नवधा भक्ति क्या है? - भागवत पुराण

नवधा भक्ति क्या है?

व्यक्ति अपने जीवन में कई प्रकार की भक्ति करता है। जैसे देश भक्ति, मातृ (माता)-पितृ भक्ति, देव भक्ति, गुरु भक्ति, ईश्वर भक्ति इत्यादि। इनमें से, ईश्वर भक्ति के अंतर्गत नवधा भक्ति आती है। ‘नवधा’ का अर्थ है ‘नौ प्रकार से या नौ भेद’। अतः ‘नवधा भक्ति’ यानी ‘नौ प्रकार से भक्ति’। इस भक्ति का विधिवत पालन करने से भक्त भगवान को प्राप्त कर सकता है। जिन भक्तों ने भगवान को प्राप्त नहीं किया है और जिन्होंने प्राप्त किया है, वे दोनों नवधा भक्ति करते हैं। वैष्णव भक्तों ने इस भक्ति का बहुत प्रचार-प्रसार किया है।

नवधा भक्ति दो युगों में दो लोगों द्वारा कही गई है। सतयुग में, प्रह्लाद ने पिता हिरण्यकशिपु से कहा था। फिर त्रेतायुग में, श्री राम ने माँ शबरी से कहा था। प्रह्लाद जी द्वारा कही गई नवधा भक्ति श्रीमद् भागवत महापुराण के सातवें स्कन्ध के पांचवें अध्याय में है। वह इस प्रकार है -

हिरण्यकशिपु पुत्र प्रेम में विभोर होकर प्रसन्न मुख प्रह्लाद को अपनी गोद में बैठाकर पूछा -

हिरण्यकशिपुरुवाच-
प्रह्रादानूच्यतां तात स्वधीतं किञ्चिदुत्तमम्।
कालेनैतावतायुष्मन्यदशिक्षद्गुरोर्भवान्॥
- भागवत पुराण ७.५.२२

अर्थात् :- हिरण्यकशिपु ने कहा - बेटा प्रह्राद! इतने दिनों में तुमने गुरु जी से जो शिक्षा प्राप्त की है, उनमें से कोई अच्छी-सी बात हमें सुनाओ।

श्रीप्रह्राद उवाच-
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा।
क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम्॥
- भागवत पुराण ७.५.२३-२५

अर्थात् :- तब प्रह्लाद जी ने कहा - पिताश्री! विष्णु भगवान की भक्ति में नौ भेद है - भगवान के गुण-लीला आदि का श्रवण, कीर्तन, रूप-नाम आदि का स्मरण, उनके चरणों की सेवा (पाद सेवन), पूजा-अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन। यदि भगवान के प्रति समर्पण के भाव से यह नौ प्रकार की भक्ति की जाय, तो मैं उसी को उत्तम अध्ययन समझता हूँ।

नवधा भक्ति

  1. श्रवण :- भगवत विषय (भगवान से संबंधित ज्ञान की बातें, उनके के नाम, गुण, लीला, धाम, इत्यादि) सुनना ‘श्रवण’ भक्ति है।
  2. कीर्तन :- भगवान के नाम, लीला, गुणों का गान ‘कीर्तन’ भक्ति है।
  3. स्मरण :- मन से भगवान के रूप, लीला आदि का स्मरण करना ‘स्मरण’ भक्ति है।
  4. चरणों की सेवा :- ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्य समझना।
  5. पूजा-अर्चन :- मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।
  6. वन्दन :- भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के भक्तजन (भगवत प्राप्त संत) को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।
  7. दास्य :- ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना ‘दास्य’ भक्ति है।
  8. सख्य :- ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझना ‘सख्य’ भक्ति है।
  9. आत्मनिवेदन :- अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना ‘आत्मनिवेदन’ भक्ति है।

जब कोई व्यक्ति भगवान की ओर चलता है, तो वह अनजाने में इन नौ भक्ति को क्रमशः करता जाता है। अर्थात वह व्यक्ति सर्वप्रथम भगवत विषय को जानने में लगा रहता है, वह अनजाने में ही किन्तु ‘श्रवण’ भक्ति कर रहा है। उसके बाद, उसे भगवान के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होने लगती है। तब वह उनके नाम, गुण, लीला का गान यानी कीर्तन में रुचि होने लगती है। कीर्तन करते-करते वो भगवान के नाम, गुण, लीला का साथ-साथ स्मरण (ध्यान) करने लगता है, वे ऐसे दिखते है, उन्होंने वह लीला ऐसे की होगी इत्यादि। वह भक्त अब भाव विभोर होकर भगवान के चरणों की सेवा, पूजा-अर्चन, वन्दन करने लगता है। इतना सब कुछ करने पर, वह भगवान को अनेकों भावों से अपना बनाने लगता है- जैसे दास्य, सख्य भाव। फिर (आत्मनिवेदन) वह अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देता है और अपनी स्वतंत्र सत्ता नहीं रखता। मैं राम का हूँ, मैं श्याम का हूँ यह भाव रखता है।

नवधा भक्ति में तीन प्रमुख भक्ति हैं - श्रवण, कीर्तन और स्मरण। इनमें सबसे प्रमुख स्मरण भक्ति फिर कीर्तन भक्ति अंत में श्रवण भक्ति है। स्मरण भक्ति सबसे महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि स्मरण मन से होता है, मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है, मन जबतक शुद्ध नहीं होगा तबतक माया, दुःख, दोष आदि से मुक्ति नहीं मिलेगी। अतः केवल स्मरण भक्ति करे, चाहे स्मरण और कीर्तन दोनों मिला कर भक्ति करे, लेकिन स्मरण भक्ति अवश्य होना चाहिए। स्मरण भक्ति के बिना कोई अन्य भक्ति लक्ष्य को नहीं दिला सकती, भगवान से नहीं मिला सकती। यह स्मरण महत्वपूर्ण है, हमें आपको हरि नाम संकीर्तन कैसे करना चाहिये? में बताया था।

अस्तु, प्रह्लाद के नवधा भक्ति कहने पर, हिरण्यकशिपु गुरुपुत्र पर क्रोधित हुआ और बहुत बुरा-भला कहा। तब गुरुपुत्र कहते है -

श्रीगुरुपुत्र उवाच-
न मत्प्रणीतं न परप्रणीतं सुतो वदत्येष तवेन्द्रशत्रो।
नैसर्गिकीयं मतिरस्य राजन्नियच्छ मन्युं कददाः स्म मा नः॥
- भागवत पुराण ७.५.२८

अर्थात् :- गुरुपुत्र ने हिरण्यकशिपु से कहा - आपके पुत्र ने जो कुछ कहा है, वह मेरे या और किसी के बहकाने से नहीं कह रहा है। राजन! यह तो इसकी जन्मजात स्वभाविक बुद्धि है। आप क्रोध शांत कीजिये। व्यर्थ में हमें दोष न लगाइये।

अतः जो नवधा भक्ति प्रह्लाद जी ने कहा वह उन्होंने नारद जी से ग्रहण किया था। प्रह्लाद जी का जन्म कैसे हुआ? - इस लेख में हमें विस्तार से यह बताया है।

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