संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म और क्रियमाण कर्म क्या है?

संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण कर्म क्या है?

कर्म क्या है? - यह हमने पहले ही अपने लेख में बता दिया है कि मूल रूप से ‘कर्म’ को ‘क्रिया’ कहते है। यानी शरीर, वाणी और मन से की गयी क्रिया कर्म है। एवं इसी ‘क्रिया’ रूपी ‘कर्म’ को ध्यान में रखते हुए शास्त्र, वेद, गीता, पुराण आदि ने कर्म-अकर्म, शुभ-अशुभ कर्म, कर्मयोग, कर्म-बंधन आदि की व्याख्या की है। उदाहरण के लिए कर्म-बंधन प्रकरण में राग एवं द्वेष से युक्त ‘क्रिया’ कर्म कहलाते है। अतएव कर्म मन द्वारा होता है, इन्द्रियाँ केवल साधन है। हाथ-पैर के बिना भी, अगर मन द्वारा कुछ भी अच्छा-बुरा सोचा तो वो भी कर्म है। अस्तु, अब प्रश्न यह है कि कर्म के कितने प्रकार है? ये भाग्य क्या है?

कर्म के प्रकार

वास्तव में ‘कर्म’ कर्म ही होता है। कर्म के प्रकार नहीं हुआ करते। परन्तु समय के अनुसार अर्थात् भूत एवं वर्तमान के अनुसार - कर्म के प्रकार कहे गए है। इस प्रकार कर्म तीन प्रकार के होते है - १. संचित कर्म २. प्रारब्ध कर्म और ३. क्रियमाण कर्म। यह संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म और क्रियमाण कर्म का निरूपण हमारे संतों ने अपने ग्रंथों में गीता, उपनिषद् आदि का प्रमाण देते हुए किया है। अब ये संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण कर्म क्या है? यह समझ लेते है।

संचित कर्म

‘संचित’ का अर्थ है - ‘एकत्रित, संचय, या इकट्ठा किया हुआ।’ इस प्रकार ‘संचित कर्म’ का अर्थ है - ‘कर्म जो एकत्रित है, संचय किए हुए कर्म या इकट्ठा किया हुआ कर्म।’ अतएव संचित कर्म अर्थात् अनेक पूर्व जन्मों से लेकर वर्तमान में किये गए कर्मों के संचय को संचित कर्म कहते हैं। वे अनन्त हैं (क्योंकि हमारे अनन्त जन्म हो चुके है) और उनमें नये-नये कर्म जा-जाकर एकत्र होते रहते हैं। यानी हमारे ही अनेकों जन्मों के पाप और पुण्य कर्मों का संचय संचित कर्म हैं। गीता में ‘संचित कर्म’ का संकेत देते हुए कहा गया -

श्रीभगवानुवाच-
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप॥
गीता - ४.५

अर्थात् :- श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूँ, किन्तु तू (उन्हें) नहीं जानता।

अर्थात् भगवान अनंत बार जन्म (अवतार) लेते है। साथ ही जीव भी अनंत बार जन्म ले चुका है। क्योंकि अनंत ब्रह्माण्ड है एवं अनादि काल से ब्रह्माण्डों का प्रकट-प्रलय होता रहा है। अतएव जीव के अनंत जन्म के किये गए अनंत कर्मों (संचित कर्म) के बारे में भगवान जानते है। परन्तु जीव को उन कर्मों के बारे में जानकारी नहीं है। (हमें इसी जन्म में किये गए सभी कर्मों का ज्ञान नहीं है फिर हमारे अनंत जन्मों के कर्मों का ज्ञान कैसे हो सकता है।)

तो संचित कर्म हमारे ही किये गए अनेकों जन्मों के कर्मों का संग्रह है। जिन्हें हम नहीं जानते, परन्तु भगवान जानते है क्योंकि वो ही हमारे कर्मों का फल देते है।

प्रारब्ध कर्म

‘प्रारब्ध’ को दूसरे शब्दों में ‘भाग्य’ कहते है। हमारे संचित कर्म में से, थोड़ा सा अंश मात्र कर्मों को जो हमें इस जन्म में भोगना है उसे प्रारब्ध कर्म कहते हैं। हमारे जन्म से पहले, हमारे कर्मों के अनुसार हमें इस जन्म में किसके घर में जन्म लेना है, वो हमारे प्रारब्ध कर्म से निर्णय होता है। तो संचित कर्म में से थोड़ा सा अंश मात्र को निकल कर हमारा भाग्य निर्धारित (निश्चित) किया जाता हैं। यानी हमारे ही किये गए पाप-पुण्य कर्मों में से कुछ पाप-पुण्य कर्मों का फल, हमें इस जन्म में भोगना पड़ता है जिसे प्रारब्ध कर्म करते है।

उदाहरण :- एक चालक है, सतर्कता पूर्वक गाडी चलाता है तथा गाडी भी पूर्ण व्यवस्थित स्थिति में रखता है। वह पहाडी के ढालान पर सतर्कता पूर्वक जा रहा होता है कि अकस्मात भूस्खलन (landslide) के कारण सडक टूट जाती है और एक दुर्घटना होती है। यहां भूस्खलन पर उसका कोई नियंत्रण नहीं था अत: यह उसका प्रारब्ध था।

सरल शब्दों में, हमारे जीवन में जो अच्छा-बुरा घटित होता है, जिन पर हमारा निरंतरण नहीं है वो प्रारब्ध है। इन पर हमारा नियंत्रण इसलिए नहीं होता क्योंकि भगवान हमें प्रेरित करते है, कर्मों के फल को भोगने के लिए। अगर भगवान हमें प्रेरित नहीं करे, तो कर्म का फल मिलेगा कैसे? श्री कृष्ण कहते है - गीता २.४७ ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।’ अर्थात् “केवल कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, उसके फलों में नहीं।” यानी हमें अच्छे-बुरे कर्मों को करने का अधिकार है। फल तो अपने-आप भगवान दे देंगे, उसके बारे में चिंता करने का कोई मतलब नहीं है।

जो प्रारब्ध अच्छे है वो हमारे अच्छे कर्मों का फल है और जो बुरे है वो हमारे बुरे कर्मों का फल है। अतएव प्रारब्ध हमारे किये गए अच्छे-बुरे कर्मों का फल है।

क्रियमाण कर्म

‘क्रियमाण’ शब्द का अर्थ है - ‘वह जो किया जा रहा है, अथवा वह जो हो रहा है।’ इस प्रकार ‘क्रियमाण कर्म’ का अर्थ है - ‘जो कर्म अभी हो रहा है, अथवा जो कर्म अभी किया जा रहा है।’ अतएव जो कर्म अभी वर्तमान समय में किए जा रहे हैं उनको “क्रियमाण कर्म” कहते हैं। यानी वर्त्तमान में होने वाले प्रत्येक पाप और पुण्य कर्मो को “क्रियमाण-कर्म” कहते हैं।

कुछ लोग ऐसा सोचते है कि सब कुछ प्रारब्ध कर्म (भाग्य) अनुसार होता है। परन्तु, भाग्य तो हमारे ही कर्मों का फल है। अगर प्रारब्ध (भाग्य) अनुसार ही हमारे कर्म होते! तो प्रारब्ध आया कहाँ से? अगर आज हम कर्म नहीं कर सकते, तो पहले भी नहीं कर सकते। और जब कर्म ही नहीं कर सकते तो प्रारब्ध कहाँ से बन गया? महाभारत अनुशासनपर्व ६.५ ‘न बीजेन विना फलम्।’ अर्थात् “बीज के बिना फल नहीं होता।” महाभारत अनुशासनपर्व ६.२३ ‘कथं कर्म विना दैवं स्थास्यति स्थापयिष्यति।’ अर्थात् “कर्म के बिना भाग्य कैसे स्वयं टिकेगा, कैसे औरों को टिकाकर रखेगा?” यानी हमारा क्रियमाण कर्म बीज है-आधार है, जिससे फल रूपी भाग्य विकसित होता है।

श्रीमद्भगवद्गीता में तो भरा पड़ा है कि हे अर्जुन! तू कर्म कर।

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥
गीता - ९.२७

अर्थात् :- (श्री कृष्ण कहते है -) हे अर्जुन! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है? वह सब कुछ मुझे अर्पण कर दे।

ध्यान दे - अगर सब कुछ प्रारब्ध कर्म से होता तो भगवान ऐसा क्यों कहते है कि तू जो कर्म करता है वह सब कुछ मुझे अर्पण कर दे। तब तो यह कहना चाहिए कि तेरे प्रारब्ध कर्म में जो कुछ है, वह सब कुछ मुझे अर्पण कर दे। परन्तु ऐसा नहीं कहा। इस विषय को विस्तार से पढ़ें - क्या सब कुछ भगवान करते है? - वेद, महाभारत अनुसार एवं क्या प्रारब्ध (भाग्य) अनुसार ही हमारे कर्म होते हैं?

अतएव जो हम क्रियमाण कर्म करते है वो ही संचित कर्म में जाकर जमा होता रहता है और उसी संचित कर्म का अंश प्रारब्ध कर्म (भाग्य) के रूप में हमें मिलता है। तो जीव क्रियमाण कर्म करने में स्वतंत्र है लेकिन अपने किये गये कर्मों का फल भोगने में परतंत्र (पराधीन) है।

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