमारी तरह अपने को ईश्वर मान बैठते हैं, उनका मान-मर्दन करते हुए अनेकों प्रकार की लीलाएँ करते हैं।’
स त्वं ममैश्वर्यमदप्लुतस्य कृतागसस्तेऽविदुषः प्रभावम्।
क्षन्तुं प्रभोऽथार्हसि मूढचेतसो मैवं पुनर्भून्मतिरीश मेऽसती॥८॥
- भागवत १०.२७.८
भावार्थः - (इन्द्र ने कहा -) ‘प्रभो! मैंने ऐश्वर्य के मद से चूर होकर आपका अपराध किया है; क्योंकि मैं आपकी शक्ति और प्रभाव के सम्बन्ध में बिलकुल अनजान था। परमेश्वर! आप कृपा करके मुझ मूर्ख अपराधी का यह अपराध क्षमा करें और ऐसी कृपा करें कि मुझे फिर कभी ऐसे दुष्ट अज्ञान का शिकार न होना पड़े।’
मयेदं भगवन्गोष्ठ नाशायासारवायुभिः।
चेष्टितं विहते यज्ञे मानिना तीव्रमन्युना॥१२॥
त्वयेशानुगृहीतोऽस्मि ध्वस्तस्तम्भो वृथोद्यमः।
ईश्वरं गुरुमात्मानं त्वामहं शरणं गतः॥१३॥
- भागवत १०.२७.१२-१३
भावार्थः - (इन्द्र ने कहा -) ‘भगवन! मेरे अभिमान का अन्त नहीं है और मेरा क्रोध भी बहुत ही तीव्र, मेरे वश के बाहर है। जब मैंने देखा कि मेरा यज्ञ तो नष्ट कर दिया गया, तब मैंने मूसलाधार वर्षा और आँधी के द्वारा सारे व्रजमण्डल को नष्ट कर देना चाहा। परन्तु प्रभो! आपने मुझ पर बहुत ही अनुग्रह किया। मेरी चेष्टा व्यर्थ होने से मेरे घमंड जड़ उखड गयी। आप मेरे स्वामी हैं, गुरु हैं और मेरे आत्मा हैं। मैं आपकी शरण में हूँ।’
श्रीशुक उवाच-
एवं सङ्कीर्तितः कृष्णो मघोना भगवानमुम्।
मेघगम्भीरया वाचा प्रहसन्निदमब्रवीत्॥१४॥
- भागवत १०.२७.१४
भावार्थः - श्री शुकदेव जी कहते हैं - ‘परीक्षित! जब देवराज इन्द्र ने भगवान श्रीकृष्ण की इस प्रकार स्तुति की, तब उन्होंने हँसते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी से इन्द्र को सम्बोधन करके कहा -’
श्रीभगवानुवाच-
मया तेऽकारि मघवन्मखभङ्गोऽनुगृह्णता।
मदनुस्मृतये नित्यं मत्तस्येन्द्रश्रिया भृशम्॥१५॥
मामैश्वर्यश्रीमदान्धो दण्ड पाणिं न पश्यति।
तं भ्रंशयामि सम्पद्भ्यो यस्य चेच्छाम्यनुग्रहम्॥१६॥
- भागवत १०.२७.१२-१३
भावार्थः - श्री भगवान ने कहा - ‘इन्द्र! तुम ऐश्वर्य और धन-सम्पत्ति के मद से पूरे-पूरे मतवाले हो रह थे। इसलिये तुम पर अनुग्रह करके ही मैंने तुम्हारा यज्ञ भंग किया है। यह इसलिये कि अब तुम मुझे नित्य-निरन्तर स्मरण रख सको। जो ऐश्वर्य और धन-सम्पत्ति के मद से अंधा हो जाता है, वह यह नहीं देखता कि मैं कालरूप परमेश्वर हाथ में दण्ड लेकर उसके सिर पर सवार हूँ। मैं जिस पर अनुग्रह करना चाहता हूँ, उसे ऐश्वर्य भ्रष्ट कर देता हूँ।’
ध्यान दे - श्री भगवान ने कहा ‘मैं जिस पर अनुग्रह करना चाहता हूँ, उसे ऐश्वर्य भ्रष्ट कर देता हूँ।’ इसका यह अर्थ है कि जिसपर भगवान कृपा (अनुग्रह) करते है उसपर से यह ऐश्वर्य आदि विकारो का नाश कर देते है अर्थात् माया से मुक्त कर देते है। परन्तु भगवान ने इन्द्र को माया से मुक्त नहीं किया, क्योंकि इन्द्र अभी देव शरीर में है और देवता कोई कर्म नहीं कर सकते, मुक्ति या कोई भी कर्म केवल मनुष्य शरीर में हो सकता है। ८४ लाख शरीर में से मनुष्य शरीर को कर्म करने का अधिकार है और जितने भी शरीर हैं वो केवल कर्म का फल भोगने के लिए है। इसीलिए देवता भी मनुष्य शरीर चाहते है।
गम्यतां शक्र भद्रं वः क्रियतां मेऽनुशासनम्।
स्थीयतां स्वाधिकारेषु युक्तैर्वः स्तम्भवर्जितैः॥१७॥
- भागवत १०.२७.१७
भावार्थः - (श्री भगवान ने कहा -) ‘इन्द्र! तुम्हारा मंगल हो। अब तुम अपनी राजधानी अमरावती में जाओ और मेरी आज्ञा का पालन करो। अब कभी घमंड न करना। नित्य-निरन्तर मेरी सन्निधिका, मेरे संयोग का अनुभव करते रहना और अपने अधिकार के अनुसार उचित रीति से मर्यादा का पालन करना।’
अथाह सुरभिः कृष्णमभिवन्द्य मनस्विनी।
स्वसन्तानैरुपामन्त्र्य गोपरूपिणमीश्वरम्॥१८॥
- भागवत १०.२७.१८
भावार्थः - (श्री शुकदेव जी कहते हैं -) ‘परीक्षित! भगवान इस प्रकार आज्ञा दे ही रहे थे कि मनस्विनी कामधेनु ने अपनी सन्तानों के साथ गोपवेषधारी परमेश्वर श्रीकृष्ण की वन्दना की और उनको सम्बोधित करके कहा-
श्री कृष्ण का अभिषेक और गोविन्द नाम पड़ना।
सुरभिरुवाच-
कृष्ण कृष्ण महायोगिन्विश्वात्मन्विश्वसम्भव।
भवता लोकनाथेन सनाथा वयमच्युत॥१९॥
त्वं नः परमकं दैवं त्वं न इन्द्रो जगत्पते।
भवाय भव गोविप्र देवानां ये च साधवः॥२०॥
इन्द्रं नस्त्वाभिषेक्ष्यामो ब्रह्मणा चोदिता वयम्।
अवतीर्णोऽसि विश्वात्मन्भूमेर्भारापनुत्तये॥२१॥
- भागवत १०.२७.१९-२१
भावार्थः - कामधेनु ने कहा - ‘सच्चिदानंदस्वरूप श्रीकृष्ण! आप महायोगी - योगेश्वर हैं। आप स्वयं विश्व हैं, विश्व के परम कारण हैं, अच्युत हैं। सम्पूर्ण विश्व के स्वामी आपको अपने रक्षक के रूप में प्राप्त कर हम सनाथ हो गयी। आप जगत के स्वामी हैं, परन्तु हमारे तो परम पूजनीय आराध्यदेव ही हैं। प्रभो! इन्द्र त्रिलोकी के इन्द्र हुआ करें, परन्तु इन्द्र तो आप ही हैं। अतः आप ही गौ, ब्राह्मण, देवता और साधुजनों की रक्षा के लिये हमारे इन्द्र बन जाइये। हम गौएँ ब्रह्मा जी की प्रेरणा से आपको अपना इन्द्र मानकर अभिषेक करेंगी। विश्वात्मन! आपने पृथ्वी का भार उतारने के लिये ही अवतार धारण किया है।’
शृईशुक उवाच-
एवं कृष्णमुपामन्त्र्य सुरभिः पयसात्मनः।
जलैराकाशगङ्गाया ऐरावतकरोद्धृतैः॥२२॥
इन्द्रः सुरर्षिभिः साकं चोदितो देवमातृभिः।
अभ्यसिञ्चत दाशार्हं गोविन्द इति चाभ्यधात्॥२३॥
तत्रागतास्तुम्बुरुनारदादयो गन्धर्वविद्याधरसिद्धचारणाः।
जगुर्यशो लोकमलापहं हरेः सुराङ्गनाः सन्ननृतुर्मुदान्विताः॥२४॥
- भागवत १०.२७.२२-२४
भावार्थः - श्री शुकदेव जी कहते हैं - “परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण से ऐसा कहकर कामधेनु अपने दूध से और देव माताओं की प्रेरणा से देवराज इन्द्र ने ऐरावत की सूँड के द्वारा लाये हुए आकाशगंगा के जल से देवर्षियों के साथ यदुनाथ श्रीकृष्ण का अभिषेक किया और उन्हें ‘गोविन्द’ नाम से सम्बोधित किया। उस समय वहाँ नारद, तुम्बुरु आदि गन्धर्व, विद्याधर, सिद्ध और चरण पहले से ही आ गये थे। वे समस्त संसार के पाप-ताप को मिटा देने वाले भगवान के लोकमलापह यश गान करने लगे और अप्सराएँ आनन्द से भरकर नृत्य करने लगीं।”
फिर मुख्य-मुख्य देवता भगवान की स्तुति करके उन पर नन्दन वन के दिव्य पुष्पों की वर्षा करने लगे। तीनों लोकों में परमानन्द की बाढ़ आ गयी।
इति गोगोकुलपतिं गोविन्दमभिषिच्य सः।
अनुज्ञातो ययौ शक्रो वृतो देवादिभिर्दिवम्॥२८॥
- भागवत १०.२७.२८
भावार्थः - (श्री शुकदेव जी कहते हैं -) “इन्द्र ने इस प्रकार गौ और गोकुल के स्वामी ‘श्रीगोविन्द’ का अभिषेक किया और उनसे अनुमति प्राप्त होने पर देवता, गन्धर्व आदि के साथ स्वर्ग की यात्रा की।”